नेता प्रतिपक्ष की परीक्षा में अब राहुल गांधी
punjabkesari.in Tuesday, Jul 02, 2024 - 05:25 AM (IST)
नेता प्रतिपक्ष बन कर राहुल गांधी ने अपने राजनीतिक सफर के एक नए चरण की ओर कदम बढ़ा दिए हैं, जो शायद उनके और कांग्रेस के लिए निर्णायक साबित होगा। नेहरू परिवार का राजनीतिक वारिस बन कर लोकसभा सांसद और फिर कांग्रेस अध्यक्ष बनना उनके राजनीतिक सफर का पहला चरण था।
भारत जोड़ो यात्राओं के जरिए देश भर में संपर्क और संवाद से कार्यकत्र्ताओं में नई ऊर्जा फूंक कर पार्टी समेत विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ के 2024 के लोकसभा चुनाव में बेहतर प्रदर्शन में योगदान दूसरा चरण रहा। तमाम कोशिशों के बावजूद फिर से कांग्रेस अध्यक्ष बनने के लिए राजी न होने वाले राहुल गांधी ने नेता प्रतिपक्ष बन कर एक बेहद चुनौतीपूर्ण भूमिका अपने लिए स्वीकार कर ली है। इन चुनावों में कांग्रेस 52 से बढ़कर 99 लोकसभा सीटों तक पहुंच गई तो ‘इंडिया’ गठबंधन 234 तक। पिछले दो लोकसभा चुनावों के मुकाबले इस बार विपक्ष का चुनावी प्रदर्शन बेहद प्रभावशाली रहा। इसीलिए पिछली दो लोकसभाओं में अकेले दम पर बहुमत हासिल कर लेने वाली भाजपा की इस बार बहुमत के आंकड़े से भी 32 सीटें कम रह गईं और नरेंद्र मोदी सरकार के अनेक मंत्री भी चुनाव हार गए। बेशक भाजपा की अगुवाई वाले राजग को बहुमत मिल गया और मोदी तीसरी बार प्रधानमंत्री बन गए।
नई सरकार भाजपा की नहीं, राजग की है, लेकिन मंत्रिमंडल गठन से लेकर लोकसभा स्पीकर चुनाव तक हर कदम से मोदी ने संदेश यही दिया है कि वह अब भी पहले जितने ही मजबूत हैं। डिप्टी स्पीकर पद के लिए भी वह विपक्ष के दबाव में आते नहीं दिखते। शायद यह नरेंद्र मोदी की राजनीतिक शैली भी है कि वह कमजोर दिखते हुए कोई काम नहीं करते, लेकिन उससे यह हकीकत नहीं बदल जाती कि इस बार मजबूत विपक्ष को नजरअंदाज कर पाना आसान होगा। नवनिर्वाचित लोकसभा के पहले सत्र के दौरान यह अहसास कराने का कोई मौका विपक्ष चूक भी नहीं रहा।
दोनों के बीच जैसे रिश्ते रहे हैं, राहुल गांधी का नेता प्रतिपक्ष बनना भी मोदी के लिए सुखद नहीं कहा जा सकता। एक टी.वी. इंटरव्यू में ‘कौन राहुल’ कह कर कटाक्ष करने वाले मोदी को उन्हीं राहुल से हाथ मिलाना पड़ा, जब नवनिर्वाचित स्पीकर ओम बिड़ला को वह उनके आसन तक ले जा रहे थे। अब तो ऐसे मौके बार-बार आएंगे, जब प्रधानमंत्री को नेता प्रतिपक्ष से मिलना पड़ेगा और उनकी बात भी सुननी पड़ेगी। संसदीय लोकतंत्र का यही तकाजा है और उसकी ताकत भी। 2004 में पहली बार लोकसभा सांसद बने राहुल 20 साल बाद 2024 में पहली बार कोई संवैधानिक पद स्वीकारने को तैयार हुए। 2004 से 2014 के बीच उन्हें मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यू.पी.ए. सरकार में मंत्री बनाने की कोशिश की गई, पर वह नहीं माने। नेता प्रतिपक्ष बनना राहुल गांधी की विपक्ष में बढ़ती स्वीकार्यता का प्रमाण भी है।
कांग्रेस में जी-23 जैसे गुट जिनके नेतृत्व पर सवाल उठाते थे, उन्हें ‘इंडिया’ गठबंधन के सभी घटक दलों ने नेता प्रतिपक्ष के लिए चुना। पर नेता प्रतिपक्ष बन जाने से राहुल गांधी के एक नए, मगर बेहद चुनौतीपूर्ण राजनीतिक सफर की शुरूआत होगी, जिसे उनकी ‘अग्नि परीक्षा’ भी कह सकते हैं। लोग मानते हैं कि भारत जोड़ो यात्राओं से राहुल गांधी की समझ और छवि, दोनों सुधरी हैं, लेकिन नेता प्रतिपक्ष के रूप में उन्हें बेहद जिम्मेदार और जवाबदेह राजनेता की कसौटी पर खरा उतरना होगा। अपनी यात्राओं से ले कर 18वीं लोकसभा में शपथ ग्रहण के समय भी जींस और टी-शर्ट में नजर आने वाले राहुल नेता प्रतिपक्ष बनते ही कुर्ता-पायजामा में दिखे, लेकिन सिर्फ परिधान बदलने से बात नहीं बनेगी।
बेशक नेता प्रतिपक्ष के रूप में उनसे सरकार की गलतियों की आलोचना अपेक्षित है, लेकिन भाषा-शैली में शालीनता की दरकार होगी, जो हाल के सालों में हमारी राजनीति से तेजी से नदारद होती गई है। राजनीतिक मतभेदों के बावजूद परस्पर सम्मान और मर्यादा पालन दोनों ही पक्षों से अपेक्षित रहेगा। राहुल की बात करें तो अब उनकी टिप्पणी को विपक्षी दल के सांसद नहीं, बल्कि नेता प्रतिपक्ष की राय माना जाएगा, जिसका संसदीय प्रोटोकॉल में महत्वपूर्ण स्थान है। ब्रिटेन समेत कुछ देशों में नेता प्रतिपक्ष को ‘शैडो पी.एम.’ की तरह देखा जाता है और उससे अपेक्षा की जाती है कि वह अपनी ‘शैडो कैबिनेट’ भी बनाए, जो तमाम विभागों के कामकाज पर नजर रखते हुए अपनी वैकल्पिक सोच जनता के समक्ष पेश करे। राहुल गांधी वैसी सकारात्मक और रचनात्मक राजनीति की पहल करेंगे या नहीं यह तो समय ही बताएगा, लेकिन अब उन्हें संसद में अपनी ज्यादा उपस्थिति सुनिश्चित करनी होगी। हर महत्वपूर्ण मुद्दे पर अपनी तार्किक राय भी रखनी होगी।
राष्ट्रीय महत्व के संवेदनशील विषयों पर सरकार के साथ भी खड़ा होना होगा। निश्चय ही अभी तक की छवि और अनुभव के मद्देनजर राहुल गांधी के लिए यह नई संसदीय भूमिका बेहद चुनौतीपूर्ण साबित होने वाली है। इसके साथ ही उन्हें कांग्रेस को मजबूत बनाने और अन्य विपक्षी दलों से बेहतर तालमेल की चुनौती से भी रू-ब-रू होना होगा। स्पीकर चुनाव के लिए कांग्रेस के दलित सांसद के. सुरेश को ‘इंडिया’ का उम्मीदवार घोषित करते समय तृणमूल कांग्रेस से सलाह न करने जैसी घटनाएं आपसी तालमेल पर सवाल उठाती हैं। सपा और कांग्रेस गठबंधन के बाद उत्तर प्रदेश में भाजपा को बड़ा झटका देते हुए विपक्ष उसे बहुमत से वंचित रखने में सफल रहा। राजस्थान में भी विपक्ष, भाजपा से 25 में से 11 लोकसभा सीटें छीनने में सफल रहा। पंजाब और हरियाणा में भी विपक्ष का प्रदर्शन संतोषजनक रहा, लेकिन शेष ङ्क्षहदी बैल्ट में भाजपा के मुकाबले वह कहीं नहीं ठहरता।
सबसे ज्यादा लोकसभा सांसद चुनने वाली हिंदी बैल्ट में कांग्रेस और सहयोगी दलों के मजबूत हुए बिना केंद्रीय सत्ता से भाजपा की विदाई की बात सोचना भी दिन में सपने देखने जैसा है। मुश्किल यह है कि उत्तर भारत में मजबूती की कवायद में कांग्रेस और मित्र दलों में आपस में दलगत हितों के टकराव की भी आशंका है। लोकसभा चुनावों के बाद कांग्रेस और ‘आप’ में बढ़ती दूरियां भी इसी का संकेत हैं। इतने सारे मोर्चों पर सक्रिय रहते हुए राहुल गांधी को ‘इंडिया’ गठबंधन के विस्तार की संभावनाएं भी टटोलनी होंगी, क्योंकि इस अग्नि परीक्षा में उनका पास होना आगामी चुनावों में विपक्ष के प्रदर्शन पर भी निर्भर करेगा।-राज कुमार सिंह