प्रेम का जो मुकाम हमारी परम्परा में, वह दुनिया में कहीं नहीं

punjabkesari.in Wednesday, Feb 15, 2023 - 06:11 AM (IST)

भारत सरकार के पशु-कल्याण बोर्ड ने पहले घोषणा की कि ‘वैलेंटाइन डे’ को ‘गाय को गले लगाओ दिवस’ के तौर पर मनाया जाए। जब उसकी इस घोषणा का जबरदस्त मजाक उड़ा तो उसने इसे  वापस ले लिया। सेंट वैलेन्टाइन डे का विरोध अगर इसलिए किया जाता है कि वह प्रेम-दिवस है तो इससे बढ़कर अभारतीयता क्या हो सकती है? प्रेम का, यौन का, काम का जो मुकाम भारत में है, हिन्दू धर्म में है, हमारी परम्परा में है, वह दुनिया में कहीं नहीं है। धर्म शास्त्रों में जो पुरुषार्थ-चतुष्टय बताया गया है-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष उसमें काम का महत्व स्वयं सिद्ध है। काम ही सृष्टि का मूल है। अगर काम न हो तो सृष्टि कैसे होगी? 

काम के बिना धर्म का पालन नहीं हो सकता। इसीलिए काम पर रचे गए ग्रन्थ को कामशास्त्र कहा गया? शास्त्र किसे कहा जाता है? क्या किसी अश्लील ग्रंथ को कोई शास्त्र कहेगा? शास्त्रकार भी कौन है? महर्षि है! महर्षि वात्स्यायन! वैसे ही जैसे कि महर्षि वैलेन्टाइन जो तीसरी सदी में भारत में नहीं, इटली में पैदा हुए। 

वात्स्यायन को किसी सम्राट से टक्कर लेनी पड़ी या नहीं, कुछ पता नहीं लेकिन कहा जाता है कि तीसरी सदी के रोमन सम्राट क्लॉडियस द्वितीय और वैलेन्टाइन के बीच तलवारें ङ्क्षखच गई थीं। क्लॉडियस ने विवाह वर्जित कर दिए थे। उसे नौजवान फौजियों की जरूरत थी। कुंवारे रणबांकुरों की जरूरत थी। सम्राट के चंगुल से निकल भागने वाले युवक और युवतियां, जिस ईसाई संत की शरण में जाते थे, उसका नाम ही वैलेन्टाइन है। वैलेन्टाइन उनका विवाह करवा देता था, उन्हें प्रेम करने की सीख देता था और जो सम्राट की कारागार में पड़े होते थे, उन्हें छुड़वाने की गुपचुप कोशिश करता था। 

कहते हैं कि इस प्रेम के पुजारी संत को सम्राट क्लॉडियस ने आखिरकार मौत के घाट उतार दिया। किंवदन्ती यह भी है कि मौत के घाट उतरने से पहले वैलेन्टाइन ने प्रेम की नदी में स्नान किया। वे क्लॉडियस की जेल में रहे और जेल से ही उन्होंने जेलर की बेटी को अपना प्रेम-संदेशा पढ़ाया- कार्ड के जरिए, जिसके अंत में लिखा हुआ था ‘तुम्हारे वैलेन्टाइन की ओर से’। यह वह पंक्ति है, जो यूरोप के प्रेमी-प्रेमिका अब 1700 साल बाद भी एक-दूसरे को लिखना पसंद करते हैं ! 

‘वैलेन्टाइन डे’ के पीछे लट्ठ लेकर पड़े हमारे नौजवानों को शायद पता नहीं कि भारत में मदनोत्सव, वसन्तोत्सव और कौमुदी महोत्सव की शानदार परम्परा रही है इन उत्सवों के आगे ‘वैलेन्टाइन डे’ पानी भरता नजर आता है। यदि मदनोत्सवों के सम्भाषणों की तुलना ‘वैलेन्टाइन-डे’ कार्डों से की जाए तो लगेगा कि किसी सर्चलाइट के आगे लालटेन रख दी गई है, शेर के आगे बकरी खड़ी कर दी गई है और मन भर को कण भर से तौला जा रहा है कौमुदी महोत्सवों में युवक और युवतियां बेजान कार्डों का लेन-देन नहीं करते, प्रमत्त होकर वन-विहार करते हैं, गाते-बजाते हैं, रंगरलियां करते हैं, गुलाल-अबीर उड़ाते हैं, एक-दूसरे को रंगों से सराबोर करते हैं और उनके साथ चराचर जगत भी मदमस्त होकर झूमता है। 

मस्ती का वह संगीत पेड़-पौधों, लता-गुल्मों, पशु-पक्षियों, नदी-झरनों प्रकृति के चप्पे-चप्पे में फूट पड़ता है। सम्पूर्ण सृष्टि प्रेम के स्पर्श के लिए आतुर दिखाई पड़ती है। सुंदरियों के पदाघात से अशोक के वृक्ष खिल उठते हैं। सृष्टि अपना मुक्ति-पर्व मनाती है। इस मुक्ति से मनुष्य क्यों वंचित रहे? मुक्ति-पर्व की पराकाष्ठा होली में होती है सारे बंधन टूटते हैं। मान-मर्यादा ताक पर चली जाती है। चेतन में अचेतन और अचेतन में चेतन का मुक्त-प्रवाह होता है। राधा कृष्ण और कृष्ण राधामय हो जाते हैं। सम्पूर्ण अस्तित्व दोलायमान हो जाता है, रस में भीग जाता है, प्रेम में डूब जाता है। 

काम का भारतीय अट्टहास यूरोप को मूर्छित कर देने के लिए काफी है। अगर वैलेन्टाइन के यूरोपीय समाज में आज कोई होली उतार दे तो वहां एक बड़ा सामाजिक भूकंप हो जाएगा। ऐसे अधमरे-से वैलेन्टाइन को भारत का जो भद्रलोक अपनी छाती से चिपकाए रखना चाहता है, जिसकी जड़ें उखड़ चुकी हैं। उसके रस के स्रोत सूख चुके हैं। उसे अपनी परम्परा का पता नहीं। वह नकल पर जिन्दा है। उसकी अपनी कोई भाषा नहीं, साहित्य नहीं, संस्कृति नहीं। वह अंधेरे में राह टटोल रहा है।-डा.वेदप्रताप वैदिक 
 


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