नक्सलवाद की समस्या : कानून-व्यवस्था कड़ाई से लागू करनी होगी
punjabkesari.in Wednesday, Jan 18, 2023 - 04:05 AM (IST)

यह एक कटु वास्तविकता है कि 1967 में एक छोटे से किसान आंदोलन का खतरा अर्थात् नक्सलवाद, अब अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच गया है। हालांकि गृह मंत्री अमित शाह ने कहा है कि वे अगले वर्ष तक भारत को नक्सलमुक्त बनाने के लिए कृतसंकल्प हैं। अमित शाह ऐसा बोल ही रहे थे कि नक्सलवादियों ने छत्तीसगढ़ के बीजापुर और सुकमा जिले में नक्सलरोधी कार्रवाई के दौरान सी.आर.पी.एफ. के कोबरा कमांडो दल और तेलंगाना पुलिस के ग्रे हाऊंड्स पर गोलीबारी की, जिसमें 6 पुलिसकर्मी और एक कमांडर मारा गया। इससे पूर्व झारखंड के चाईबासा में 5 सुरक्षाकर्मी मारे गए और वर्ष 2023 अभी शुरू ही हुआ है।
बयान दिए जा रहे हैं कि सरकार नक्सलवादियों के विरुद्ध जारी संघर्ष को उसकी ताॢकक परिणति तक ले जाएगी। प्रश्न उठता है कि केन्द्र किस तरह इस युद्ध को लडऩा चाहता है? क्या वह माओवादियों और नक्सलवादियों के डी.एन.ए. को जानता है? क्या एक ठोस नक्सलरोधी नीति बनाई गई है? क्या इस चुनौती का वास्तविक और सटीक आकलन किया गया है? क्या केन्द्र जानता है कि उनके आंदोलन को कहां से ऊर्जा मिलती है? क्या नक्सलवादी केवल इस सिद्धान्त से प्रेरित हैं कि अमीर को लूटकर गरीब का भला किया जाए?
क्या यह हिंसा लोकतंत्र के मानदंडों के अनुरूप है? दुखद तथ्य यह है कि सरकार को इस बात का पता नहीं है कि इस बढ़ते खतरे से किस प्रकार निपटा जाए। माओवादियों ने अब तक देश के 20 राज्यों के 223 जिलों में अपना शिकंजा फैला दिया है और इसका प्रसार बढ़ता जा रहा है। नक्सलवादियों का खतरा लोकतंत्र को नष्ट करने और उसके स्थान पर अराजकता लाने के स्तर तक बढ़ गया है। खुफिया सूत्रों का कहना है कि नक्सलवादियों के लश्कर-ए-तैयबा, एच.यू.एल. और अन्य इस्लामिक आतंकवादी संगठनों से संपर्क हैं और उन्हें चीन का संरक्षण प्राप्त है।
इसके साथ ही वे गोली के माध्यम से सामाजिक ढांचे को पंगु बनाना चाहते हैं और उन्हें नेपाल, पाकिस्तान की आई.एस.आई. और चीन से नैतिक और भौतिक सहायता मिल रही है। स्पष्ट है कि सरकार केवल साहस की बातें कर इस युद्ध को नहीं लड़ सकती। पिछले वर्ष जून तक 131 नक्सलवादी हमलों में 60 सुरक्षाकर्मी मारे गए। वर्ष 2021 में नक्सलवादियों के हमले में 62 अन्य लोग भी मारे गए और 103 लोग घायल हुए। वर्ष 2020 में 55 लोग मारे गए और 50 लोग घायल हुए।
वर्ष 2019 में 21 लोग मारे गए और 56 लोग घायल हुए जिनमें भाजपा का एक विधायक और 4 सुरक्षाकर्मी तब मारे गए जब नक्सलवादियों ने दंतेवाड़ा जिले में उनके वाहन को उड़ा दिया था। मार्च-अप्रैल 2017 में सुकमा में दो अलग-अलग हमलों में सी.आर.पी.एफ. के 37 जवान मारे गए। इससे पूर्ववर्ती वर्ष में रायपुर में 7 पुलिसकर्मी और सुकमा में 2 पुलिसकर्मी विस्फोट में मारे गए। हैरानी की बात यह है कि वर्ष 2014 के बाद माओवादियों ने 3670 से अधिक लोग मारे। इसका तात्पर्य है कि प्रत्येक 2 दिन में वे 3 लोगों को मार रहे हैं और यह जानकारी साऊथ एशिया टैरारिज्म पोर्टल ने दी है।
चार पुलिसकर्मियों और नागरिकों की मौत के बदले केवल एक नक्सलवादी मारा जाता है। यही नहीं, नक्सलवादी और शक्तिशाली और घातक जबकि पुलिसकर्मी नि:सहाय बनते जा रहे हैं। माओवादियों से मुकाबला करने को एक ग्रामीण या आदिवासी समस्या नहीं कहा जा सकता। इस संबंध में हमें कुछ कारकों को ध्यान में रखना होगा। पहला, सी.आर.पी.एफ. और राज्य पुलिस के बीच पूर्ण समन्वय, सहयोग और तालमेल क्योंकि धरती पुत्र के रूप में राज्य पुलिस वाले स्थानीय स्थिति से परिचित होते हैं जबकि सी.आर.पी.एफ. की बटालियन में सारे देश के जवान होते हैं, जिन्हें न तो स्थानीय क्षेत्र की जानकारी होती है और न ही वे स्थानीय भाषा जानते हैं और इसके लिए स्थानीय पुलिस को प्रेरित किया जाना चाहिए।
उन्हें तैनाती पूर्व प्रशिक्षण, सही उपकरण उपलब्ध कराए जाने चाहिएं। दूसरा, सुरक्षा बलों को समुचित ग्राऊंड इंटैलीजैंस बैक-अप दिया जाना चाहिए। नक्सलवादी हमले बताते हैं कि सुरक्षा बलों के पास पर्याप्त खुफिया जानकारी नहीं होती। इसके अलावा माओवादियों के विरुद्ध एक नई सोच और विशिष्ट युक्तियां अपनानी होंगी। तीसरा, सदैव सतर्क रहना होगा। वाहनों को अलग रास्ते से चलाना होगा या पैदल चलना होगा, आंध्र प्रदेश और पंजाब से सबक लेना होगा। आंध्र प्रदेश में निरीक्षक को नक्सलवादी कार्रवाई का प्रशिक्षण दिया जाता है और आई.पी.एस. अधिकारियों को पुलिस अधीक्षक बनाने से पूर्व नक्सल प्रभावित जिलों में तैनात किया जाता है।
पंजाब में आतंकवाद का सफाया पुलिस द्वारा सी.आर.पी.एफ., बी.एस.एफ. और सेना की सहायता से किया गया। अब तक बड़े-बड़े शब्दों और भाषा प्रयोग की गई कि आतंकवाद का मुकाबला कल्याण की भावना को ध्यान में रखते हुए राजनीतिक, सुरक्षा और विकास के मोर्चों पर किया जाएगा, किंतु सरकार यह नहीं समझती कि ऐसे बड़े-बड़े शब्दों से काम नहीं चलता। इसके लिए सुविचारित रणनीति अपनानी पड़ती है। केन्द्र को यदि दुश्मन को समाप्त न भी करना न हो तो उस पर अंकुश लगाने के लिए संसाधन जुटाने होंगे, उनकी सुनियोजित तैनाती करनी होगी।
सरकार को समझना होगा कि यदि लक्ष्यों, युक्तियों, संसाधनों और जमीनी दशाओं में तालमेल न हो तो सारी रणनीति और उपाय निरर्थक हो जाएंगे। साथ ही सामाजिक प्रणाली में आई विकृतियों को युद्ध स्तर पर दूर करना होगा, गरीबी उन्मूलन के लिए कदम उठाने होंगे और त्वरित विकास सुनिश्चित करना होगा। कानून और व्यवस्था को कड़ाई से लागू करना होगा। पुलिस बल को अच्छे हथियार और उपकरण दिए जाने चाहिएं। माओवादी मौके का फायदा उठाने की नीति अपनाते हैं, जिसके चलते गुरिल्ला लड़ाकू और आम आदमी के बीच अंतर नहीं किया जा सकता।
नि:संदेह केन्द्र और राज्यों को मिलकर इस गंभीर समस्या का मुकाबला करना होगा। उन्हें समझना होगा कि नक्सलवाद एक भयावह ब्लैकहोल है और उसके विरुद्ध गंभीरता से कार्रवाई की जानी चाहिए। हमें इस बात को ध्यान में रखना होगा कि एक राष्ट्र का अस्तित्व चुनौतियों का मुकाबला करने में उसकी प्रतिक्रिया पर निर्भर करता है। क्या हमारे नेता इस बात को समझते हैं? -पूनम आई. कौशिश