तालिबान अफगानों सहित सब के लिए एक अभिशाप

punjabkesari.in Friday, Aug 27, 2021 - 05:04 AM (IST)

मुझे किसी भी तरह का धार्मिक अतिवाद तथा किसी भी मत के आतंकवादी पसंद नहीं। उन्हें अपने से दूर रखना ही बेहतर है। मेरे लिए तालिबान एक अभिशाप है। यह उन बहुत से अफगानों के लिए भी अभिशाप है जो गत 20 वर्षों के दौरान अमरीकी उपस्थिति के बीच बड़े हुए हैं। सबसे पहले दिमाग में विद्यार्थी, महिलाएं तथा खिलाड़ी आते हैं। इन दो दशकों के दौरान वे खूब फले-फूले हैं। उन्होंने उदार लोकतंत्रों द्वारा पेश स्वतंत्रता का स्वाद चखा है और वे उसी को पसंद करते हैं जो उन्होंने देखा तथा अनुभव किया है। 

विशेषकर लड़कियों ने अपने से भी बड़े आकार के बुर्कों को उतार फैंका है जो उनकी गतिविधियों में रुकावट बनते थे। वे जोर-शोर से स्कूल पहुंचीं, डाक्टर तथा वकील बनीं। उन जगहों के लिए चुनी गईं जिन्हें हम भारत में विधानसभाएं कहते हैं, उन्होंने टी.वी. न्यूज एंकर जैसी नौकरियां प्राप्त कीं और सफल हुईं और यहां तक कि एक अफगान महिला फुटबाल टीम भी बनाई। वह सब अमरीकियों के जाने और उसके साथ ही तालिबान के प्रवेश के साथ खत्म हो गया है। ‘तालिबान’ शब्द का इस्तेमाल ही मन में डर पैदा करता है जो एक तरह से संक्रामक है। इसके बावजूद तालिबान ने दावा किया है कि तालिबान 2.0 तालिबान 1.0 से अलग होगा, बहुत से अफगानी उन पर विश्वास नहीं करते। उनके पूर्ववर्ती शासन की यादें अभी भी उनके मन की आंखों के सामने मनहूसियत की तरह घूमती हैं। 

तालिबानियों के प्रति अपने दृष्टिकोण में पश्चिमी लोकतंत्रों ने सावधानी बरतना चुना है और यही रवैया भारत ने भी अपनाया है। हमने प्रतीक्षा करने और नजर रखने का निर्णय किया है जो एक  ऐसा निर्णय है जो अन्य विकल्पों के अभाव में लेने के लिए तैयार था। हमारे अधिकतर देशवासी जो अफगानिस्तान में नौकरी अथवा व्यवसाय कर रहे हैं, उस देश को छोडऩे तथा घर लौटने को बेताब हैं। बहुत से लोग पहले ही ऐसा कर चुके हैं। वह भाग्यशाली हैं जिन्हें भारतीय वायुसेना अथवा इंडियन एयरलाइंस ने वहां से निकाला। वे एक बहुत बुरे समय से गुजरे हैं जो साहस तथा बेचैनी से भरपूर था। उनकी कहानियां उनके बच्चे तथा आगे उनके बच्चे सुनाते रहेंगे। 

तालिबान के चंगुल से बचने के लिए कुछ अफगान नागरिक भी अपने देश से निकलने में सफल रहे हैं। यह वे लोग हैं जिनकी सेवाएं अमरीका तथा अन्य दूतावासों द्वारा आपूर्ति जरूरतों के लिए ली जा रही थीं। वे जिन दूतावासों में काम करते थे उनके रस्मो-रिवाजों का एक हिस्सा बन गए थे और उन देशों द्वारा उपलब्ध करवाई जाने वाली सुविधाओं के आदी हो चुके थे। संक्षेप में उनको अच्छे जीवन, निश्चित तौर पर एक बेहतर जीवन का स्वाद पड़ चुका था। संभवत: अमरीका ऐसे लोगों को समायोजित कर लेगा जो उनके इमीग्रेशन कोटा में उनके लिए काम कर रहे थे। ब्रिटेन ने भी ऐसे कुछ लोगों को ब्रिटिश नागरिकता देने का वायदा किया है। अन्य विदेशी लोकतंत्र भी इसका अनुसरण करेंगे। तो भारत के बारे में क्या? अफगानिस्तान के साथ हमारे संबंध टैगोर की ‘काबुलीवाला’ तथा उससे भी पहले से हैं। दरअसल गत कुछ दशकों में कोलकाता में एक छोटी-सी अफगान बस्ती ने अपनी जड़ें जमा ली हैं। दिल्ली में तो कई वर्षों से और भी अधिक अफगान नागरिक रह रहे हैं। 

केंद्रीय मंत्री हरदीप पुरी ने वर्तमान अफगान संकट को सी.ए.ए. के लिए न्यायोचित ठहराया है जिसे संसद द्वारा 2019 में बनाया गया था। तालिबान 2.0 के आने से 2 वर्ष पूर्व बना यह कानून तब से सी.ए.ए. के लिए न्यायोचित नहीं ठहराया जा रहा था।  निश्चित तौर पर पुरी संभवत: संभावनाओं की शानदार ‘भविष्यवाणी’ कर रहे हों मगर सी.ए.ए. केवल उन लोगों पर लागू होती है जो 2014 से पहले भारत में दाखिल हुए थे। स्वाभाविक है कि हरदीप पुरी यह नहीं जानते, जो अक्षम्य है। हिंदू तथा सिख व्यापारी जिनके पूर्वज कई-कई दशक पूर्व अफगानिस्तान में बस गए थे, को भी वायुसेना द्वारा वहां से निकाला गया है। कुछ अफगान जो इस्लाम में विश्वास रखते हैं, भी बचाए जाने वालों में शामिल थे। वे स्थानीय लोग थे जिन्होंने हमारे दूतावास तथा अन्य एजैंसियों की वस्तुओं की आपूर्ति में मदद की थी। हमारी वर्तमान सरकार उनके साथ किस तरह का व्यवहार करेगी? यहां भी हम केवल देखने का खेल खेल सकते हैं। 

ये अफगान तथा अफगान विद्यार्थी जो अब हमारे विश्वविद्यालयों में पड़ रहे  हैं, अफगान सैन्य रंगरूट जो वर्तमान में आई.एम.ए. देहरादून, ओ.टी.सी. चेन्नई तथा एन.डी.ए. खडग़वासला में प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे हैं, के साथ-साथ एन.पी.ए. हैदराबाद में पुलिस अधिकारियों के तौर पर ट्रेनिंग ले रहे हैं,के प्रति धार्मिक आधार को नजरअंदाज करते हुए सहानुभूतिपूर्ण रवैया अपनाने की जरूरत है। तालिबानियों के सामने सबसे बड़ी समस्या अपनी सरकार चलाने के लिए धन की होगी। अमरीका प्रायोजित सरकारों में नौकरी कर रहे अफगानों को अमरीकी सहायता से वेतन दिया जा रहा था। अब वह उपलब्ध नहीं होगा। ग्रामीण क्षेत्रों में आय का स्रोत हमेशा नशों तथा हथियारों की तस्करी रहा है। यदि तस्करी के मार्गों के प्रभावपूर्ण तरीके से बंद कर दिया जाए तो तालिबान बहुत बड़े संकट में होंगे। तालिबान का तात्कालिक कार्य अन्य देशों द्वारा अपनी सरकार को मान्यता दिलाना होगा। वह आसान नहीं होगा। नि:संदेह पाकिस्तान के अतिरिक्त चीन तथा रूस तैयार होंगे। 

पाकिस्तान लगभग दीवालिया है। केवल चीन ही आॢथक रूप से उनकी सहायता करने में सक्षम हैं। मैं समझता हूं कि अपने बैल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के साथ चीन को अपने पड़ोसी के बीच प्रभाव बढ़ाने में रुचि होगी। इसे पाकिस्तान का समर्थन है जिसका एकमात्र उद्देश्य तालिबान तथा इसके धार्मिक कट्टरवाद का इस्तेमाल हमें ‘हजार जख्म’ देने का है। तालिबान ने उनके देश में भारत द्वारा आधारभूत ढांचों को लेकर कुछ राहत पहुंचाने वाली टिप्पणियां की हैं (अब तक हमने वहां  3 अरब डालर का निवेश किया है) लेकिन हमारे नेता ‘इंतजार करेंगे’। अमरीकियों के जाने के बाद निश्चित तौर पर माहौल हमारे पक्ष में नहीं है। संभवत: चीनी हमारे द्वारा दिखाई गई सुस्ती का फायदा उठाएंगे। अब हमें पश्चिमी पड़ोसी के अतिरिक्त चीन पर भी नजर रखनी है। आने वाला समय कठिन होगा।

प्रत्येक कुछ दिनों में स्थिति बदल रही है और ऐसा जारी रहेगा, जब तक कि तालिबान देश पर अपनी पकड़ मजबूत नहीं कर लेते। अफवाह है, पुष्टि नहीं कि तालिबानियों ने ‘विदेशियों’ (जिनमें भारतीय शामिल हैं) के देश छोडऩे के लिए 31 अगस्त को अंतिम दिन घोषित किया है। यदि यह सच है तो ऐसे आदेश निकासी की योजना को पेचीदा बना देंगे।-जूलियो रिबैरो(पूर्व डी.जी.पी. पंजाब व पूर्व आई.पी.एस. अधिकारी)


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