रानी दुर्गावती : चन्देल वंश की महानतम् वीरांगना

punjabkesari.in Monday, Oct 07, 2024 - 06:35 AM (IST)

वर्तमान के मध्य प्रदेश एवं कुछ भाग उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड में 9वीं से 15वीं शताब्दी तक चंदेल राजवंश का शासन रहा। इतिहासकार आर$ सी. मजूमदार (1977) द्वारा लिखित एंशिएंट इंडिया नामक पुस्तक के अनुसार 831 ई$ से लेकर 1315 ई$ तक खजुराहो, काङ्क्षलजर एवं महोबा से इन राजाओं ने मध्यकालीन युग में बुंदेलखंड नामक भौगोलिक क्षेत्र एवं कुछ आसपास के क्षेत्रों पर शासन किया। हिमाचल प्रदेश में 697 से 1849 ई$ में एक राज्य के रूप में तथा 1849 से 1948 तक एक रियासत के रूप में कहलूर रियासत में चंद्रवशी चंदेल राजपूत वंश का शासन रहा।

यद्यपि राजा बीर चन्द 697-738 ई$ तक इस राज्य के संस्थापक रहे लेकिन इसका नाम राजा कहल चन्द, जिनका शासन 890-930 ई. के आसपास रहा के नाम पर रखा गया। लगभग 1400 से अधिक वर्ष के चंदेल वंश के इतिहास ने इस देश को नारी शक्ति की विरासत के रूप में आज तक की सर्वश्रेष्ठ वीरांगनाओं में से एक रानी दुर्गावती भी दी है। रानी दुर्गावती मात्र रानी ही नहीं लेकिन अतीत का गौरव और वर्तमान समय की पीढिय़ों की आदर्श हैं। 5 अक्तूबर को रानी दुर्गावती का 500वां जन्म दिन मनाया गया। 

इस महारानी का प्रेरक स्मरण 500 वर्षों के बाद भी मन को गौरवान्वित एवं शरीर को प्रफुल्लित करता है। रानी दुर्गावती का नाम भारत की महानतम् वीरांगनाओं की सबसे अग्रिम पंक्ति में आता है जिन्होंने मातृभूमि और अपने आत्म सम्मान की रक्षा हेतु अपने प्राणों का बलिदान कर दिया। 5 अक्तूबर 1524 को दुर्गाष्टमी के दिन नवरात्रि का उत्सव चल रहा था। कालिंजर के राजा कीरत सिंह चंदेल के घर एक पुत्री का जन्म हुआ इसलिए नामकरण किया दुर्गावती। रानी का जन्म काङ्क्षलजर उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में बांदा जिले में स्थित पौराणिक संदर्भ वाले एक ऐतिहासिक दुर्ग में हुआ। यह विश्व धरोहर स्थल प्राचीन नगरी खजुराहो के निकट ही स्थित है। 

कालिंजर दुर्ग भारत के सबसे विशाल और अपराजेय किलों में एक माना जाता है। जब चंदेल शासक आए तो इस पर महमूद गजनवी, कुतुबुद्दीन एेबक और हुमायूं ने आक्रमण कर इसे जीतना चाहा, लेकिन कामयाब नहीं हो पाए। अंत में 1569 में अकबर ने यह किला जीतकर बीरबल को उपहार में दिया। बाल्यकाल में ही राजा कीरत सिंह ने राजकुमारी दुर्गा को शस्त्र चलाना सिखाया और अपने कौशल के कारण कुछ दिनों में ही दुर्गावती शस्त्र चलाने में प्रवीण हो गई। इसकी कीर्ति आसपास के क्षेत्रों में फैल गई। इस तरह चंदेल राजवंश की राजकुमारी जो कि बचपन से ही अत्यंत कुशाग्र, शौर्यवान, धर्मनिष्ठ, राष्ट्रभक्त और निर्णय लेने में दक्ष थी, ने एक जनजाति समूह के बलिष्ठ युवा राजकुमार दलपत शाह से अपना विवाह करना स्वीकार किया।

रानी दुर्गावती एवं दलपत शाह के प्रेम और परिणय की कथाएं आज भी उस क्षेत्र में प्रचलित हैं। कुछ वर्षों बाद 1545 ई$ में इनको एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई जिसका नाम वीर नारायण सिंह रखा गया। दुर्भाग्य से रानी दुर्गावती एवं राजा दलपत शाह का दांपत्य जीवन मात्र 5 वर्ष का ही रहा। पति के पीछे सती जाने हो जाने के बदले रानी ने विधवा रहते हुए भविष्य को संवारने का काम किया। पति की अकस्मात् मृत्यु के बाद अपने पुत्र का राज्याभिषेक करके रानी ने स्वयं गढ़मंडला के शासन की कमान सम्भाली।

रानी दुर्गावती के गोंडवाना साम्राज्य की संपन्नता और समृद्धि की चर्चा कड़ा और मानिकपुर के सूबेदार आसफ खान द्वारा मुगल दरबार में की गई।  अकबर ने लूट और विधवा रानी को कमजोर समझते हुए तथा बलपूर्वक गोंडवाना साम्राज्य हथियाने के उद्देश्य से रानी को आत्म समर्पण के लिए धमकाया। उसने महारानी को यह संदेश भिजवाया ‘अपनी सीमा राज की, अमल करो फरमान। भेजो नाग सुपेत सोई, अरू अधार दीवान।’ परन्तु स्वाभिमानी तथा स्वतंत्र प्रिय रानी नहीं मानी।

वीरांगना दुर्गावती ने कुल 16 बड़े युद्ध लड़े तथा 16 युद्धों में से 15 में विजयी रही जिसमें 12 युद्ध मुस्लिम आक्रान्ताओं से लड़े। रानी दुर्गावती  युद्ध के 9 पारम्परिक युद्धव्यूहों क्रमश: वज्र व्यूह, क्रौंच व्यूह, अद्र्धचन्द्र व्यूह, मंडल व्यूह, चक्रशक्ट व्यूह, मगर व्यूह, औरमी व्यूह, गरूढ़ व्यूह और श्रीन्गातका व्यूह से भली भांति परिचित तथा क्रौंच व्यूह एवं अद्र्धचन्द्र व्यूह में सिद्धहस्त थी। रानी दुर्गावती दोनों हाथों से तीर और तलवार चलाने में निपुण तथा दांतों से घोड़े की लगाम थामती थी।

जल प्रबंधन और पर्यावरण की दृष्टि से वीरांगना रानी दुर्गावती की योजनाएं आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी उस काल में थीं। अपने साम्राज्य में 1000 तालाब और 500 बावडिय़ों का निर्माण तथा प्रबंधन किया। सन् 1564 ई$ में अकबर की सेना में उच्च पदस्थ अधिकारी आसफ खान ने बुंदेलखंड पर आक्रमण किया। युद्ध का दूसरा दिन रानी के जीवन का अंतिम दिन का युद्ध बना। इस बलिदानी बेला पर रानी ने हाथी पर बैठकर युद्ध का नेतृत्व करना शुरू किया। रानी के 20 वर्षीय वीर पुत्र वीर नारायण सिंह ने 3 बार मुगल सेना को खदेड़ दिया लेकिन तीसरी बार वो इतने घायल हो गए कि रानी को विवश होकर उन्हें सुरक्षित स्थान पर भेजना पड़ा। 

युद्ध के तीसरे पहर में किसी तीरंदाज का एक तीर रानी की कनपटी पर लगा जिसे उन्होंने खींच कर निकाल फैंका। फिर एक तीर गर्दन में लगा रानी ने उसे भी खींच कर निकाल फैंका। किन्तु उसका फल गर्दन में ही लगा रह गया और तीरों के घावों से तीव्र रूधिर धारा बहने लगी। अत्यधिक रक्त स्त्राव से रानी बेहोश हो गई। जब होश आया, तो समझ में आया कि जीवित सती की देह हैवानियत से चूर यवनों के हाथ पडऩा अवश्यम्भावी है। 

अत: रानी ने क्षणों में निर्णय लेकर महावत से उसका खंजर लेकर स्वयं का सिर काट लिया। इस तरह 24 जून 1564 को मात्र 39 वर्ष की अल्पायु में यह वीरांगना हमेशा-हमेशा के लिए शहीद होकर देश की वर्तमान पीढ़ी के लिए एक महान् आदर्श स्थापित कर गई। -डा. राजेश्वर चंदेल (लेखक कुलपति डा.वाई.एस. परमार औद्यानिकी विश्वविद्यालय नौणी, सोलन हैं।)


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