विकास की बयार से अछूता है श्रीनगर

Monday, Jun 17, 2019 - 02:16 AM (IST)

कुछ वर्षों के बाद पिछले हफ्ते मैंने श्रीनगर में कुछ दिन गुजारे। मैं समझता हूं कि यह महत्वपूर्ण है कि पाठक यह जानें कि उस राज्य में क्या हो रहा है? क्योंकि यह परेशान करने वाला है। इस राज्य का दौरा करना हमेशा हैरानीजनक होता है क्योंकि वहां पर पहुंच कर ही आप यह जान पाते हैं कि कश्मीर और उसके लोगों के बारे में वास्तविकता क्या है? जब आप वहां से दूर होते हैं तो आप वही सच मानते हैं जो कुछ न्यूज चैनलों द्वारा दिखाया जाता है। 

सबसे पहली बात जो यहां पहुंचने पर दिखती है वह यह है कि श्रीनगर में बहुत कम बदलाव आया है। पिछले 10-15 वर्षों में जिस तरह से भारतीय शहरों की तस्वीर बदली है वैसा श्रीनगर में नहीं हुआ है। यहां कोई मल्टीप्लैक्स नहीं है और एक भी सिनेमा हाल नहीं है तथा न ही मॉल हैं। रैस्टोरैंट वैसे ही नजर आते हैं जैसे 2-3 दशक पहले थे। हालांकि यातायात बढ़ गया है लेकिन आर्थिक उन्नति के संकेत बहुत कम नजर आते हैं। क्योंकि दिल्ली सरकार बार-बार मोबाइल सेवाएं काट देती है इसलिए श्रीनगर में एप आधारित अर्थव्यवस्था नहीं है। यहां पर उबेर या ओला नहीं मिलती जिसके हम वर्षों से आदी हो गए हैं। 

कश्मीर में बहुत कम समाचार चैनल
भारत में 403 समाचार चैनल हैं लेेकिन कश्मीर में कोई नहीं है। सरकार द्वारा यहां पर किसी भी लोकल चैनल की अनुमति नहीं दी जाती क्योंकि इससे उसे समस्या पैदा होने का डर रहता है। यहां की अर्थव्यवस्था कमजोर होने के कारण कार्पोरेट विज्ञापन  ज्यादा नहीं है। इसका अर्थ यह है कि कश्मीरी समाचारपत्र दिल्ली सरकार द्वारा दिए गए विज्ञापनों पर निर्भर हैं जोकि उनका सबसे बड़ा ग्राहक है। जाहिर है कि कोई भी समाचारपत्र अपने सबसे बड़े ग्राहक के खिलाफ नहीं लिखेगा और इसलिए लोगों की भावनाओं को अखबारों के मुख्य पृष्ठों पर जगह नहीं मिल पाती। 

जिस दिन मैं वहां से वापस आने लगा, अखबारों में एक हैडलाइन छपी थी  : ‘‘न तो आजादी संभव है न ही स्वायत्तता, जम्मू-कश्मीर के गवर्नर ने कहा।’’ राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने कश्मीर के पत्रकारों से कहा कि वह चाहते हैं कि कश्मीर के युवा बंदूक छोड़ कर उनके साथ डिनर में शामिल हों। यदि आजादी और स्वायत्तता पहले ही बातचीत से बाहर हैं तो वह उनके साथ क्या बात करना चाहते हैं। वास्तविकता यह है कि इस सरकार को यह पता ही नहीं है कि कश्मीर में क्या करना है और लोकतंत्र को नकार कर यहां की जनता पर ताकत के बल पर शासन करना चाहती है। 

अद्र्धसैनिक बलों की मौजूदगी
श्रीनगर की गलियों में अद्र्धसैनिक बलों की मौजूदगी सामान्य बात हो गई है। तमिल, बंगाली, हिन्दी और पंजाबी बोलने वाले असाल्ट राइफलों से लैस वर्दीधारी लोग स्थानीय लोगों पर नजर रखते हैं। कश्मीर में पहले से ज्यादा सुरक्षा बलों के जवान मारे जा रहे हैं। 2015 में 41 जवान मारे गए थे जबकि 2016 में 88, फिर 81, फिर 2017 में 83 और पिछले वर्ष 95। अभी यह आधा ही साल बीता है हमने अपने 67 सैनिक खो दिए हैं। स्पष्ट तौर पर चुनाव जीतने में पुलवामा और बालाकोट की काफी भूमिका रही लेकिन मैं इस बात से हैरान हूं कि क्या हम में से बहुत से लोग इस बात को समझते हैं कि इस सारे नाटक का परिणाम क्या था। जब तक मौतें हम से काफी दूर होती हैं तो हम इससे प्रभावित नहीं होते। 

जिस दिन मैं यहां पर पहुंचा, मैं 10 रिपोर्टरों से मिला। मैंने उन लोगों से यहां की स्थिति के बारे में खुल कर बातचीत की। उन्होंने बताया कि उन्हें यह जानने के लिए सरकार के निर्देशों की जरूरत नहीं होती कि किन मसलों पर नहीं लिखना है। उन्हें खुद ही इस बात का आभास रहता है। मैंने इतने डरे हुए भारतीय रिपोर्टरों का समूह पहले कभी नहीं देखा। एयरपोर्ट पर एक बूथ बना हुआ है जिस पर विदेशी लोगों को पंजीकरण करवाना होता है, इस तरह का बूथ अन्य किसी भी राज्य में नहीं है। कश्मीर में विदेशी पत्रकारों पर पाबंदी जैसी स्थिति है। यहां से अल जजीरा और न्यूज टी.वी. (ईरान सरकार के स्वामित्व वाला) दिल्ली सरकार द्वारा हटा दिए गए हैं। 

कश्मीर पर इस समय सीधे दिल्ली से शासन किया जा रहा है और निर्देश यह है कि सख्ती बरती जाए। हम जानते हैं कि इसका मतलब क्या है और इसका मतलब यह है कि प्रदर्शनों से सख्ती से और बलपूर्वक निपटा जाए तथा किसी तरह की दया न दिखाई जाए। वास्तव में कश्मीरियों से इस तरह का व्यवहार सिर्फ इस सरकार के समय शुरू नहीं हुआ बल्कि लम्बे समय से ऐसा ही चला आ रहा है। हमने उनके अनुसार जो कुछ किया है वह तीन दशकों से हो रहा है लेकिन ऐसा लगता है कि हमने कुछ नहीं सीखा है। हमारी बड़ी गलती यह है कि हम नागरिकों और सैनिकों के बलिदानों से परेशान नहीं होते और सोचते हैं कि हालात सामान्य हो रहे हैं जबकि हमने ही स्थितियों को असामान्य बनाया है।-आकार पटेल

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