जज कोई ‘राजकुमार’ तो नहीं, जनता के लिए सरल फैसले लिखें

punjabkesari.in Tuesday, May 21, 2024 - 05:34 AM (IST)

प्रधानमंत्री मोदी खुद को प्रधानसेवक मानते हैं। अब चीफ जस्टिस चन्द्रचूड़ ने जजों से कहा है कि वे  राजकुमार नहीं हैं। जजों को सेवा करने और जनता के अधिकार दिलाने की जिम्मेदारी पूरी करनी चाहिए। इसके लिए उन्हें सही और समझने योग्य फैसले लिखने चाहिएं। अनपढ़ लोग तो पढ़ ही नहीं सकते, लेकिन औसत शिक्षित लोगों के लिए भी कोर्ट के फैसलों को समझना मुश्किल होता है। चीफ जस्टिस के बयान के अनेक पहलुओं पर स्वस्थ चर्चा जरूरी है। 

जनता की सेवा और उन्हें अधिकार दिलाना : जिला अदालतों में मैजिस्ट्रेट और जजों की नियुक्ति परीक्षा और इंटरव्यू से होती है लेकिन हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति जजों के कॉलेजियम द्वारा होती है। मोदी सरकार को यदि तीसरा कार्यकाल मिला तो जजों की नियुक्ति के लिए न्यायिक आयोग के कानून को नए सिरे से बनाने की कोशिश होगी। नियुक्ति की प्रणाली के साथ-साथ जजों को हटाने के लिए बनाए गए कठिन महाभियोग प्रक्रिया की आलोचना भी होती है। संविधान लागू होने के 74 साल बाद अभी तक किसी भी जज को महाभियोग से नहीं हटाया गया है। कई रिटायर्ड जजों ने न्यायिक व्यवस्था में सामंतवाद की आलोचना की है। 

चीफ जस्टिस के अनुसार जज लोगों की सेवा करने और अधिकार दिलाने के लिए होते हैं। इस बारे में सुप्रीम कोर्ट का अहम फैसला आया है, जिसके अनुसार वकीलों को उपभोक्ता संरक्षण कानून के दायरे से बाहर रखा गया है। साल 1996 में आई.एम.ए. मामले में सुप्रीम कोर्ट ने डाक्टरों को उपभोक्ता संरक्षण कानून के दायरे में लाने का फैसला दिया था। अब उस पर भी पुनॢवचार के लिए बड़ी बैंच के गठन की बात हो रही है। वकीलों ने यह तर्क दिया था कि मुकद्दमों में क्लाइंट और वकीलों के अलावा जजों का तीसरा पक्ष शामिल रहता है इसलिए उपभोक्ता संरक्षण कानून के तहत वकीलों की जिम्मेदारी नहीं बननी चाहिए लेकिन चीफ  जस्टिस चन्द्रचूड़ के बयान जिसमें उन्होंने जजों को सर्विस प्रदाता बताया है, से उलझनें बढ़ सकती हैं। उसके अनुसार गलत या विलम्ब से फैसले देने वाले जजों के खिलाफ अयोग्यता, भ्रष्टाचार और संवेदनहीनता के आधार पर वेतनवृद्धि रोकना, प्रमोशन रोकना या बर्खास्तगी जैसी दंडात्मक मांग बढ़ सकती है। 

दिल्ली शराब घोटाले के अन्य आरोपी अमनदीप सिंह ढल्ल के मामले में सुप्रीम कोर्ट के नए फैसले के अनुसार जमानत का जल्द निपटारा नहीं होने से लोगों को बेवजह जेल में रहना पड़ता है। न्यूज क्लिक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने पुरकायस्थ की गिरफ्तारी को अवैध ठहराते हुए उनकी रिहाई का फैसला दिया है, लेकिन इसके पहले उन्हें 8 महीने तक अवैध तरीके से जेल में रखा गया। उनकी अवैध गिरफ्तारी और संवैधानिक अधिकारों के हनन के लिए पुलिस और जांच एजैंसियों के साथ जिला अदालतों और हाईकोर्ट के जजों की भी जिम्मेदारी बनती है। केजरीवाल मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को नजीर मानते हुए पंजाब हाईकोर्ट ने कांग्रेस के एक नेता को चुनाव प्रचार के लिए अंतरिम जमानत दी है लेकिन सोरेन मामले की सुनवाई फिर टलने की वजह से उन्हें केजरीवाल की तरह चुनाव प्रचार करने का हक नहीं मिल पा रहा है। 

अंतरिम जमानत पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को सही तरीके से आगे बढ़ाया जाए तो हजारों लोगों को जेल के बंधन से मुक्ति मिल सकती है। क्या जमानत की अर्जी के बगैर अंतरिम जमानत मिल सकती है। अगर जेल से वोट डालने का अधिकार नहीं है तो फिर चुनाव प्रचार का संवैधानिक अधिकार कैसे मिल सकता है। क्या नेताओं को आम जनता से ज्यादा अधिकार हासिल हैं। ऐसे अनेक बिन्दुओं पर न्यायिक एकरूपता आए तो आरोपियों को जिला अदालतों और हाईकोर्ट से जमानत मिलने में आसानी रहेगी। 

सरल और समझ में आने वाले फैसले : फैसलों का मुख्य आधार कानून हैं जो जटिल होने के साथ अंग्रेजी भाषा में हैं। भारी दस्तावेज और लम्बी सुनवाई के बाद विरोधाभासी फैसलों से मुकद्दमेबाजी का मर्ज बढ़ता जाता है। कई जज कानून से ज्यादा वकील के चेहरे और आरोपी की हैसियत के अनुसार फैसला देते हैं। कई जजों के फैसलों में संविधान और कानून से ज्यादा व्यक्तिगत आग्रह प्रभावी होते हैं, जिससे विवाद के साथ न्याय पालिका की साख भी गिरती है। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस सुन्दरेश की बैंच ने अहम फैसला दिया है कि सजा देने यानी सेन्टैंसिंग के बारे में सभी अदालतों में स्पष्ट और समान नीति होनी चाहिए। जजों की मनमर्जी और इच्छानुसार सजा होना कानून सम्मत नहीं है। 

सुप्रीम कोर्ट के फैसले देश का कानून माने जाते हैं, लेकिन कई बार जज ही उन पर अमल नहीं करते। हरियाणा में सामुदायिक भूमि के मामले में 5 जजों के 1967 के फैसले को दरकिनार करके साल 2022 में 2 जजों ने गलत फैसला दिया था। सही फैसले तर्कसंगत और स्पष्ट तरीके से दिए जाते हैं जबकि मुख्य मुद्दे से ध्यान भटकाने के लिए गलत फैसलों में जटिल और दुरुह भाषा का इस्तेमाल होता है। 

संविधान पीठ के फैसले सबसे ज्यादा जटिल और दुरुस्त होते हैं। उन मामलों में लम्बी-चौड़ी सुनवाई और बड़े फैसलों से जजों का सम्मान और मान-मर्दन होता है लेकिन ऐसे बड़े फैसलों से जमीनी तौर पर आम जनता को सीमित लाभ मिलता है। साल 2017 में सुप्रीम कोर्ट के 9 जजों की संविधान पीठ के बड़े फैसले के बावजूद निजता के अधिकार के बारे में कोई कानूनी स्पष्टता नहीं है। इसी तरीके से मुम्बई में निजी सम्पत्ति के अधिग्रहण से जुड़े अनुच्छेद 39-बी के मामले में 9 जजों की संविधान पीठ ने कई दिन तक सुनवाई करने के बाद फैसला रिजर्व रखा है लेकिन उसके पहले ही 2 जजों की बैंच ने एक अहम फैसला देकर अनुच्छेद 300-ए के तहत सम्पत्ति के अधिकार से जुड़े 7 पहलुओं को संवैधानिक मान्यता दी है। 

आम लोगों से जुड़े मामलों के जल्द निपटारे के चक्कर में चार्जशीट और निचली अदालतों के दस्तावेज बेमानी हो जाते हैं। गांधी जी ने साल 1909 में कहा था कि सत्ता के ऊंचे पदों पर बैठे लोगों की एकमात्र ङ्क्षचता पद पर बने रहने की होती है, जिसकी वजह से न्याय के प्रति वे कम रुचि दिखाते हैं। अंग्रेजों का शासन खत्म होने के कई दशक बाद 21वीं सदी में स्थिति नहीं बदली है। न्याय पालिका में सामंतवाद खत्म करने और न्यायिक सुधार की दिशा में नई सरकार को ठोस कदम उठाने होंगे।-विराग गुप्ता(एडवोकेट, सुप्रीम कोर्ट)
 


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