सुप्रीम कोर्ट को स्पष्ट दिशा-निर्देश जारी करने चाहिए
punjabkesari.in Thursday, Jun 19, 2025 - 05:35 AM (IST)

सर्वोच्च न्यायालय ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जुड़े एक मामले में कर्नाटक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश द्वारा दिए गए निर्देशों पर सवाल उठाकर अच्छा काम किया है। यह मामला अभिनेता कमल हासन के उस बयान से संबंधित है, जिसमें उन्होंने कहा था कि कन्नड़ भाषा तमिल से उत्पन्न हुई है। इस बयान के कारण कर्नाटक में व्यापक विरोध प्रदर्शन हुआ और कुछ नेताओं ने कमल हासन की नवीनतम फिल्म ‘ठग लाइफ’ दिखाने वाले सिनेमाघरों को जलाने की धमकी दी।
उच्च न्यायालय में हासन की याचिका को न्यायाधीश न्यायमूर्ति एम. नागप्रसन्ना ने खारिज कर दिया और अभिनेता से उनकी टिप्पणी के लिए माफी मांगने को कहा तथा कहा कि ‘किसी भी नागरिक को भावनाओं को ठेस पहुंचाने का अधिकार नहीं है।’ अदालत ने कहा कि हासन स्पष्टीकरण जारी कर सकते थे, कह सकते थे कि ‘मैंने इतिहास को देखे बिना बयान दिया है’ और कहा कि ‘एक माफी से सब कुछ हल हो जाता... लेकिन रवैया तो देखिए!’
जस्टिस नागप्रसन्ना ने भी हासन के दावे पर सवाल उठाया, ‘ये परिस्थितियां कमल हासन द्वारा पैदा की गई थीं, और उन्होंने कहा है कि वे माफी नहीं मांगेंगे। आपने कर्नाटक के लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचाई है... किस आधार पर? क्या आप इतिहासकार हैं? या भाषाविद् हैं?’ अदालत ने अभिनेता द्वारा अशांति पैदा करने के बावजूद पुलिस से सुरक्षा मांगने के निर्णय पर भी सवाल उठाया। ‘अब आप यहां व्यावसायिक हित के लिए आए हैं, कि पुलिस को आपके द्वारा पैदा की गई स्थिति से सुरक्षा करनी चाहिए।’ कमल हासन द्वारा माफी मांगने से इंकार करने के बाद, फिल्म कर्नाटक में रिलीज नहीं की गई, जिसके बाद देश की सर्वोच्च अदालत में एक जनहित याचिका (पी.आई.एल.) दायर की गई।
न्यायमूर्ति उज्जल भुइयां और न्यायमूर्ति मनमोहन की सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने कहा कि कानून के शासन को भीड़ की धमकियों का बंधक नहीं बनाया जा सकता। उन्होंने चेतावनी दी कि ‘गुंडों के समूहों’ को यह तय करने की अनुमति नहीं दी जा सकती कि सिनेमाघरों में क्या दिखाया जाएगा। पीठ ने टिप्पणी की, ‘यदि किसी ने कोई बयान दिया है, तो आप उसका जवाब दूसरे बयान से दे सकते हैं। आप थिएटरों को जलाने की धमकी नहीं दे सकते।’ सर्वोच्च न्यायालय ने फिल्म के निर्माता द्वारा दायर याचिका को कर्नाटक उच्च न्यायालय से अपने पास स्थानांतरित कर लिया और राज्य सरकार से जवाब दाखिल करने को कहा। इसने उच्च न्यायालय की भूमिका पर सवाल उठाया, विशेषकर इस सुझाव पर, कि मुद्दे को सुलझाने के लिए अभिनेता को अपनी टिप्पणी के लिए माफी मांगनी चाहिए। न्यायालय ने कहा कि किसी से उसकी टिप्पणी के लिए माफी मांगने को कहना न्यायालय का काम नहीं है। इसने इस बात पर जोर दिया कि एक बार जब किसी फिल्म को केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सी.बी.एफ.सी.) से मंजूरी मिल जाती है, तो उसे रिलीज होने की अनुमति दी जानी चाहिए। अदालत ने कहा, ‘लोग इसे न देखने का विकल्प चुन सकते हैं। लेकिन हम धमकी और भय के आधार पर यह तय नहीं कर सकते कि फिल्म रिलीज होगी या नहीं।’
अदालत ने इस तर्क के समर्थन में, कि लोकतंत्र में भिन्न विचारों की अनुमति होनी चाहिए, ‘मि. नाथूराम बोलतोय’ नाटक मामले में बॉम्बे उच्च न्यायालय के फैसले और इमरान प्रतापगढ़ी फैसले सहित पिछले निर्णयों का हवाला दिया। हालांकि, यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि सर्वोच्च न्यायालय सहित अन्य न्यायालय हमारे संविधान के मौलिक अधिकारों में निहित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के महत्वपूर्ण मुद्दों पर विरोधाभासी रुख अपनाते रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने स्वयं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जुड़े कई मामलों में मौन आदेश लागू किए हैं। इस वर्ष फरवरी में, सुप्रीम कोर्ट ने पॉडकास्टर और प्रभावशाली व्यक्ति रणवीर इलाहाबादिया को गिरफ्तारी से अंतरिम संरक्षण प्रदान करते हुए उन पर सोशल मीडिया पर पोस्ट करने पर रोक लगा दी थी। इस निर्णय को सुप्रीम कोर्ट के पिछले निर्णयों के विरोधाभासी माना गया, जिनमें अत्यधिक भाषण प्रतिबंधों के प्रति आगाह किया गया था। रणवीर को अपने एक शो के लिए कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ा था, जो किसी भी तरह से हास्यप्रद या मनोरंजक नहीं था, बल्कि विकृति से भरा हुआ था। देश के विभिन्न हिस्सों में उनके खिलफ कई एफ.आई.आर. दर्ज की गईं और उनकी गिरफ्तारी की व्यापक मांग हुई।
उन्होंने अपनी गिरफ्तारी के खिलाफ देश की सर्वोच्च अदालत का दरवाजा खटखटाया है और कहा है कि उनकी जान को खतरा है। अदालत ने उनके खिलाफ दर्ज एफ.आई.आर. को एक साथ जोडऩे और उनकी गिरफ्तारी पर रोक लगाने के साथ ही अगले आदेश तक उनके द्वारा और अधिक पॉडकास्ट जारी करने पर भी रोक लगा दी थी। इसी अदालत ने पहले ऑल्ट न्यूज के सह-संस्थापक मोहम्मद जुबैर को जमानत पर रहते हुए ट्वीट करने से रोकने से इंकार कर दिया था और कहा था कि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अनुचित उल्लंघन होगा। अपना फैसला सुनाते हुए न्यायालय ने कहा था कि ‘चुप रहने के आदेशों से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।’ एक अन्य आदेश में सर्वोच्च न्यायालय ने पत्रकारों पर प्रतिबंध लगाते हुए उन्हें आंध्र प्रदेश भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो द्वारा उच्च-प्रोफाइल हस्तियों के विरुद्ध दर्ज मामले पर रिपोॄटग करने से रोक दिया था। सर्वोच्च न्यायालय, जो नागरिकों के मौलिक अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए अंतिम सीमा है, को इस मुद्दे पर स्पष्ट दिशा-निर्देश जारी करने चाहिएं, जिनका उच्च न्यायालयों के साथ-साथ अधीनस्थ न्यायपालिका को भी पालन करना चाहिए।-विपिन पब्बी