हुसैन हक्कानी को ‘बलि का बकरा’ बनाने की तैयारी

punjabkesari.in Monday, Mar 20, 2017 - 10:45 PM (IST)

बलि के बकरे ढूंढना पाकिस्तान में पसंदीदा शुगल बन चुका है। अब की बार रहस्यमय किस्म के हुसैन हक्कानी कटघरे में हैं। कुछ हद तक तो इस स्थिति के लिए उनके अपने ही कृत्य जिम्मेदार हैं। कुछ दिन पूर्व हक्कानी ने ‘वाशिंगटन पोस्ट’ में एक स्तम्भ लिखकर तितैया का छत्ता छेड़ दिया है। उनका दावा है कि उन्होंने वाशिंगटन में पाकिस्तान के राजदूत के रूप में ओबामा प्रशासन की प्रमुख हस्तियों के साथ घनिष्ठ संबंध बना लिए थे और इन्हीं संबंधों के चलते एबटाबाद में ओसामा बिन लाडेन को ढूंढ निकाला गया और बाद में उसका सफाया कर दिया गया। 

हक्कानी के पूर्व सरपरस्त आसिफ अली जरदारी ने कुछ समय पूर्व खुद को उनसे दूर कर लिया था। फिर भी यह पूर्व राजदूत (जिसको राजनीतिक आधार पर ही नियुक्त किया गया था) अपने इस विवादित आलेख में दावा करते हैं कि उन्होंने वाशिंगटन में जो कुछ भी किया था वह इस्लामाबाद स्थित अपने राजनीतिक प्रभुओं की मंजूरी से ही किया था। 

इस परिप्रेक्ष्य में पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पी.पी.पी.) के सदस्यों द्वारा हक्कानी के ताजा-तरीन दावे की पड़ताल के लिए एक नया आयोग स्थापित किए जाने की मांग कुछ अवसरवादी-सी महसूस होती है। फिर भी हक्कानी प्रस्तावित संसदीय आयोग के समक्ष गवाही देने के लिए सहमत हो गए हैं। वैसे यह पूरा मामला दोगलेपन की बू मारता है। यह तथ्य कि 2 मई 2011 को अमरीकी नेवी के ‘सील कमांडोज’ ने पाकिस्तान की सम्प्रभुता एवं इसके उड़ान क्षेत्र का उल्लंघन करके ओसामा का सफाया किया था लेकिन इस तथ्य पर बहुत आसानी से पर्दापोशी कर दी गई है। कोई यह कहने को तैयार नहीं कि यह गम्भीर सुरक्षा चूक थी या सोच-समझ कर की गई सांठगांठ? 

आखिर पाकिस्तान सरकार एबटाबाद आयोग की उस जांच रिपोर्ट को जारी क्यों नहीं करती जो जस्टिस जावेद इकबाल की अध्यक्षता में तैयार की गई थी? नैशनल असैम्बली और सीनेट इस रिपोर्ट को सार्वजनिक करने के लिए प्रस्ताव पारित कर सकती थी। इससे पहले भी ऐसी बहुत-सी रिपोर्टें विभिन्न आयोगों द्वारा तैयार की जाती रही हैं लेकिन उन्हें कभी भी सार्वजनिक नहीं किया गया। हालांकि आयोग गठित करने के पीछे केवल एक ही परिकल्पना होती है कि केवल कसूरवारों को ही दंडित न किया जाए बल्कि लोक राय को भी शांत किया जाए। आज तक हम निश्चय से यह नहीं जानते कि ओसामा बिन लाडेन के सफाए में पाकिस्तानी सुरक्षा और गुप्तचर तंत्र की सांठगांठ थी या नहीं या फिर इसे सचमुच ही अमरीकी सील कमांडोज  के पाकिस्तान की धरती पर पहुंचने की भनक ही तब लगी थी जब कुछ किया नहीं जा सकता था। 

दोनों ही मामलों में सेना और गुप्तचर तंत्र का तत्कालीन नेतृत्व बहुत आशंकाओं में घिरा हुआ है। कितनी हैरानी की बात है कि जिन लोगों की जिम्मेदारी ही गोपनीय और रहस्यमय जानकारियों का पता लगाने पर होती है, उन्हें आठ वर्ष तक यह पता ही नहीं चला कि लाडेन पाकिस्तान की काकूल मिलिट्री अकैडमी से ऐन कुछ ही दूरी पर छिपा हुआ था! इससे भी अधिक हैरानी की बात यह है कि ओसामा को मारे जाने के दिन अमरीकी कमांडो पाकिस्तान की धरती पर पहुंच गए और हमारे जासूसों को भनक तक नहीं लगी। एबटाबाद आयोग की रिपोर्ट के लीक हुए मसौदे के अनुसार उन दिनों आई.एस.आई. प्रोफैशनल की  बजाय राजनीतिक अधिक हो गई थी। इस प्रश्र का उत्तर 2011 में सेना प्रमुख रह चुके कियानी और आई.एस.आई. प्रमुख से क्यों नहीं पूछा जाता, जो कि दोनों रिटायर होने के बाद इस्लामाबाद में रह रहे हैं। उनकी देखरेख में जो हुआ उन्हें उसके लिए उत्तरदायी ठहराया जाना चाहिए। 

मैं हुसैन हक्कानी का पक्षधर नहीं हूं, फिर भी इतना जरूर कहूंगा कि हर किसी को हल्ला बोलने के लिए वही आसान लक्ष्य के रूप में दिखाई दे रहे हैं। हर किसी को पता है कि वह पाकिस्तान में आयोग के समक्ष पेश होने आएंगे तो उन्हें अवश्य ही बलि का बकरा बनाया जाएगा। जब उन्हें पाकिस्तान से सुरक्षित वापस लौटने की कोई उम्मीद ही नहीं तो वह यहां आएंगे भी क्यों? पूर्व प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी द्वारा हक्कानी की जांच करवाए जाने की मांग सरासर अवसरवादिता है। आखिर खुद उनकी भी जांच क्यों न करवाई जाए, वह भी तो उस समय प्रधानमंत्री थे। 

सभ्य देश राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर न्यायिक आयोग गठित करके यह पता लगाने का प्रयास करते हैं कि उनसे कहां पर चूक हुई है जबकि पाकिस्तान जैसे देशों में केवल दोषी सिद्ध हुए लोगों को दंडित करने का ही जुनून भड़कता है। सभ्य देश भविष्य के लिए सही रास्ता तय करते हैं। किसी भी लोकतंत्र में इसी कारण तो जांच रिपोर्टों को सार्वजनिक किया जाता है। अब शीघ्र ही प्रधानमंत्री नवाज शरीफ और उनके परिवार के विरुद्ध पनामा गेट स्कैंडल की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा आयोग गठित हो सकता है, लेकिन न जाने उसकी रिपोर्ट का क्या हश्र होगा।
    


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