राज्य सभा चुनाव : ‘बाहरी’ लोगों को टिकट क्यों

punjabkesari.in Wednesday, Jun 01, 2022 - 05:03 AM (IST)

दिल्ली की राजनीतिक गर्मी में देश के 15 राज्यों में राज्यसभा की 57 हॉट सीटों के लिए चुनाव होने जा रहे हैं। इन चुनावों में विजयी उम्मीदवारों को जीवन पर्यन्त वी.वी.आई.पी. का दर्जा और बुलेट प्रूफ जैकेट मिलेंगी और इससे भी गरमागरम खबर यह है कि इन चुनावों में बाहरी लोगों को सर्वाधिक टिकट दिए गए हैं, जिससे लगता है कि राजनीति सार्वजनिक मामलों को निजी लाभ के लिए संचालित करने का व्यवसाय बन गई है। राज्यसभा का स्वरूप और उसकी गुणवत्ता में तेजी से गिरावट आई है। नेता के प्रति व्यक्तिगत निष्ठा या यूं कहें चमचागिरी, पैसा और राजनीतिक संबंधों को क्षमता और अनुभव से अधिक महत्व दिया जाता है। 

केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण आंध्र प्रदेश से हैं, किंतु उन्होंने कनार्टक से अपना नामांकन पत्र भरा है। यही स्थिति आंध्र प्रदेश के जयराम रमेश की भी है। कांग्रेस के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पंजाब से हैं किंतु राज्यसभा के लिए वे असम से निर्वाचित हुए हैं। दिल्ली के अजय माकन हरियाणा से और हरियाणवी सुरजेवाला राजस्थान से, महाराष्ट्रीयन मुकुल वासनिक भी राजस्थान से उम्मीदवार हैं। समाजवादी की जया बच्चन मुंबई में रहती हैं किंतु वे उत्तर प्रदेश से निर्वाचित हुई हैं और यही स्थिति कांग्रेस के पूर्व मंत्री दिल्ली के कपिल सिब्बल की भी है। 

प्रश्न उठता है कि क्या इन सांसदों ने कभी उस राज्य के बारे में बोला है जिसका वे प्रतिनिधित्व करते हैं, जिस कारण यह सदन अपनी उस विशिष्ट भूमिका को निभाने में विफल रहा है, जिसके अंतर्गत उन्हें राज्यों की चिंताओं को उठाना था और इस प्रकार यह राजनीतिक सदन लोकसभा के समानांतर कार्य कर रहा है और अब इसमें भी गंभीर चर्चा का स्थान शोर-शराबे ने ले लिया है। बाहरी लोगों के कारण इस सदन का उतना प्रतिफल नहीं मिल रहा और इस तरह केन्द्र और राज्यों के बीच आदर्श संतुलन भी गड़बड़ा रहा है और देश का संघीय ढांचा ध्वस्त हो रहा है। राज्यों की आवाज बाहरी सत्ता के दलालों के शोर-शराबे में खो रही है। आज राजनीतिक छवि को डिटर्जैंट की तरह ब्रांड किया जा रहा है। बाहरी लोगों ने उच्च सदन को देश की समस्याओं के निराकरण के बजाय अपने लाभ का साधन बना दिया है। 

उत्तर-पूर्व के एक नेता के शब्दों में, ‘‘यदि बाहरी लोगों को राज्यसभा का टिकट दिया जाएगा तो हमारे लोगों के अपने राज्यों से वरिष्ठ राजनेताओं को भी राज्यसभा में भेजने के सीमित अवसर भी खो जाएंगे। क्या दिल्ली में हमारी संवेदनशीलता का ध्यान रखा जाता है?’’ इससे एक मूल प्रश्न उठता है: क्या बाहरी नेता राज्यों की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं? बिल्कुल नहीं। उनमें से अनेक नेता उस राज्य की भाषा भी नहीं जानते, जहां से वे राज्यसभा के लिए चुनकर आए हैं और वहां के लोकाचार और संस्कृति से भी परिचित नहीं। कर्नाटक और तमिलनाडु को लें। दोनों राज्यों के बीच कावेरी नदी के जल के बंटवारे को लेकर विवाद चल रहा है। क्या कोई व्यक्ति, जो कर्नाटक का निवासी है वह तमिलनाडु के हितों का बेहतर ढंग से प्रतिनिधित्व करेगा? यदि राज्यसभा के लिए निवास की बाध्यता नहीं होती तो 12 नामांकित सदस्यों के अलावा बाकी सभी 250 सदस्य एक ही राज्य से या संभवत: एक ही शहर से होते। 

संविधान निर्माता चाहते थे कि राज्यसभा में लोकसभा की तुलना में अधिक अनुभवी और प्रख्यात व्यक्ति आएं, जो चुनाव लड़ना नहीं, किंतु अपने ज्ञान के कारण वाद-विवाद में भाग लेना चाहते हों। वर्ष 2003 में संसद ने लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम में संशोधन किया और राज्यसभा के लिए निर्वाचित होने हेतु मूल निवास की अपेक्षा को समाप्त किया और 2006 में उच्चतम न्यायालय ने इसकी संवैधानिक वैधता को यह कहते हुए उचित ठहराया कि संघवाद का सिद्धांत प्रादेशिक भू-भाग से संबंधित नहीं है। इस तरह सत्ता के दलालों और लोक सभा में चुनाव हारने वाले नेताओं के लिए राज्यसभा में पैसा और अन्य साधनों से सुरक्षित सीट मिलना आसान हो गया। 

वस्तुत: डा. अंबेडकर ने संविधान सभा में कहा था राज्यसभा राज्यों का प्रतिनिधित्व करती है। इसका मूल स्वरूप, जैसा कि सभी पक्षों द्वारा मूल रूप से स्वीकार किया गया था, उन इकाइयों के हितों और चिंताओं को संसदीय स्तर पर प्रभावी ढंग से व्यक्त करना है। इसीलिए राज्यसभा में केवल ऐसे व्यक्तियों को प्रतिनिधित्व करने की अनुमति दी गई जो उस राज्य के साधारणतया निवासी हों और वहां की मतदाता सूची में पंजीकृत हों।

नेहरू ने भी 1953 में लोकसभा में स्पष्ट किया था: राज्य सभा न तो उच्च सदन है और न ही वरिष्ठ लोगों का  सदन। यह राज्यों का सदन है और इसके विनिॢदष्ट कार्य हैं। इसके अलावा राज्यसभा को राज्यों के मामले में विशेष शक्तियां प्राप्त हैं। उदाहरण के लिए संविधान का अनुच्छेद 249 उसे राज्य सूची के मामलों में विधान बनाने की शक्ति देता है। इसके लिए उसे सदन में उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से एक संकल्प पारित करना होता है कि यह राष्ट्रीय हित में आवश्यक है। 

राष्ट्रीय संविधान समीक्षा आयोग 2006 की रिपोर्ट में भी सिफारिश की गई है कि राज्यसभा के बुनियादी संघीय स्वरूप को बनाए रखने के लिए इस सदन के लिए चुनाव लड़ने हेतु मूल निवास की अपेक्षा आवश्यक है। किंतु कुछ लोगों का कहना है कि मूल निवास का मानदंड महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि राज्यसभा में कोई भी प्रतिनिधित्व सदन की तुलनात्मक शक्ति को नहीं बढ़ाता। समय आ गया है कि हमारा शासक वर्ग बाहरी लोगों को नामांकित करने की संस्कृति से बचे। संसद की सदस्यता को शासित करने वाले नियमों में संशोधन किया जाना चाहिए। एक मत यह है कि राज्यसभा को अभी और भी अधिक उपयोगी भूमिका निभाने वाला सदन बनाया जा सकता है।

जयप्रकाश नारायण दलविहीन राज्यसभा के पक्ष में थे, जिसके अनुसार केवल वे लोग राज्यसभा के सदस्य बन सकते थे, जिन्होंने विधानसभा या लोकसभा में एक कार्यकाल पूरा किया हो और किसी भी व्यक्ति को 2 बार से अधिक राज्यसभा का सदस्य न बनाया जाए क्योंकि राज्यसभा का प्रतिनिधित्व सामूहिक कल्याण पर आधारित है। आज राज्यसभा के अनेक ऐसे सांसद हैं जो 4 से 6 बार तक सदस्य बन गए हैं और उन्होंने कभी भी राज्य विधानसभा या लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ा। इसके लिए हमें मूल निवास के मानदंड पर बल देना होगा जो प्रतिनिधित्व को प्रामाणिकता प्रदान करता है, जिसके द्वारा राज्यों के हितों की देखभाल होती है। यदि बाहरी और निष्ठावान नेताओं को राज्यसभा में नामांकित करने की परंपरा जारी रहे तो फिर राज्यसभा के भविष्य पर हमें आंसू ही बहाने पड़ेंगे।-पूनम आई. कौशिश


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