सरकार पर कोविंद की 18,626 पन्नों की रिपोर्ट का भार

punjabkesari.in Friday, Mar 22, 2024 - 05:06 AM (IST)

चुनावी बांड पर सुप्रीम कोर्ट की सक्रियता और इस मुद्दे के बारूदी स्वभाव के चलते भले ही यही चुनाव से पहले और चुनाव घोषणा हो जाने के बाद सर्वाधिक चर्चा में है लेकिन देश भर में एक साथ चुनाव कराने का मसला हल्का नहीं है। लगभग 6 महीने का समय नहीं लगा और पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली कमेटी ने देश भर में एक साथ चुनाव कराने संबंधी अपनी 18626 पन्नों की रिपोर्ट राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को सौंप दी तो कायदे से उसकी तारीफ होनी चाहिए। 

यह बात इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इस कमेटी के गठन का ही विरोध हुआ था और लोकसभा में विपक्ष के नेता अधीर रंजन चौधरी ने इस कमेटी का सदस्य बनने से इंकार किया था। उनका कहना था कि उनके मांगने पर उनको ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’, संबंधी कमेटी से जुड़े कागजात नहीं दिए गए। पर श्री कोविंद की कार्यकुशलता और इस रिपोर्ट के सुझावों को गंभीरता से लिया जाना चाहिए। जिस गंभीरता से सरकार इस प्रस्ताव को बढ़ा रही है या समय-समय पर बढ़ाती रही है वह असली चीज है। और ठीक लोकसभा चुनाव के पहले रिपोर्ट पेश होना और इस चर्चा को नए सिरे से उठाने में भी उसके संकेत दिखते हैं। 

अब यह समय क्यों चुना गया इसका अंदाजा लगाना आसान नहीं है। पर सरकार जिस उत्साह, तैयारी, जोर-शोर से और मौका-कुमौका उठाती है वह जरूर किसी बड़ी सोच की तरफ इशारा करते हैं। पिछली बार मामला शांत था और कोविंद समिति की नियुक्ति और अधीर रंजन के इस्तीफे के पहले एक ट्वीट से चर्चा की शुरूआत हुई और एकाध को छोड़कर लगभग सारे न्यूज चैनलों ने ‘समझ’ लिया कि संसद का विशेष सत्र एक राष्ट्र एक चुनाव का फैसला करने के लिए बुलाया जा रहा है। उस समय की चर्चाओं में भाजपा के प्रवक्ता तक कुछ कहने की स्थिति में नहीं थे। 

और जिस तरह से इस काम के लिए 4 या 5 संविधान संशोधनों की जरूरत होगी, संसद के दोनों सदनों में बहुमत ही नहीं दो तिहाई बहुमत और आधे राज्यों से मंजूरी की जरूरत होगी, यह काम लोकसभा भंग होने के बाद कैसे होगा यह समझना मुश्किल है। अगर ऐसा नहीं हो सकता तो चुनाव के ठीक पहले यह रिपोर्ट लाने की क्या जल्दी थी। पर जब एक पूर्व राष्ट्रपति की अध्यक्षता में भारी-भरकम कमेटी बना दी गई हो, आधे राज्यों में भाजपा या एन.डी.ए. की सरकारें हों और सरकार द्वारा संसद में अपने मन के प्रस्ताव पास कराने का रिकार्ड, सब कुछ यह भी बताता है कि यह असंभव स्थिति भी नहीं है। 

400 पार का नारा सफल हो न हो पर अगली सरकार को लेकर भाजपा का दावा काफी मजबूत माना जा रहा है। सो राजनीतिक महत्व के हिसाब से भी इसको अभी लाने का तर्क समझ आ रहा है। भाजपा की तैयारी, संसाधन, चुनाव लडऩे का कौशल और सबके ऊपर नरेंद्र मोदी जैसा भारी-भरकम चेहरा उसे इस प्रणाली से या इसके एक हिस्से की अभी शुरूआत करा देने से भी लाभ की स्थिति में ला देगी। चुनावी खर्च घटाने, तीन  स्तरीय चुनाव कराने का लाभ, सरकारी कामकाज में बार-बार चुनाव से होने वाली परेशानियों की बात मतदाताओं के एक समूह को भाती है। और ऐसा भी नहीं है कि पहले इस तरह के चुनाव नहीं हुए हैं। 

1967 तक 4 चुनाव तो साथ-साथ हुए हैं। फिर विधानसभाओं को असमय भंग करना और फिर लोकसभा के कार्यकाल से भी छेड़छाड़ हुई तो आज वाली नौबत आ गई है। और असमय विधानसभाओं को भंग कराके राज्यों में असमय चुनाव कराना हो या लोकसभा का कार्यकाल बढ़ाना या फिर मध्यावधि चुनाव कराना सब कानून के दायरे मे या कानून बदल कर ही हुए हैं और हर के लिए राजनीतिक तर्क दिया जाता था। पर अनुभव यह भी बताता है कि जब लोकसभा और विधान सभाओं के चुनाव साथ होते थे तब हमारे सांसद बिना कुछ किए धरे विधानसभा उम्मीदवारों के श्रम और पार्टी के नाम पर जीत जाते थे और 5 साल दर्शन दुर्लभ हो जाते थे। अ

ब कोई सांसद ऐसे गायब रहकर नहीं जीत सकता और सारी तत्परता धनबल और सांसद निधि के खर्च के बावजूद हर चुनाव में आधे लोग जनता के पैमाने पर खरा न होने के चलते हार जाते हैं। इस बार तो लोकसभा विधानसभा के साथ पंचायतों और स्थानीय निकाय चुनाव की बात है। इसमें तो और उल्टा लोकतंत्र स्थापित होगा, सारा काम निचले स्तर के लोगों पर और सारी मौज ऊपर वालों की।

अब इस व्यवस्था से शासन को कुछ दिक्कत हो सकती है। और जानकारों का मानना है कि एक राष्ट्र-एक चुनाव क्षेत्र और कमजोर दलों का सफाया कर देंगे जब लोकसभा और विधानसभा के चुनाव साथ होते हैं तो मतदाता एक ही दल को दोनों स्तर पर पसन्द करता है और एक साथ क्यों, लोकसभा चुनाव के साल छह महीने बाद होने वाले चुनावों में भी उस राष्ट्रीय दल को काफी लाभ मिल जाता है जो लोकसभा चुनाव जीता होता है बल्कि मुम्बई स्थित आई.डी.एफ.सी. इंस्टीट्यूट के एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि दिन-ब-दिन मतदाता का रुझान लोकसभा में वोट देने वाले दल को विधानसभा में भी वोट देने के प्रति बढ़ रहा है। एक साथ लोक सभा और विधान सभा के चुनाव भी बड़े, ताकतवर और साधन सम्पन्न दल को अतिरिक्त लाभ देंगे और छोटे दलों की परेशानी बढ़ेगी और नए दलों-नेताओं के लिए तो अवसर समाप्त ही हो जाएंगे, इसलिए मांग चाहे जिस स्तर से उठी हो, कदम चाहे जहां तक बढ़े हों, इसके सारे गुण-दोष देखकर ही फैसला होना चाहिए।-अरविंद मोहन
 


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