संयुक्त परिवार में ही चरित्र निर्माण एवं व्यक्तित्व विकास की नींव पड़ती है

punjabkesari.in Wednesday, Nov 06, 2024 - 05:51 AM (IST)

भारत में संयुक्त परिवार की एक स्वस्थ परंपरा रही है। हमने परिवार को ऐसी संस्कारशाला माना, जहां संबंधों, संवेदनाओं एवं मानव चेतना का बोध, सामाजिक विषयों के करणीय और अकरणीय कार्य सीखे जाते हैं। जहां व्यक्तित्व विकास एवं चरित्र निर्माण हेतु आवश्यक तत्व जान यथा पारिवारिक सामाजिक-सांस्कृतिक-आॢथक दायित्वों एवं परम्पराओं सहित उचित अनुचित, धर्म-अधर्म, व्यापक दृष्टिकोण, मनोबल निर्माण एवं राष्ट्रभक्ति आदि का बोध होता है। 

संयुक्त परिवार में ही चरित्र निर्माण एवं व्यक्तित्व विकास की नींव पड़ती है। अधिकारों के स्थान पर कत्र्तव्य भावना, सहयोग, सहकारिता एवं नि:स्वार्थ प्रवृत्ति का विकास होता है। विविध संयम आचरणों यथा वाणी संयम, स्वाद संयम, आहार संयम, व्यवहार संयम, विकार संयम, उपभोग संयम आदि का निर्माण होता है। प्रेम, ममता, अपनापन एवं बड़ों के लिए आदर भाव, बड़ों का अनुसरण करना एवं छोटों के लिए अनुकरणीय बनने की प्रवृत्ति विकसित होती है।

कुटुंब के सभी सदस्यों के लिए अपनेपन की भावना रखना, अच्छा या बुरा जैसा भी है अपना है, अच्छा है तो उसे और अच्छा बनाने या बुरा है तो उसे सुधारने की सामूहिक जिम्मेदारी है, ऐसी भावना को प्रोत्साहन मिलता है। ज्ञातव्य है कि विदेशी आक्रमणों एवं लंबी दासता के तदोपरांत पाश्चात्य जीवन शैली अंगीकार करने से भारतीय समाज में संयुक्त परिवार की जगह एकल परिवार ले रहे हैं। ‘हम’ की जगह ‘मैं’ प्रबल हो रहा है। अब तो ‘लिव इन रिलेशनशिप’ हमारे सामाजिक ताने-बाने को सुरसा की तरह निगलने हेतु मुंह बाए खड़ी है। संयुक्त परिवार के समस्त हितकारी पक्षों से हमारा समाज वंचित हो रहा है। 

टैलीविजन, मोबाइल, व्हाट्सएप, फेसबुक, इन्स्टाग्राम आदि रही-सही कसर को भी समाप्त कर हमें व्यक्तिवादी, भौतिकवादी एवं स्वार्थी बना रहे हैं, जिससे हम अपनों के साथ ही प्रकृति से भी दूर होते जा रहे हैं। हमारा जीवन तनावग्रस्त होता जा रहा है। हम व्यसनों एवं नशीले पदार्थों के कुप्रभाव से ग्रसित हो रहे हैं। फलत: हमारी सामाजिक, आर्थिक एवं बौद्धिक क्षमता बुरी तरह प्रभावित एवं राष्ट्र के पुनरुत्थान में हमारी सार्थकता कम हो रही है।

पारिवारिक मूल्यों में कमी आने की वजह से अनेक तरह की सामाजिक समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं। तलाक के मामले बढ़ रहे हैं, परिवार में ही असहिष्णुता बढ़ रही है। लोग परस्पर मुकद्दमे लड़ रहे हैं। निॢववाद है कि समाज निर्माण परिवार नाम की इकाई से ही होता है। अत: भारतीय संस्कृति का क्षरण रोकने हेतु परिवार भाव विकसित करना आवश्यक है। परिवारों की एकता और राष्ट्रीयता की भावना जागृत होने पर ही समाज एवं राष्ट्र वैभवशाली बन पाएगा। संयुक्त परिवार में रहने से सदस्यों के जीवन में नया दृष्टिकोण आता है एवं सोच व्यापक होती है, जिससे आपसी सौहार्द और भाईचारे का माहौल बनता है। 

वर्तमान सन्दर्भ में कुटुंब प्रबोधन महत्वपूर्ण विषय है, जो पारिवारिक समस्याओं को समझने, उनका समाधान ढूंढने एवं समृद्ध और समरस परिवार बनाने में सहायक है। इससे परिवार में बेहतर तालमेल, सूझबूझ, परस्पर सहयोग और सौहार्द स्थापित हो सकता है। परिवार में प्राय: मतभेद, मनभेद, विवाद, भेदभाव, तनाव, व्यक्तिगत एवं आॢथक समस्याएं होती हैं। इन समस्याओं के निदान हेतु कुटुंब प्रबोधन एक सशक्त माध्यम हो सकता है। 

इस प्रक्रिया में परिवार के सभी सदस्यों को सम्मिलित कर सभी के विचारों एवं समस्याओं को धैर्यपूर्वक सुना जाता है, जिससे सभी का सहयोग सुनिश्चित होता है। सदस्यों को सांझा समाधान अपनाने हेतु प्रेरित किया जाता है एवं सुझावों को अपनाने हेतु उपयुक्त समय दिया जाता है। संयुक्त परिवार को चलाने हेतु यह सुनिश्चित करना आवश्यक होता है कि सभी सदस्यों की प्रगति हेतु समान अवसर उपलब्ध हों, जिससे उनका स्वयं का विकास हो सके एवं उनमें परिवारभाव भी बना रहे। 

इस प्रकार कुटुंब प्रबोधन हमें भारतीय संस्कृति की जड़ों से जोडऩे में प्रमुख भूमिका निभाता है। आज जब देश आत्मनिर्भर, विकसित और विश्व गुरु बनने के संकल्प के साथ आगे बढ़ रहा है, तब भारतीय संस्कृति से पोषित समाज ही उसका आधार बनेगा, जिसके निर्माण की पूर्ति हेतु कुटुंब प्रबोधन सशक्त माध्यम हो सकता है। -आचार्य राघवेन्द्र प्र. तिवारी (कुलपति, पंजाब केंद्रीय विश्वविद्यालय, बठिंडा)


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