यह सब देख ‘इंसाफ की देवी’ जरूर रोई होगी

punjabkesari.in Tuesday, Sep 20, 2022 - 07:09 AM (IST)

यदि देश के किसी भी राज्य में विधानसभाओं के भीतर सत्ताधारी दल के सदस्यों को सत्ताधारी पार्टी की ओर से पुलिस के जोर-जबर के भय या किसी लालच का जाल बिछा कर पासा पलटने के संभावित खतरे को भांपते हुए अपना राज्य छोड़ किसी दूसरे राज्य में शरण लेनी पड़े तो फिर लोकतंत्र के पौधे को कितना मजबूत कहा जा सकता है?

यदि लाखों नागरिकों के मतों के चलते चुने गए संसद सदस्यों या विधायकों को अपनी जमीर कायम रखने के लिए उपरोक्त विधि का सहारा लेना पड़ता है तो आम आदमी की सुरक्षा या बिना किसी भय के अपनी मर्जी से जीवन जीने के अधिकार का हश्र कैसा हो सकता है, यह अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। निचले स्तर पर जिला परिषदों या पंचायती संस्थाओं के चुने गए सदस्यों को अपनी संस्था में मनमर्जी से राजनीतिक पैंतरेबाजी लेेने के समय सरकार की दमनकारी मशीनरी, समाज विरोधी तत्वों के संभावित खतरों तथा धनाढ्य लोगों के अथाह धन के समक्ष निडर होकर खड़े रहने के लिए किन खतरों का मुकाबला करना पड़ता होगा, इसका एहसास करना भी मुश्किल है। 

इस व्यवहार का अनुमान गत दिनों झारखंड में हेमंत सोरेन के नेतृत्व वाली संयुक्त सरकार के मंत्रियों तथा विधायकों की ओर से कांग्रेस के शासन वाले राज्य छत्तीसगढ़ के होट के अंदर शरण लेने की घटना से लगाया जा सकता है। ऐसा पहली मर्तबा नहीं हुआ। कुछ समय पहले महाराष्ट्र में और गोवा, कर्नाटक, मध्यप्रदेश तथा हरियाणा इत्यादि राज्यों में भी ऐसा नाटक खेला जा चुका है। इस हमाम में वैसे तो करीब-करीब सभी ही सत्ताधारी पार्टियां नग्र हो चुकी हैं। 

ई.डी., सी.बी.आई., आई.बी. इत्यादि सरकारी एजैंसियों तथा आयकर विभाग द्वारा सत्ताधारी पार्टी के हक में की जा रही खुली दखलअंदाजी न तो नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाले राजनीतिक नेताओं के माथे पर पसीना ले आती है तथा न ही माननीय अदालतें इन अनैतिक कार्यों का खुद संज्ञान लेते हुए पिंजरे में कैद इन तोतों के बारे में कोई टिप्पणी कर रही हैं। 

ऐसे माहौल में लोगों की सबसे बड़ी भरोसेमंद समझे जाने वाली संस्था, कानूनी प्रणाली के ऊपर अविश्वास पैदा करती है। जब अदालतों की ओर से किसी भी संवैधानिक मर्यादा के हक में कोई निर्णय लिया जाता है तब जल समूहों में कुछ विश्वास जागता है परन्तु अगले ही क्षण ऐसे अदालती निर्णय भी सामने आ जाते हैं जिनसे संवैधानिक जिम्मेदारियां निभाने की बजाय ‘सरकारी भक्ति’ ज्यादा नजर आती है। वैसे तो कई माननीय न्यायाधीशों की ओर से केंद्र सरकार की कार्यशैली के बारे में बेहद गंभीर किस्म की टिप्पणियां भी की जा चुकी हैं। समाचार पत्रों के अंदर विवेकशील व्यक्तियों तथा बुद्धिजीवियों की ओर से लोकतंत्र के हो रहे इस हनन के बारे में अनेकों ही लेख छप रहे हैं परन्तु अफसोस की बात है कि सत्ता के नशे में बैठे प्रशासक तथा जनता के भरोसे की सबसे बड़ी विश्वासपात्र अदालतें इन टिप्पणियों का संज्ञान तक नहीं लेतीं। 

इस तरह के दहशत भरे तथा तानाशाही वातावरण के भीतर ही सुप्रीमकोर्ट की ओर से 2002 के गुजरात दंगों तथा बाबरी मस्जिद विध्वंस से पहले की गैर-कानूनी कार्रवाइयों के बारे में चलते आ रहे सभी अदालती केसों को बंद किए जाने के निर्णयों को समझा जा सकता है। जिस तरह से 2002 के गुजरात दंगों की पीड़िता बिलकिस बानो के साथ घटना घटी है उसने सारी दुनिया में ही हाहाकार मचा दी है। ‘जगत गुरु’ बनने के दावे करने वाले लोगों के सिर शॄमदगी के साथ झुके हैं या नहीं, इस बारे तो कुछ नहीं कहा जा सकता परन्तु कातिलों-दुष्कर्मियों को ‘संस्कारी’ कह कर रिहा किए जाने के निर्णय को देखते हुए ‘इंसाफ की देवी’ निश्चित तौर पर फूट-फूट कर रोई होगी। 

‘गोदी मीडिया’ ऐसे चिंताजनक हालातों में भी अपना सारा जोर हिंदू-मुसलमानों के मध्य साम्प्रदायिकता की लकीरों को और गहरा करने में व्यस्त है। उसके लिए धर्मनिरपेक्षता तथा लोकतंत्र की परिभाषा ‘धार्मिक कट्टरता’ तथा ‘तानाशाही’ के रूप में बदल गई है। टी.वी. बहसों के अंदर जब बहुसंख्यक धर्म के प्रवक्ता धार्मिक अल्पसंख्यकों विशेषकर मुसलमानों को कोस रहे होते हैं तो ऐसी बहसों के दौरान कई बार विरोधियों का जवाब देने के समय मुस्लिम वक्ता भी धर्म निरपेक्षता का मुद्दा छोड़ संकीर्ण पहुंच अपना लेते हैं। 

लोगों की सारी ऊर्जा देश के लोकतांत्रिक तथा धर्मनिरपेक्ष ढांचे को तबाह होने से बचाने के ऊपर खर्च होनी चाहिए। यदि इस कार्य में ढील  बरती गई तो वह दिन दूर नहीं जब देश के अंदर लोकतांत्रिक मान्यताओं पर आधारित शासन की जगह दंगाइयों, शरारती लोगों तथा साम्प्रदायिकता का जहर घोलने वालों के बोलबाले वाला ढांचा कायम हो जाएगा। इस तरह का ढांचा समस्त लोगों की बर्बादी का सबब बन सकता है।-मंगत राम पासला


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Recommended News

Related News