माननीय न्यायाधीश से जनसेवक, संवैधानिक दृष्टि से उचित नहीं

punjabkesari.in Wednesday, Mar 13, 2024 - 05:23 AM (IST)

बढ़ते हुए राजनीतिक प्रदूषण में धुंआ और विषाक्त अपशिष्ट मिले हुए हैं और राजनीतिक चालबाजी के काम में एक अकल्पनीय कार्य किया गया, जिससे एक संवैधानिक निकाय न्यायपालिका की स्वतंत्रता और निष्पक्षता की उपेक्षा की गई। कभी किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी कि जो व्यक्ति संविधान को सर्वोपरि मानता है, न्यायिक निर्णय देता है, दोषियों के विरुद्ध अप्रिय आदेश देता है, वह एक दिन स्वयं राजनीतिक प्रलोभन के समक्ष झुक जाएगा।

अन्यथा पिछले सप्ताह कोलकाता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश अभिजीत गंगोपाध्याय द्वारा भाजपा में शामिल होकर उच्च न्यायिक पीठ से राजनीति के उबड़-खाबड़ रास्ते में प्रवेश करने को किस प्रकार व्यक्त करें। इस क्रम में उन्होंने न्यायपालिका को एक बड़ा झटका दिया है, न्यायालय में लोगों की आस्था पर प्रहार किया है और हमारी नैतिक चेतना को ठेस पहुंचाई है तथा न्याय के लिए हमारे अंतिम साधन पर विश्वास कम किया है। और यह सब कुछ तब किया गया, जब उन्होंने अपने सहयोगी न्यायाधीश पर आरोप लगाया और पश्चिम बंगाल में 24 जनवरी को सरकार और न्यायालय के बीच संबंध एक निम्नतम स्तर पर देखने को मिले।

महत्वपूर्ण यह है कि न्यायाधीश का राजनीति में शामिल होने का निर्णय इसके तरीके और इसके संदर्भ से न्यायिक औचित्य और निष्पक्षता के बारे में अनेक प्रश्न उठता है और इसके तीन कारण हैं। पहला, न्यायालय में उनका रिकॉर्ड विवादों से भरा रहा। दूसरा, गत दो वर्षों के दौरान इन विवादों में यह देखने को मिला कि एक वर्तमान न्यायाधीश का निर्वाचित सरकार के साथ किस तरह से टकराव बढ़ रहा है, जिससे पक्षपात की बू आती है। तीसरा, उनका राजनीति में प्रवेश करने से न्याय प्रदाय करने पर प्रभाव पड़ेगा।

क्या लाखों याचिकाकत्र्ता यह नहीं सोचेंगे कि भाजपा से पुरस्कार प्राप्त करने की आशा में अपने त्यागपत्र से पूर्व न्यायाधीश ने प्रशासन के प्रति कठोर रुख दर्शाया? सितंबर 2022 का रोजगार घोटाला मामला ही ले लें। इस मामले की सुनवाई करते हुए गंगोपाध्याय ने ममता बनर्जी के भतीजे और तृणमूल कांग्रेस नेता अभिषेक बनर्जी पर आय से अधिक संपत्ति अर्जित करने का आरोप लगाया। इसमें न्यायिक औचित्य का अभाव था जिसके चलते उच्चतम न्यायालय ने कलकत्ता उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को आदेश दिया कि इस मामले को दूसरी पीठ को सौंपा जाए।

जनवरी में राज्य में मैडिकल कालेजों में प्रवेश के मामलों में उन्होंने एक बड़ी खंडपीठ के निर्णय को पलट दिया और अपने एक सहयोगी के विरुद्ध गैर-जिम्मेदाराना टिप्पणी की। लोकतंत्र की चेतना के प्रहरी जब राजनीतिक साध का शिकार बनते हैं तो फिर मुक्ति नहीं, अपितु पतन आरंभ होता है। उनके राजनीति में प्रवेश से न्यायपीठ पर बैठकर उनके निर्णयों के बारे में अब संदेह होने लगा है। राजनीति में आने और भाजपा में शामिल होने के लिए उन्होंने जो कारण बताए, वे तूणमूल कांग्रेस नेताओं द्वारा किया गया अपमान और टिप्पणियां हैं, किंतु इनमें दम नहीं है। चाहे तृणमूल कांग्रेस ने उन पर भाजपा का राजनीतिक कार्यकत्र्ता होने का आरोप ही क्यों न लगाया हो।

भविष्य में न्यायाधीश सेवानिवृत्ति के बाद राजनीतिक पुरस्कार प्राप्त करने की आशा के चलते किसी विशेष पार्टी के प्रति नियमों को तोड़-मरोड़ सकते हैं। इससे जनता की राय में भी बदलाव आया और लोगों में यह भावना पैदा हो रही है कि एक संस्थान, जो स्वतंत्रता का अभिरक्षण और निगरानी करता है तथा जो संस्थागत ईमानदारी और शुचिता के लिए एजैंडा निर्धारित करता है, क्या उसे राजनीतिक दृष्टि से पक्षपातपूर्ण निर्णय या राजनीतिक झुकाव दिखाना चाहिए?

उनके समर्थकों का कहना है कि गंगोपाध्याय ने साहस दिखाया, जबकि उनके आलोचक इसे अनुचित बताते हैं और नेता उन पर आरोप लगाते हैं कि एक न्यायाधीश के रूप में उन्होंने एक राजनेता की तरह व्यवहार किया। निश्चित रूप से गंगोपाध्याय किसी संवैधानिक न्यायालय के पहले न्यायाधीश नहीं हैं, जिन्होंने त्यागपत्र दिया और राजनीति में प्रवेश किया। वर्ष 1967 में भारत के पूर्व न्यायाधीश सुब्बाराव जो गोकुलनाथ और खरग सिंह मामलों में निर्णय के लिए विख्यात थे, ने अपनी सेवानिवृत्ति से 3 माह पूर्व त्यागपत्र दिया और विपक्ष के उम्मीदवार के रूप में राष्ट्रपति का चुनाव लड़ा।

भारत के पहले अटार्नी जनरल शीतलवाड़ ने प्रसिद्ध न्यायविद छावला पर राजदूत बनने की नेहरू की पेशकश को स्वीकार करने का आक्षेप लगाया। वर्ष 1983 में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश बहरूल इस्लाम ने लोकसभा चुनाव लडऩे के लिए अपनी सेवानिवृत्ति से 6 सप्ताह पूर्व त्यागपत्र दिया। राजीव गांधी ने भी भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एम.एस. बेग का राज्यसभा के लिए नाम निॢदष्ट किया, जिसके चलते न्यायपालिका की निष्पक्षता प्रभावित होने का खतरा पैदा हुआ किंतु इस संबंध में औपचारिकताएं पूरी करने से कुछ दिन पूर्व न्यायाधीश बेग का निधन हो गया।

प्रधानमंत्री मोदी ने भी उनका अनुसरण किया और मार्च 2020 में भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई को राज्यसभा के लिए नामित किया। इस पर विपक्ष ने उन पर आरोप लगाया कि अयोध्या निर्णय के लिए उन्हें यह पुरस्कार दिया गया। पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंगनाथ मिश्र के बारे में क्या कहा जाए, जिनका नाम कांग्रेस ने राज्यसभा के लिए निॢदष्ट किया और न्यायाधीश बहरूल इस्लाम बाद में कांग्रेस के लोकसभा के सांसद बने।

पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश रामा जोइस को राज्यपाल बनाया गया। बाद में वह राज्यसभा में भाजपा के सांसद बने। इससे पूर्व उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश को कांग्रेस ने राज्यसभा में सांसद बनाया। फिर वह जनता पार्टी के टिकट पर लोकसभा सांसद और फिर लोकसभा अध्यक्ष बने। उच्चतम न्यायालय की पहली महिला न्यायाधीश न्यायमूर्ति फातिमा बीबी को 1992 में सेवानिवृत्ति के बाद राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का सदस्य बनाया गया।

वर्ष 1997 में बीबी को तमिलनाडु का राज्यपाल बनाया गया, जहां पर स्थापित संवैधानिक मानदंडों को नजरंदाज करने के लिए निर्णयों के चलते राजनीतिक टकराव चलता रहा और उन्होंने वर्ष 2001 में अन्नाद्रमुक प्रमुख जयललिता को मुख्यमंत्री बनाया। हालांकि भ्रष्टाचार के एक मामले में उनकी दोषसिद्धि के चलते वह विधानसभा का चुनाव नहीं लड़ सकीं। इसी तरह पूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्त गिल को राज्यसभा का सदस्य बनाया गया। 

मुझे याद है कि पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री स्व. बादल ने एक बार टिप्पणी की थी कि जो व्यक्ति ऐसे उच्च पदों पर आसीन हैं, उन्हें पार्टी के टिकट पर चुनाव नहीं लडऩा चाहिए। इस पर गिल ने कहा कि मैंने कोई ठेका लिया है सौ साल का और जब मिठाई बांटी गई तो वह राजनीतिक रसातल के बारे में हल्लाबोल तथा मूल्यों और सत्यनिष्ठा के बारे में बार-बार उनके बल दिए जाने की अपनी बातों को भूल गए। 

भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश पी. सतशिवम को 2014 में केरल का राज्यपाल बनाया गया। भारत के दूसरे मुख्य निर्वाचन आयुक्त के.वी.के. सुन्दरम को सेवानिवृत्ति के बाद विधि आयोग का अध्यक्ष बनाया गया। वर्ष 1986 में मुख्य निर्वाचन आयुक्त आर.के. त्रिवेदी को सेवानिवृत्ति के कुछ महीनों बाद गुजरात का राज्यपाल बनाया गया। लगता है गंगोपाध्याय को पार्टी में शामिल करने के बारे में भाजपा को उचित सलाह नहीं दी गई। 

दुर्भाग्यवश यह निर्णय उल्टा पड़ सकता है और इसके चलते व्यवस्था को नुकसान पहुंच सकता है। इसके लिए आवश्यक है कि कानूनों और नियमों में बदलाव किया जाए और संवैधानिक पदों के प्रमुखों को किसी राजनीतिक दल में शामिल होने या सेवानिवृत्ति के बाद सरकार द्वारा दी गई किसी नियुक्ति को स्वीकार करने पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए। विचारणीय प्रश्न है कि क्या भारत में ऐसे व्यक्तियों को उच्च संवैधानिक पदों पर बने रहने की अनुमति दी जानी चाहिए, जो सेवानिवृत्ति के बाद राजनीतिक दलों से पुरस्कार स्वीकार करते हैं। आशा की जाती है कि गंगोपाध्याय मामला एक मानदंड न बने और न्यायाधीश इस तरह के प्रलोभन से बचें। यह भारत के लोकतंत्र के भविष्य के लिए शुभ नहीं है। -पूनम आई. कौशिश


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