स्कूल से होती है जिम्मेदार बनने की शुरूआत

punjabkesari.in Saturday, Apr 06, 2019 - 03:56 AM (IST)

अक्सर कहा जाता है कि जीवन में सफल होने के लिए सबसे पहले धैर्य की जरूरत होती है, इसके साथ जुड़ा है अनुशासन जो समय पर काम करने और निर्णय लेने के लिए जरूरी है। इन दोनों के होने से समझ में आता है कि एक टीम की तरह काम करना ही हमें हमारे लक्ष्य तक आसानी से पहुंचा सकता है। इसमें दूसरे की बात सुनना और समझना तथा अपनी ही जिद्द पर अड़े न रहकर तर्कसंगत ढंग से अपनी बात को प्रमाणित करने की कला भी आती है। 

इसके साथ ही और बहुत-सी अन्य बातें हैं जो हमें एक जिम्मेदार नागरिक की भूमिका निभाने के लिए तैयार करती हैं, जैसे परिवार और समाज में अपने से बड़े और अनुभवी लोगों का उचित सम्मान, व्यवहार में शालीनता और जो हमसे कम हैं, कमजोर हैं उनके प्रति सहानुभूति रखते हुए अपने व्यवहार से यह दर्शाना कि वे जीवन में अकेले नहीं हैं, हम भी उनके साथ हैं क्योंकि परिस्थिति चाहे जैसी भी हो, उद्देश्य यही है कि देश, समाज, परिवार और फिर स्वयं के प्रति पूरी निष्ठा और ईमानदारी के साथ जीवनयापन किया जाए। 

ये सब बातें कहने-सुनने में बहुत आसान लगती हैं लेकिन इनका पालन करना कठिन तो है ही, साथ में उनके अनुरूप अपने आचरण में बदलाव लाना भी किसी दुर्गम रास्ते से निकल कर आने से कम नहीं है। यह भी सत्य है कि इन रास्तों पर चलकर अपने लक्ष्य को पाना आसान हो जाता है और व्यक्ति जीवन में जो कुछ भी करना चाहे या पाना चाहे, उसमें सफल हो जाता है। 

बचपन से बनते हैं संस्कार
कहावत है कि पूत के पांव पालने में नजर आ जाते हैं। इसका मतलब यही है कि यदि बचपन से ही माता-पिता का व्यवहार अपनी संतान के प्रति इस तरह का हो कि वह सही और गलत के बीच का अंतर न केवल समझ सके बल्कि यह भी कि उसका स्वभाव अच्छाई को स्वीकारने और बुराई को नकारने का हो जाए। मिडल या आठवीं कक्षा तक जब विद्यार्थी 12 से 14 साल तक का होता है तो एक प्रकार से वह बचपन की परिधि से बाहर निकल कर टीनएजर बनने की ओर बढ़ता है। वह अपने अंदर हो रहे शारीरिक और मानसिक परिवर्तन को महसूस करने लगता है। इस बदलाव को यदि सही दिशा मिल जाए तो उसके सकारात्मक परिणाम निकलते हैं और यदि एक भी गलत रास्ता चुन लिया तो उसके परिणाम नकारात्मक ही नहीं, घातक भी हो सकते हैं। 

यह वह आयु होती है जिसमें विद्यार्थी अपने माता-पिता या अभिभावक से अधिक अपने अध्यापकों की बात को सही समझने के साथ-साथ उसे पत्थर की लकीर यानी जीवन के मार्गदर्शक सिद्धांत भी मानने लगता है। जहां तक एकैडमिक यानी कोर्स की पढ़ाई का संबंध है अध्यापक से अपेक्षा की जाती है कि वह अपने विद्यार्थियों को इतना तो शिक्षित करेंगे ही कि वे पास हो जाएं। परंतु इसके साथ उन पर यह जिम्मेदारी भी आ जाती है कि वे उनके चरित्र का निर्माण करने में भी सहायक हों। मतलब यह कि विद्यार्थियों को जीवन में एक जिम्मेदार नागरिक बनने की शिक्षा भी मिले। 

नैतिक मूल्य और चरित्र निर्माण 
विद्यार्थी जीवन से ही अच्छा नागरिक बनने की नींव डालने की समस्या सभी विकासशील और विकसित देशों के सामने आती रही है। सभी ने इसका अपने-अपने ढंग से सामना भी किया। भारत में भी इस दिशा में अनेक प्रयास हुए हैं। जैसे कि केरल में स्टूडैंट पुलिस कैडेट की योजना के अंतर्गत नौवीं-दसवीं के विद्याॢथयों को यह सिखाया जाता है कि देश की सेवा के लिए क्या तैयारी की जाए। इसके लिए वहां कुछ स्कूल चुने गए जहां यह योजना बहुत सफल रही। 

भारत सरकार के गृह मंत्रालय के अधीन पुलिस विभाग ने भी जुलाई 2018 में विद्याॢथयों के उस वर्ग, जो स्कूल में नौवीं और दसवीं कक्षा में पढ़ता है, के लिए स्टूडैंट पुलिस कैडेट की शुरूआत की। इसमें केन्द्र शासित प्रदेशों और सभी राज्यों के स्कूलों को शामिल करने की महत्वाकांक्षी योजना है। इसमें पुलिस की कार्यप्रणाली से परिचय और उन नैतिक मूल्यों के बारे में बताया जाता है जो जीवन को सही दिशा दे सकें और देश के लिए जिम्मेदार नागरिक तैयार कर सकें। 

एक उदाहरण से बात स्पष्ट हो जाएगी। 15-16 साल की उम्र में जब घर में कार, स्कूटर या मोटरसाइकिल होती है तो अक्सर उसका मन उन्हें चलाने का होता है। माता-पिता भी लाड-प्यार या उसकी इच्छा पूरी करने के लिए उसे थोड़ा-बहुत वाहन चलाना सिखा देते हैं। जरा सोचिए कि जब वह गाड़ी लेकर सड़क पर निकलेगा तो दुर्घटना से लेकर मृत्यु तक होने की कितनी अधिक संभावना है। इसके साथ ही ड्राइविंग लाइसैंस न होने से वह क्राइम भी कर रहा है और इसे क्रिमिनल बनने की दिशा में पहले कदम के रूप में रखा जा सकता है। 

अब इसे पलटते हैं। स्कूल में उसे बताया जाता है कि ट्रैफिक नियम क्या हैं और उनका पालन क्यों जरूरी है। घर आने पर वह यदि अपने माता-पिता को ट्रैफिक नियमों की अवहेलना करते हुए देखेगा तो एक बार तो वह उन्हें अवश्य टोकेगा। स्वयं गाड़ी चलाना तो दूर, वह उन्हें भी हैल्मेट और सीट बैल्ट लगाने और ट्रैफिक नियमों का पालन करने पर जोर डालेगा। इसी तरह यदि इस उम्र में उसे धैर्य से काम लेना सिखा दिया जाए तो वह अपनी पढ़ाई-लिखाई से लेकर खेलकूद और करियर तक में कभी जल्दबाजी नहीं करेगा, निराश नहीं होगा तथा अपने लक्ष्य की ओर मजबूत कदमों से आगे बढ़ेगा। हम चाहे जितना कह लें कि आज की पीढ़ी अनुशासनहीन होती जा रही है, बड़ों का आदर-सम्मान नहीं करती, अपनी मनमानी करती है और ऐसी ही नकारात्मक बातें लेकिन सच यह है कि उसका व्यवहार ऐसा इसलिए है क्योंकि स्कूल या परिवार में इन बातों को ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता। 

आज युवाओं में जो असंतोष नजर आता है, जीवन के प्रति निराशा और हताशा दिखाई देती है, उनके अंदर तनाव, अकेलेपन और हीन भावना से लेकर आत्महत्या तक करने की प्रवृत्ति दिखाई देती है तो इसके मूल कारण में यही है कि उन्हें जीवन में इस तरह के हालात का मुकाबला करने के बारे में पर्याप्त जानकारी के साथ-साथ किसी तरह का प्रशिक्षण नहीं मिलता है। 

नैतिक शिक्षा का प्रभाव
एक उदाहरण है। स्कूल में विद्यार्थियों को बताया जाता है कि सफलता के लिए ईमानदारी बहुत जरूरी है। अब जब वह घर आता है और देखता है कि परिवार में प्रैक्टीकल बनने की दुहाई देकर बेईमानी या गलत ढंग से धन कमाने को बुरा नहीं समझा जाता तो एक बार तो उस विद्यार्थी का माथा अवश्य ठनकेगा कि इसका उस बात से कोई मेल ही नहीं है जो कि स्कूल में बताया गया है। इसी तरह जो सामाजिक बुराइयां हैंं जैसे दहेज, बाल विवाह, बुजुर्गों के साथ अनुचित व्यवहार आदि के बारे में उसे रचनात्मक ढंग से स्कूल में ही पता चल जाए तो वह अवश्य ही बड़े होकर जब जीवन यात्रा शुरू करेगा तो एक बार अवश्य ही उस पर विचार करेगा। 

इसे चरित्र निर्माण का उपदेश या नैतिक मूल्यों की शिक्षा देने तक ही सीमित रखना एक जिम्मेदार नागरिक बनने के लिए काफी नहीं है। विद्यार्थी को यह भी लगना चाहिए कि ये ऐसे गुण हैं जिनके बल पर वह अपनी मंजिल तक बहुत आसानी से पहुंच सकता है। उसे यह भी एहसास होना चाहिए कि नैतिक मूल्यों की उपेक्षा और एक श्रेष्ठ नागरिक बनने के बारे में की जाने वाली चेष्टा को नकारने से सफलता की उम्मीद करना शेखचिल्ली की तरह सपने देखने के बराबर है। यहां एक बात और है, वह यह कि जिस तरह खेलकूद में कोच की जरूरत होती है जो कोई अध्यापक नहीं होता, उसी तरह विद्यार्थियों को जिम्मेदार नागरिक बनाने के लिए सामान्य अध्यापक के स्थान पर अलग से ट्रेनर होने जरूरी हैं। ऐसा होने पर ही अपेक्षित परिणाम निकल सकते हैं। 

आमतौर से सामान्य विषय पढ़ाने वाले अध्यापक को ही यह जिम्मेदारी दे दी जाती है कि वह नैतिक मूल्यों की शिक्षा और अच्छा नागरिक बनने की कला भी विद्यार्थियों को सिखाए। यह परिपाटी न केवल गलत है बल्कि अध्यापक को भ्रमित भी करती है कि वह उन विषयों को अच्छी तरह पढ़ाए जिसके लिए उसकी नियुक्ति की गई है या फिर नैतिक शिक्षा भी दे जो उसके कार्यक्षेत्र में नहीं आती। इसके लिए ऐसे व्यक्तियों की नियुक्ति जरूरी है जो बाल मनोविज्ञान को समझते हों।-पूरन चंद सरीन


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