‘सामाजिक न्याय की सूरत बदलनी चाहिए’

punjabkesari.in Saturday, Feb 20, 2021 - 04:32 AM (IST)

दुनिया की जानी मानी और प्रभावशाली संस्था संयुक्त राष्ट्र संघ ने कुछ सोच समझकर ही सन् 2007 में बीस फरवरी की तारीख विश्व सामाजिक न्याय दिवस के रूप में मनाए जाने की घोषणा की होगी। हो सकता है कि उसके ध्यान में संसार के कुछ देशों में सामाजिक अन्याय की एेसी घटनाएं सामने आईं हों जिनका प्रभाव व्यापक रूप से पड़ता हो और एक मुहिम जैसा कुछ चलाना जरूरी लगा हो। 

सामाजिक अन्याय : खैर जो भी हो, विषय की गंभीरता को देखते हुए अपने देश में उन बातों पर चर्चा करना एक बार फिर आवश्यक हो जाता है जिनसे सामाजिक न्याय की स्थापना हो और बड़े पैमाने पर फैली असमानता के निराकरण या उसे कम करने के प्रति लोगों में कुछ तो बेचैनी हो। 

हालांकि इस मुद्दे को लेकर अक्सर बहस होती रहती है कि अगर किसी व्यक्ति, परिवार, समाज के साथ किसी भी तरह का अन्याय होता है तो उसके खिलाफ आवाज उठानी ही चाहिए और जो लोग इसके लिए जिम्मेदार हैं, उन्हें कानून के माध्यम से सजा मिलनी चाहिए। लेकिन एेसा होता नहीं है और जिस व्यक्ति या समुदाय ने कोई अन्याय किया है वह और भी चौड़ा होकर पहले से ज्यादा ताकत के साथ अपने विरुद्ध खड़े होने वालों को सबक सिखाने की नीयत से अन्याय और अत्याचार करने की नई से नई तरकीब निकाल कर अपना दबदबा कायम रखने में कामयाब होता जाता है। वह जानता है कि जब सैंया भए कोतवाल तो डर काहे का क्योंकि राजनीतिक और प्रशासनिक समर्थन ज्यादातर उसके साथ होता है। 

हमारे संविधान में इस बात की पुरजोर तरीके से व्यवस्था की गई है जिससे सामाजिक अन्याय करना संभव न हो, लेकिन जब समाज के कमजोर तबके से अन्याय होता है तो मतलब साफ है कि जिन लोगों पर संविधान के प्रावधानों को लागू करने की जिम्मेदारी है, वे उसकी अनदेखी कर रहे हैं और उनका साथ दे रहे हैं जो अन्याय करने में सबसे आगे हैं।
अगर ऐसा न होता तो देश की लगभग तीन चौथाई सम्पत्ति पर एक प्रतिशत लोगों का कब्जा नहीं होता और एक चौथाई आबादी को भूखे पेट रहने की मजबूरी नहीं होती। 

कानून हैं पर बेअसर : हमारे देश में सामाजिक अन्याय को रोकने के लिए बने कानूनों की भरमार है, इनमें संशोधन भी होते रहते हैं और नए कानून बनते रहते हैं। अब क्योंकि इन्हें लागू करने वाला तंत्र उदासीन बना रहता है तो सामाजिक अन्याय करने वाले उनके उल्लंघन का खुला खेल खेलते रहते हैं। कानून को अपना चाकर बना लेते हैं और पालन करवाने वालों को नौकर ताकि मनमानी करने में कोई कसर बाकी नहीं रहे। हमारे देश में लिंग परीक्षण, भ्रूण हत्या, आनर किलिंग, बाल विवाह, दहेज जैसी कुरीतियों के खिलाफ सख्त कानून हैं लेकिन प्रतिदिन ये सब सबकी आंखों के सामने खुलेआम होता है। 

हम अपने ही घर, पास पड़ोस और बाहर कदम रखने और कुछ दूर ही चलने पर सामाजिक न्याय की धज्जियां उड़ाई जाते हुए देखते रहते हैं और कुछ नहीं करते। बाल मजदूरी अपराध है लेकिन सड़क, चौराहे, नुक्कड़ से लेकर किसी ढाबे और कारखाने में चार से चौदह साल तक के बच्चे काम करते हुए मिल जाएंगे जबकि यह गैर-कानूनी है। ग्रामीण क्षेत्रों में चले जाइए तो वहां इस उम्र के बच्चे खेतों में काम करते मिलेंगे या पशुआें की देखभाल करते हुए अथवा कोई एेसा ही मजदूरी का काम जो कानूनन इन्हें नहीं करना चाहिए। 

महिलाआें को लेकर बहुत से कानून हैं जिनके अनुसार न तो उनके साथ लिंग के आधार पर कोई भेदभाव हो सकता है और न ही उन्हें पुरुषों से कम वेतन या मजदूरी दी जा सकती है। परन्तु एेसा प्रतिदिन सबके सामने होता है। यही नहीं उनके साथ कोई दुव्र्यवहार होता है तो उन्हें ही कटघरे में खड़ा कर दिया जाता है कि गलती तो केवल औरत ही कर सकती है, मर्द तो बेचारे और पाकसाफ होते हैं। अगर कहीं किसी महिला ने हिम्मत कर न्याय की गुहार लगा दी तब तो हो सकता है कि उसका जीना ही मुश्किल हो जाए क्योंकि कानून उसके साथ बेशक हो लेकिन सामाजिक और कानूनी व्यवस्था तो उनके पास है जो नारी उत्पीडऩ को अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं। 

जरा सा आगे बढ़ जाने पर हो सकता है आपको पास के धार्मिक स्थान पर भीख मांगते और किसी दानवीर द्वारा भूखों को दिए जा रहे भोजन की लंबी कतार में बच्चे, नौजवान, महिलाएं, बेसहारा, अपाहिज और वृद्ध मिल जाएं। यहां यह कहना बेमानी हो जाता है कि भीख मांगना अपराध है। 

कानून से बड़ा भाग्य : सामाजिक न्याय की अवधारणा इसलिए की गई होगी ताकि सब को शिक्षा, रोजगार, परिवार के भरण-पोषण की सुविधा और सामान्य जीवन जी सकने की सहूलियत मिल जाए लेकिन यह सब लगता है कि संवैधानिक अधिकार के स्थान पर भाग्य के क्षेत्र में आता है। अगर किस्मत में होगा तो मिल जाएगा वरना कुछ नहीं मिलेगा। विश्व सामाजिक न्याय दिवस पर क्या सरकार से कुछ एेसी व्यवस्था करने की उम्मीद की जा सकती है जिससे संविधान में मिले अधिकार की रक्षा हो सके और उसे पाने के लिए कुछ एेसा न करना पड़े जो असंवैधानिक या गैर कानूनी है? सामाजिक न्याय की तस्वीर बदली जानी चाहिए और यह तब ही बदल सकती है जब लोगों की सोच बदले।-पूरन चंद सरीन
 


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