राम मंदिर निर्माण ‘एक लम्बे संघर्ष’ का उत्सव और एक नई यात्रा

punjabkesari.in Thursday, Sep 03, 2020 - 04:50 AM (IST)

हमारी आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक जड़ों के साथ एक गहरा संबंध स्थापित करना हमारे व्यापार प्रभुत्व और सांस्कृतिक प्रतिभा को पुन: प्राप्त करने का सुनिश्चित मार्ग है। 5 अगस्त 2020 को अयोध्या में राम मंदिर की आधारशिला रखी गई।  भारतवासियों, भारतीय मूल के लोगों और दुनिया भर के समस्त भारत प्रेमियों ने इस चकाचौंध करने वाली घटना को सामग्री की भावना से देखा। पुरुषों और महिलाओं के लिए यह एक सपना सच हो गया। उपलब्धि की भावना स्पष्ट थी क्योंकि यह घटना सदियों से चली आ रही लड़ाई का परिणाम थी। संतुष्टि और खुशी के आंसुओं की चमक असंख्य चेहरों पर देखने को मिली।  कई लोगों के लिए तो यह दिन सिद्धि का था लेकिन वास्तव में यह एक नए अध्याय की शुरूआत है। 

कई लोगों के लिए मंदिर निर्माण एकमात्र उद्घाटन रहा होगा। हालांकि परम्परा और दर्शन का भारतीय दृष्टिकोण समग्र और अभिन्न है। भारत ने कभी भी सामाजिक जीवन में धर्म को अलग नहीं किया बल्कि उसे पूरक खोज माना। भारतीय दृष्टिकोण ने यह सुनिश्चित किया है कि प्रत्येक आत्मा संभावित रूप से दिव्य है। इस दृष्टि से यह इस दिव्यता को प्रकट करने का लक्ष्य निर्धारित करता है, जिससे मोक्ष की प्राप्ति होती है। प्रकृति, आंतरिक और बाह्य सभी को नियंत्रित करके इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जा सकता है। हम भारतीय स्वीकार करते और मानते हैं कि व्यक्ति की क्षमता और गुणवत्ता के अनुसार इसे पूरा करने के विभिन्न तरीके और साधन हो सकते हैं और इन सभी धर्मों को प्रकट करने के कई तरीकों के समान है। हम इस परम्परा के चमकते हुए उदाहरण हैं क्योंकि भारत माता को विभिन्न धार्मिक विरासतों के बारे में बताया जाता है जो यहां चमकती और खिलती रहती है। 

उबंटू एक जुलू अफ्रीकी अवधारणा का अनुवाद है ‘मैं हूं क्योंकि हम हैं’। यह वाक्यांश भारत में धर्म की अवधारणा का आधार भी है। मुझे, मेरे परिवार, गांव, राज्य, देश, मानवता और सभी जीवित प्राणियों, प्रकृति के हिस्से बड़े आकार के हैं और इस तरह अभिन्न हैं। ये हिस्से संघर्ष में नहीं लेकिन उनके बीच सामंजस्य है। यह प्रतिस्पर्धा में नहीं बल्कि एक-दूसरे के पूरक हैं। मानवीय जीवन इन सभी ताकतों की एक संचयी एकजुटता है। हम वहीं हैं जो हम हैं। मानवीय जीवन की रचना करने वाली असंख्य इकाइयों के बीच संतुलन बनाना धर्म है और इस संतुलन के लिए प्रयास करना धर्म की स्थापना करना है। 

प्रत्येक दिन लाखों आर.एस.एस. स्वयं सेवकों के दिलों से उगने वाली संघ प्रार्थना, किसी की आत्मा और आध्यात्मिक आत्म को बढ़ाने के बीच संतुलन पर ध्यान है। जीवन का समग्र भारतीय दृष्टिकोण भौतिक और आध्यात्मिक एक ही क्रम पर आगे बढ़ता है। सबसे लम्बे समय तक सम्पन्नता भारतीय सभ्यता की पहचान थी। इसकी सामग्री और आध्यात्मिक गौरव की विद्या से प्रभावित होकर व्यापार और ज्ञान के चाहने वालों को दूर देशों से भारत की खोज में लगाया गया है। अपने धन और समृद्धि के बावजूद भारत ने उन पर युद्ध छेड़ कर अन्य मानव बस्तियों और देशों को धमकाया नहीं।

लम्बे व्यापार मार्गों का पता लगाने के बाद, दूर-दूर की भूमि के विभिन्न लोगों के साथ व्यापार में संलग्र होकर, हमने कभी उपनिवेश नहीं बनाए। न तो हमारे व्यवहार का कोई महत्व था और न ही हमने उनके धन को लूटा। हमने कभी भी उन्हें बदलने या फिर उन्हें गुलामी के चक्र में धकेलने का प्रयास नहीं किया। इसके बजाय भारतीय लोग उन स्थानों पर आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक उन्नयन के एजैंट थे जहां वे गए थे। आज भी उस शानदार विनिमय के अवशेष भाषा, कला और साहित्य में पाए जाते हैं। 

कई दक्षिण एशियाई देशों में मंदिर और सांस्कृतिक प्रथाएं देखने को मिलती हैं। ये सभी वस्तु विनियम, जो उन मूल निवासियों को सक्षम और समृद्ध करता है और दोनों छोरों पर समृद्धि लाता है, भारतीय शास्त्रों में महालक्ष्मी के रूप में प्रतिष्ठित है। हम धन के वशीभूत नहीं हैं। हम ‘धनलक्ष्मी’ और ‘महालक्ष्मी’ की पूजा करते हैं। इसलिए यह निष्कर्ष निकालना उचित है कि भौतिक धन और मानव जीवन की गरिमा के लिए हमारी खोज का मुख्य कारण धर्म की हमारी अवधारणा है। 1951 में सोमनाथ मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा पूजा करते हुए, स्वतंत्र भारत के पहले राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद ने इस ङ्क्षबदू को स्पष्ट रूप से चित्रित किया। उनके भाषण का एक अंश ज्ञानवद्र्धक है। 

उन्होंने कहा, ‘‘इस पवित्र दिन हमें इस सोमनाथ मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा से सीखना चाहिए और हम सभी को विश्व में समृद्धि के संदर्भ में भारत के प्रभुत्व की पुन: स्थापना के लिए व्रत करना चाहिए। हमारा देश प्राचीनकाल में औद्योगिक अग्रणी था। जो उत्पाद यहां बनाए गए थे, वह दुनिया भर में निर्यात किए गए थे। हमारा निर्यात आयात से अधिक था और इस तरह भारत का धन देश का बन गया। विकसित राष्ट्रों के खजाने में जो सोना और चांदी जमा है उसे कभी भारत के मंदिरों में संग्रहित किया गया था जिसका एक उदाहरण सोमनाथ मंदिर है। मुझे लगता है यह प्राण-प्रतिष्ठा उस दिन पूरी हो जाएगी जब हम उस प्रभुत्व को पुन: प्राप्त कर लेंगे और सोमनाथ मंदिर के साथ न्याय करेंगे।’’ 

राम मंदिर भूमि पूजन में अपने संबोधन में आर.एस.एस. सरसंघचालक श्री मोहन जी भागवत ने तीन शब्दों का उल्लेख किया : आत्मनिर्भरता/आत्मनिर्भर, आत्मविश्वास और आत्मबोधन (आत्म जागरूकता) आत्मनिर्भरता को हमारे ज्ञान (भारतीय ज्ञान-विद्या और अविद्या दोनों) और अर्थव्यवस्था के लिए संदर्भित किया गया था। राम मंदिर निर्माण एक लम्बे संघर्ष का उत्सव और एक नई यात्रा की शुरूआत है।-मनमोहन वैद्य(आर.एस.एस. के सह सरकार्यवाह)


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