सामाजिक न्याय की बात बेमानी साबित हो रही

punjabkesari.in Saturday, Apr 09, 2022 - 04:40 AM (IST)

केंद्र में भाजपा सरकार ने अपने स्थापना दिवस पर सामाजिक न्याय पखवाड़े की घोषणा की तो मन में प्रश्न उठा कि कहीं यह चार राज्यों में हुई जीत और आगे आने वाले चुनावों के लिए अपना प्रसार करने के उद्देश्य से प्रायोजित कार्यक्रम तो नहीं है? इसी से जुड़ा प्रश्न है कि सामाजिक न्याय क्या कोई खरीदी जा सकने वाली वस्तु है या जनता के बीच अपने को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए प्रचार का साधन है ? 

तथ्यों की कसौटी : जब हम ऐसी खबरें सुनते और देखते हैं कि हमारे देश का एक व्यक्ति पूरे एशिया का सबसे धनी बन गया या दूसरा सेठ दुनिया का सातवां सबसे अमीर हो गया तो मिली-जुली प्रतिक्रिया होती है। इसके दूसरी ओर जब एक केंद्रीय मंत्री द्वारा संसद में कहा जाता है कि देश के 20 प्रतिशत बच्चे कुपोषण का शिकार हैं, बड़ी संख्या में गर्भवती महिलाएं एनीमिया के कारण प्रसव के समय मर जाती हैं तो चित्त खिन्नता से भर उठता है। 

आदिवासी बहुल क्षेत्रों में भूख शांत करने के लिए अपनी संतान को बेचना पड़ता हो, लगभग 15 से 20 करोड़ की 4 से 14 साल तक की पीढ़ी को भीख मांगकर या बाल मजदूरी से अपना पेट भरना पड़े तो शंका होती है कि सामाजिक न्याय की बात केवल एक ढकोसला और भ्रम पैदा करने का साधन तो नहीं है? इसके साथ ही यह कुछ मुट्ठी भर लोगों द्वारा देश की संपदा को अपने हाथ में लेने का षड्यंत्र तो नहीं है? 

इस हालत में धनाढ्यों की सूची देखकर क्रोध आना स्वाभाविक है। जब कोई धन्ना सेठ अपनी पत्नी को जन्मदिन पर हवाई जहाज, समुद्री नाव या करोड़ों के हीरे जवाहरात लगी पोशाक भेंट करता है और कोई दूसरा अपनी संतान के विवाह पर इतना खर्च करता है जिससे किसी छोटे देश या अपने ही किसी राज्य की अर्थव्यवस्था संचालित हो सकती हो तो सामाजिक न्याय कोरी कल्पना जैसा लगता है!

कानून को ठेंगा दिखाना : चलिए दृश्य परिवर्तन करते हैं। देश में जब से अपने को दीवालिया घोषित करने के लिए आसान सा कानून बना है तो उसकी आड़ लेकर वे सभी बिल्डर, उद्योगपति और कारोबारी सामने आ रहे हैं जिन्होंने फ्लैट के नाम पर लोगों को ठगा है, बैंकों का कर्ज डकारना चाहते हैं, अपने कर्मचारियों और लेनदारों के साथ धोखाधड़ी करना चाहते हैं या फिर विदेश भागने की कोशिश में लगे हैं या भाग चुके हैं और सरकार के हाथ आना लगभग असंभव है। क्या यह सामाजिक न्याय है जिसमें एक सामान्य व्यक्ति महंगाई के कारण अपने खाने-पीने की चीजें भी जरूरत के अनुसार न खरीद सके, अपने बच्चों को स्कूल की बजाय कारखाने या घरेलू काम करने के लिए भेजने को प्राथमिकता दे और कुछ लोग कानून का मजाक उड़ाते हुए मौज करते रहें ? एक और दृश्य दिखाते हैं।

देश में न जाने कब से दहेज, छुआछूत, घरेलू हिंसा, महिलाओं, बुजुर्गों और बच्चों के साथ भेदभाव और दुव्र्यवहार, मिलावट, जमाखोरी, नकली पदार्थों का उत्पादन रोकने और इंसान द्वारा इंसान का शोषण न कर सकने के लिए इतने कानून बने हुए हैं कि उनका जरूरत के समय याद आना भी मुश्किल है। वास्तविकता यह है कि कानून की घेराबंदी, जटिलता और पालन करने या सरकार और प्रशासन की उन पर अमल करने की इच्छा न होना ही उनके बेमतलब या निरर्थक या रद्दी की टोकरी में डाल दिए जाने की मानसिकता के पनपने का कारण है। इस स्थिति में समझा जा सकता है कि म रोकने के प्रयास असफल क्यों होते हैं? इसका एक ही कारण है कि सामाजिक न्याय की अवधारणा को अपने व्यक्तिगत लाभ और राजनीतिक दलों द्वारा चुनाव जीतने का साधन बना दिया गया। 

कभी-कभी इस बात पर भी सोचना जरूरी हो जाता है कि देश में जब चुनाव होते हैं तो मतदान 100 प्रतिशत या उसके आसपास न होकर लगभग आधा क्यों होता है? क्या यह सामाजिक न्याय के लिए बने कानूनों और प्रशासनिक व्यवस्था की हार नहीं है जिसके चलते लोगों में मतदान के प्रति अरुचि होती है और वे सभी को एक ही थैली के चट्टे-बट्टे मानते हैं और सोचते हैं कि कोई भी राजा हो जाए, उन्हें तो वही रोज कुआं खोदना है और तब ही पानी पीना है। 

सामाजिक न्याय व्यवस्था को कमजोर करने और सभी नीतियों को दरकिनार करते हुए जब चुनाव धर्म, जाति, वर्ग और कुनबे के आधार पर लड़े जाएंगे या फिर लोगों को मुफ्त की रेवडिय़ां मिलने का लालच देकर मतदाता को मूर्ख मानते हुए लुभावनी घोषणाएं की जाएंगी तो फिर ईमानदारी और मेहनत के बल पर जीने वाले के सामने क्या विकल्प रह जाएगा, यह गंभीरता से सोचने का विषय है ! एक बात और स्पष्ट कर दें कि जाति और धर्म के आधार पर होने वाला आरक्षण और इसे अपनी उपलब्धि बताकर चुनाव जीतना इस कहावत को सही ठहराना है जिसमें दो बिल्लियों यानी जातियों की लड़ाई में बंदर अर्थात राजनीतिक दल का फायदा होना निश्चित है। अगर वह पार्टी सत्ता में हो तब तो सोने पर सुहागा है। 

न्याय की अवहेलना :सामाजिक न्याय की बात तब बेमानी हो जाती है जब आज के युग में भी किसी दलित को अपनी शादी में घोड़ी पर चढऩे को दुस्साहस समझा जाता है, कुएं, तालाब से उसके पानी लेने की मनाही होती है और उसकी छाया पडऩे को अपशकुन माना जाता है और यही नहीं सफाई कर्मचारी अपने बड़े होने से लेकर बूढ़ा हो जाने तक दुत्कारा जाता है। हमारे संविधान में हालांकि यह व्यवस्था है कि सरकार जन कल्याण के लिए नीतियां और योजनाएं तथा उन पर अमल के लिए कानून बनाएगी ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके और दिखाई दे कि सभी के सामाजिक और आर्थिक विकास का लक्ष्य पूरा करना सरकार का ध्येय है। वास्तविकता कुछ और ही है जिसे देखकर निराश होना स्वाभाविक है। 

सामाजिक न्याय पखवाड़ा शुरू होकर समाप्त भी हो जाएगा लेकिन सामान्य व्यक्ति के लिए यह सोचना आवश्यक है कि इसकी आड़ लेकर शोषण करने वालों से कैसे निपटा जा सकता है? यदि इसके लिए कोई विरोध प्रदर्शन, आंदोलन या फिर कोई नया रास्ता सुझाने का प्रयत्न किया जा सके तो सामाजिक न्याय के लिए बने कानूनों की सार्थकता सिद्ध हो सकेगी।-पूरन चंद सरीन
 


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