बदलाव से निकलेगा सुक्खू का रास्ता
punjabkesari.in Friday, Aug 09, 2024 - 05:14 AM (IST)
प्राकृतिक आपदा ही नहीं, अनेक आपदाओं से उबरी, हिमाचल प्रदेश की कांग्रेस ‘सुक्खू’ सरकार स्थिर है। पर अब अगली चुनौती वित्तीय स्थिरता बनाए रखने की है। इस सरकार की हिमाचल में सत्ता के डेढ़ वर्ष के दौरान कई राजनीतिक तूफान आए और ‘इत-उत’ डोलती सरकार सही ढंग से काम नहीं कर पाई। यही कारण रहा कि न तो प्रशासन ने, न ही खुद विधायकों ने भी सरकार की कारगुजारी को गंभीरता से लिया। कुर्सी बचाने और रूठों को मनाने की कवायद में कांग्रेस अंतत: बाजी मार गई। वहीं विपक्ष में बैठी भाजपा ने एक राज्यसभा सीट प्राप्त करने के चक्कर में अपना काफी नुकसान झेल लिया। चाहे गत वर्ष की भयानक प्राकृतिक आपदा प्रदेश में आई हो या फिर राज्यसभा सीट पर चुनावों में अपनों के ही ‘सुक्खू’ को आंखें दिखाने का मामला हो, या फिर लोकसभा के साथ-साथ विधानसभा उप-चुनाव हो, यह सभी ‘सुक्खू’ की अग्नि परीक्षा थे और इसमें वह अपनी पत्नी को विधानसभा पहुंचाने के साथ ही हारी बाजी जीत गए।
हिमाचल प्रदेश के राजनीतिक इतिहास में यह पहला मौका था जब उप-चुनावों की आंधी में किसी को आपदा में ही अवसर मिल गया। यह राजनीतिक आपदा, कांग्रेस के बागियों समेत कई उछल रहे उत्साहित नेताओं को ऐसा सबक दे गई जो देव भूमि की सादगी परम्पराओं से कतई खिलवाड़ न होने का साफ संदेश था। अब स्थिर सरकार को आंधी से उखड़े राजनीतिक आशियानों का कीचड़ साफ करने का वक्त सामने है। प्रदेश की आर्थिक हालत सरकार की चिंता का बड़ा सबब तो है ही वहीं कर्मचारियों, बागवानी व पर्यटन व्यवसाय से जुड़े लोगों के लिए भी खराब वित्तीय स्थिति, परेशानी पैदा करने वाली है। इसी खतरे को भांप कर राज्य में सुक्खू की कांग्रेस सरकार कड़वे फैसले ले रही है। या यूं कहें कि अव्यावहारिक फैसलों को व्यावहारिक बना रही है।
हिमाचल न तो गरीब राज्य है न ही यहां भुखमरी जैसी नौबत है। लेकिन यहां लोग निजी या पर्यटन व्यवसाय से ज्यादा सरकारी नौकरी की आरामगाह पाना चाहते हैं। बस यहीं से बिछती है राजनीतिक बिसात। यानी कर्मचारियों का पार्टियों पर प्रभाव। राज्य में कांग्रेस सरकार पैंशन व बटुआ भत्ते के मुद्दों पर सत्तासीन हुई थी लेकिन पैंशन, वेतन, भत्ते इतने भारी हो गए कि विकास के कामों में प्रश्रचिन्ह लग गया। ऊपर से आपदा का कहर। इंक्रीमैंट, एरियर के भुगतान की लम्बी फेहरिस्त और कर्ज पे कर्ज। कुल मिलाकर घोर कंगाली। अब सुक्खू सरकार के कड़वे फैसले लेना लाजिमी है। पैंशन के चक्कर में बिजली भी हाथ से गई और बसों में थैलों का किराया लगा, सो अलग। इन सभी किफायतों से इतर सरकार इस कोशिश में है कि जंगल से बिजली से हिमाचल में करोड़ों रुपयों की धन वसूली की जाए। इसके लिए बिजली व वन सलाहकारों ने मजबूत वायदे भी किए हैं, लेकिन केंद्र की सरकार विरोधी दलों की सरकार की पैरवी मानेगी, यह कठिन प्रतीत होता है।
ऐसे में कांग्रेस सरकार की दो मुश्किलें आने वाले समय में बढ़ सकती हैं। पहली, पैंशन का अधूरा वायदा पूरा होने की। यानी बोर्डों, निगमों, संवैधानिक संस्थानों में पैंशन न मिलने की नाराजगी, जिन विभागों में मिलेगी उनको देने की पेचीदगी, एरियर न दे पाने की स्थिति। दूसरी, मुफ्त की आदत वाली स्कीम पर नकेल कसना। ‘फ्री’ बिजली बंद, ‘फ्री’ यात्रा बंद, ‘फ्री’ का पानी बंद, यह बंद होंगे तो वहीं से निकलेगा 1500 रुपए बटुए में जाने का रास्ता। वैसे चर्चा है कि पार्टी मैनीफैस्टो में फ्री देने की बात तो थी परन्तु फ्री को बंद करने की बात नहीं थी। बस इन्हीं फैसलों से सुक्खू सरकार को राजनीतिक दिक्कत आ सकती है जिसे भाजपा बाखूबी भुनाएगी न केंद्र हिमाचल पर रहम करेगा, न ही कांग्रेस विशेष बजट ला सकेगी।
कुल मिलाकर आधे दशक के अव्यावहारिक फैसलों पर सुक्खू की कैंची चलेगी, तो चुटकी में आर्थिक हालत तो नहीं सुधरेगी, पर इसे एक कदम सुधार का माना जा सकता है। 50 वर्षों का व्यवस्था परिवर्तन, पांच वर्ष में होना असंभव है जब तक ठोस नीतियां धरातल पर नहीं होंगी। फिर चाहे टूरिज्म से स्वावलंबन की राह हो, या फिर प्रदेश के लोगों के लिए रोजगार व्यवस्था, या कृषि, बागवानी व पशुपालन में त्वरित सुधार व बदलाव। यदि भावी योजनाओं को प्रशासनिक मजबूती से चलाया जाए, तो अगले पांच वर्ष में व्यवस्था परिवर्तन दिखेगा। जैसे तय किया जाना चाहिए कि 5 वर्ष में पर्यटन निगम के सभी होटल लाभ में होंगे या स्कूलों व कालेजों में कौशल व्यवसाय से जुड़े अध्यापक मौजूद हों।
पटवारी व कांस्टेबल भर्ती की दौड़ न हो। हर घर स्वस्थ हो, हर घर में पेयजल हो। घर-घर का रास्ता सुरक्षित हो। यह बुनियादी बदलाव होंगे तो कुछ भी बंद करने की नौबत नहीं आएगी। व्यवस्था परिवर्तन के लिए ‘बंद’ की जगह बदलाव का फार्मूला लागू हो। इसी तरह ही स्थिर सुखविंद्र सिंह सुक्खू प्रदेश में वित्तीय स्थिरता के साथ राजनीतिक स्थिरता की राह निकाल सकेंगे लेकिन राजनीतिक कदम कहां रुकेंगे, यह देखना होगा।-डा. रचना गुप्ता