रणनीति और कूटनीति की कसौटी होनी चाहिए
punjabkesari.in Sunday, Oct 12, 2025 - 05:23 AM (IST)
प्रसिद्ध इतालवी दार्शनिक और राजनीतिज्ञ एंटोनियो ग्राम्शी ने लिखा था, ‘‘पुरानी दुनिया मर रही है और नई दुनिया जन्म लेने के लिए संघर्ष कर रही है। अब राक्षसों का समय है।’’ यह बात 2020 के दशक पर भी उतनी ही लागू होती है जितनी 1930 के दशक पर, जब ग्राम्शी ने अपनी माक्र्सवादी विचारधारा को बेनिटो मुसोलिनी की फासीवादी सत्ता के विरुद्ध खड़ा किया था। जिस पुरानी दुनिया को ग्राम्शी ने मरते देखा, वह एडॉल्फ हिटलर और मुसोलिनी जैसे नेताओं और यहां तक कि जोसेफ स्टालिन जो स्वयं एक माक्र्सवादी थे, द्वारा अपनाई गई राक्षसी राजनीति का परिणाम थी। अमरीकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन रूजवैल्ट जैसे अन्य लोगों ने अपनी चुप्पी के माध्यम से और ब्रिटिश प्रधानमंत्री नेविल चेम्बरलेन ने 1938 में हिटलर के तुष्टिकरण के माध्यम से, उस दुनिया के विनाश में तेजी से योगदान दिया।
1930 के दशक की अराजकता के परिणामस्वरूप द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ गया और एक नई विश्व व्यवस्था का जन्म हुआ। अब, जब लोकतंत्र, वैश्विकता और शांति जैसे स्तंभों पर टिकी वह व्यवस्था चरमरा रही है, विभिन्न देशों में समान चरित्र भारी उथल-पुथल मचा रहे हैं, ग्राम्शी द्वारा ऐसे नेताओं को ‘राक्षस’ कहना वर्तमान संदर्भ में शायद उचित न हो। फिर भी, आज के युद्धों और अस्थिरता को ग्राम्शी के शब्दों में ही पारिभाषित किया जा सकता है। जिस तरह 1930 के दशक में अमरीका द्वारा राष्ट्र संघ में शामिल होने से इंकार करने के कारण उसका पतन हुआ था, उसी तरह नई व्यवस्था की नींव के रूप में स्थापित संयुक्त राष्ट्र, ट्रम्प के शासन में वाशिंगटन से वित्तीय सहायता की कमी के कारण संघर्ष कर रहा है। कई देश इसे एक निरर्थक संगठन मानते हैं जो घटनाओं को प्रभावित करने में असमर्थ है।
इस बीच, चीन उस संस्था का उत्साहपूर्वक समर्थन करता दिखाई दे रहा है। वह इस संस्था में विभिन्न महत्वपूर्ण पदों पर आसीन है। फिर भी, राष्ट्रपति शी जिनपिंग इसके सबसे महत्वपूर्ण वार्षिक आयोजन महासभा, जिसे उन्होंने शायद ही कभी संबोधित किया हो, में बहुत कम रुचि दिखाते हैं। साथ ही, चीन बैल्ट एंड रोड इनिशिएटिव, ग्लोबल डिवैल्पमैंट इनिशिएटिव, ग्लोबल सिक्योरिटी इनिशिएटिव और ग्लोबल सिविलाइजेशन इनिशिएटिव जैसे ढांचों के माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के लिए एक नए संस्थागत ढांचे का सक्रिय रूप से निर्माण कर रहा है। एक नई व्यवस्था के निर्माण की प्रक्रिया को पूरा करते हुए, शी ने इस वर्ष सितम्बर में ग्लोबल गवर्नैंस इनिशिएटिव के गठन की घोषणा की, जिसका उद्देश्य ‘अंतर्राष्ट्रीय शासन प्रणाली में सुधार’ करना है। भारत को इन घटनाक्रमों के परिणामों के प्रति सचेत रहना चाहिए। दशकों से बनाए गए रिश्ते अब बिखरते दिख रहे हैं। ‘पड़ोसी पहले’ नीति के तहत अपने सर्वोत्तम प्रयासों के बावजूद, वह एक स्थिर और मैत्रीपूर्ण पड़ोस बनाने में असमर्थ रहा है। उसके कई पड़ोसियों की अस्थिर राजनीति भारत की विदेश नीति की परीक्षा ले रही है। प्रधानमंत्री और फील्ड मार्शल के वादों से बहक कर अमरीका एक बार फिर भारत के कट्टर पश्चिमी प्रतिद्वंद्वी की ओर झुक गया है। यह मान लेना नासमझी होगी कि चीन पाकिस्तान की अमरीका से बढ़ती नजदीकियों से नाखुश था।
पिछले कुछ दशकों में, उसने उस देश के राजनीतिक, सैन्य और नागरिक बुनियादी ढांचे में भारी निवेश किया है। पाकिस्तान के प्रस्ताव,चाहे अमरीका के प्रति हों या सऊदी अरब के साथ यह समझौता बीजिंग की जानकारी और सहमति के बिना संभव नहीं होता। 26-27 अक्तूबर को कुआलालम्पुर में होने वाले पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन में एक सफलता की उम्मीद है, जहां ट्रम्प और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मिल सकते हैं। हालांकि, दोनों देशों के बीच व्यापार वार्ता शिखर सम्मेलन से पहले समाप्त होने की संभावना नहीं है। टैरिफ पहेली को अंतत: हल होने में कुछ और समय लग सकता है। किसी समझौते के अभाव में, भारतीय पक्ष मोदी-ट्रम्प बैठक को एक निरर्थक कवायद मान सकता है। इसके अलावा, ट्रम्प केवल 26 अक्तूबर का दिन कुआलालम्पुर में बिता रहे हैं और अगले दिन होने वाले शिखर सम्मेलन को छोड़ रहे हैं, जिससे दोनों नेताओं के बीच किसी भी विस्तृत बातचीत की गुंजाइश कम है।
कुछ लोग तर्क दे सकते हैं कि यह उथल-पुथल एक आदमी की वजह से है। ट्रम्प और 2028 में उनके पद छोडऩे के बाद सामान्य स्थिति फिर से बहाल हो जाएगी। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में तीन साल का समय बहुत लंबा होता है। ट्रम्प का यह व्यवधान आने वाली नई व्यवस्था के स्वरूप पर अपनी छाप छोड़ेगा। मोदी ने 2 हफ्ते पहले एक महत्वपूर्ण संदेश दिया था जिसमें उन्होंने लोगों से स्वदेशी अपनाने और स्वदेशी उद्योगों को बढ़ावा देने का आह्वान किया था। जबकि वह सराहनीय प्रतिक्रिया है। भारत को तत्काल अपने कूटनीतिक विकल्पों-दीर्घकालिक और अल्पकालिक दोनों की व्यापक पुनर्गणना की आवश्यकता है। व्यावहारिकता उसकी रणनीति और कूटनीति की कसौटी होनी चाहिए, रूमानियत नहीं।(लेखक इंडिया फाऊंडेशन के अध्यक्ष हैं)-राम माधव
