चिंताजनक है दिहाड़ी मजदूरों की खुदकुशी

punjabkesari.in Saturday, Jan 14, 2023 - 05:10 AM (IST)

हाल में लोकसभा में गृह मंत्रालय की ओर से दिहाड़ी मजदूरों की खुदकुशी के मामले में आंकड़े पेश किए गए। इन आंकड़ों के मुताबिक, पिछले 7 साल में दिहाड़ी मजदूरों के सुसाइड के मामलों में तीन गुना बढ़ौतरी देखी गई है। दरअसल, केंद्रीय गृह मंत्रालय ने जानकारी दी कि 2014 से 2021 के बीच दिहाड़ी मजदूरों की आत्महत्याओं की तादाद लगभग 3 गुना बढ़ गई है। गृह मंत्रालय ने बताया कि 2014 में जहां 15,735 दिहाड़ी मजदूरों ने खुदकुशी की, वहीं 2021 में यह आंकड़ा बढ़कर 42004 हो गया।

जहां 2014 में रोजाना 43 दिहाड़ी मजदूरों ने अपनी जान दी, वहीं 2021 में 115 दिहाड़ी मजदूरों ने अपनी जीवनलीला समाप्त कर ली। 2014-2021 के बीच जिन 5 राज्यों में आत्महत्या में ज्यादा इजाफा देखा गया उनमें तमिलनाडु, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, तेलंगाना और गुजरात शामिल हैं। जहां 2014 में तमिलनाडु में 3880 दिहाड़ी मजदूरों ने सुसाइड किया, वहीं 2021 में 7673 ने खुदकुशी की। इसी तरह, 2014 में महाराष्ट्र में जहां 2239 दिहाड़ी मजदूरों ने खुदकुशी की, वही यह संख्या 2021 में बढ़कर 5270 हो गई। मध्य प्रदेश में भी इसी तरह की बढ़ौतरी देखने को मिली है।

2014 में एम.पी. में 1248 दिहाड़ी मजदूरों ने आत्महत्या की थी, जबकि 2021 में यह संख्या बढ़कर 4657 हो गई। तेलंगाना में 2014 में दैनिक आधार पर अपनी आजीविका अर्जित करने वाले 1242 लोगों ने खुदकुशी की, जबकि 2021 में इनकी संख्या भी बढ़कर 4223 हो गई। गुजरात की बात करें तो 2014 में 669 दैनिक वेतन भोगियों ने अपना जीवन समाप्त कर लिया, वहीं 2021 में इनकी संख्या भी बढ़कर 3206 हो गई। असल में ये आंकड़े बेहद डरावने हैं। इस पर गंभीरता के साथ विचार-मंथन किया जाना चाहिए।

अब सवाल यह है कि आखिर वे क्या कारण रहे होंगे जिसके चलते देश की कुल वर्क फोर्स में बड़ी भागीदारी रखने वाले दिहाड़ी मजदूरों के सुसाइड रेट में इजाफा हुआ? हालांकि गृह मंत्रालय ने इनके कारणों के बारे में कुछ नहीं बताया। लेकिन, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि कोविड संकट ने दिहाड़ी मजदूरों की समस्याओं को बढ़ाया है। दरअसल, किसी भी समाज, देश, संस्था और उद्योग में मजदूरों, कामगारों और मेहनतकशों की अहम भूमिका होती है।

किसी भी देश की आर्थिक गतिविधियों के सुचारू रूप से परिचालन में श्रमिक वर्ग का विशेष योगदान रहता है या फिर यूं कहें कि देश की आर्थिक उन्नति श्रमिक वर्ग के कंधों पर टिकी होती है। आज अंधे-आधुनिकीकरण के दौर में भी इस वर्ग का महत्व कम नहीं हुआ है। उद्योग-धंधों, व्यापार-जगत, कृषि-उत्पादन और निर्माणात्मक क्रियाकलापों में श्रमिक की भूमिका नि:संदेह सर्वाधिक रहती है। लेकिन, पिछले कुछ सालों में श्रमिक वर्ग कई प्रकार की दुश्वारियां झेलने को विवश है। पिछले 2 वर्षों में श्रमिकों ने बीमारी के साथ-साथ भुखमरी की दोहरी मार झेली है।

उल्लेखनीय है कि हमारे देश में श्रमिक वर्ग की दो श्रेणियां प्रचलन में हैं। एक संगठनात्मक, तो दूसरी असंगठनात्मक। जहां संगठित क्षेत्र के श्रमिक को न केवल पर्याप्त मजदूरी प्राप्त होती है बल्कि उसकी सामाजिक सुरक्षा भी सुनिश्चित की जाती है। संगठित क्षेत्र के श्रमिकों को मासिक वेतन, महंगाई भत्ता, पैंशन और अन्य जरूरी सुविधाएं भी उपलब्ध करवाई जाती हैं। वहीं, असंगठित क्षेत्र की बात करें तो इसे कम मजदूरी पर काम करना पड़ता है, किसी भी प्रकार की सामाजिक सुरक्षा भी नहीं दी जाती है और इसके असंगठित होने के कारण जीवन-यापन पूरी तरह से दैनिक मजदूरी पर आधारित होता है।

ऐसे में असंगठित श्रमिक वर्ग अशक्त और दूसरों पर अधिक निर्भर होता है। विडंबना यह है कि देश में असंगठित श्रमिकों की तादाद बहुत ही ज्यादा है। इसे आंकड़ों में दिखाया जाए तो यह लगभग 90 प्रतिशत के इर्द-गिर्द होगी। लिहाजा, असंगठित मजदूरों की सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करने की आवश्यकता है। दरअसल, आज देश की बड़ी आबादी दैनिक मजदूरी कर जीवन का गुजारा करती है। प्रत्येक श्रमिक अपने पसीने से देश के निर्माण में बहुमूल्य योगदान करता है। बिना श्रमिक के किसी भी देश के आर्थिक ढांचे को मजबूत बनाने की कल्पना तक नहीं की जा सकती। ऐसे में, यह जरूरी हो जाता है कि तत्काल इनकी समस्याओं के समाधान के प्रयास होने चाहिएं। -अली खान


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