जन सहयोग से ही अपराध रोक सकती है पुलिस
punjabkesari.in Monday, Aug 23, 2021 - 03:47 AM (IST)

पुलिस -जनता के संबंधों में सुधार लाने में सामुदायिक पुलिसिंग एक अहम किरदार निभा सकती है। एेसा माना जाता है कि जनता और पुलिस के बीच अगर अच्छे संबंध हों तो पूरे पुलिस बल को बिना वर्दी के एेसे हजारों सिपाही मिल जाएंगे जो न सिर्फ अपराध को रोक पाएंगे बल्कि पुलिस की खराब छवि को भी सुधार सकेंगे।
ऐसा नहीं है कि पुलिस अपनी छवि जानबूझ कर खराब करती है। असल में पुलिस की वर्दी के नीचे होता तो एक इंसान ही है। फर्क सिर्फ इतना होता है कि वह हर हाल में अपने देश और समाज की रक्षा करने को कटिबद्ध होता है। चाहे कोई त्यौहार हो या किसी भी तरह का मौसम, अगर ड्यूटी निभानी है तो निभानी है।
हाल ही में नियुक्त दिल्ली पुलिस के कमिश्नर राकेश अस्थाना ने दिल्ली के श्यामलाल कालेज में ‘उम्मीद’ कार्यक्रम में कहा कि जहां एक आेर पुलिस को हर तरह की कानून-व्यवस्था और उनसे जुड़े मुद्दों से निपटने की ट्रेनिंग मिलती है, वहीं समाज के समर्थन के बिना इसे प्रभावशाली नहीं बनाया जा सकता। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि आज हम प्रौद्योगिकी के युग में रहते हैं और आर्थिक प्रगति केवल शांतिपूर्ण वातावरण में ही प्राप्त की जा सकती है। पुलिस और जनता को मिल जुलकर ही रहने का प्रयास करना चाहिए।
आज के दौर में ज्यादातर लोगों के हाथ में एक स्मार्टफोन तो होता ही है, यदि इसका उपयोग सही तरह से किया जाए तो कानून-व्यवस्था बनाने में नागरिक पुलिस की काफी सहायता कर सकते हैं। देखा जाए तो हर जगह, हर समय पुलिस की तैनाती संभव नहीं हो सकती, इसलिए बेहतर कानून-व्यवस्था और सौहार्द की दृष्टि से यदि पुलिस को समाज का सहयोग मिल जाए तो फायदा समाज का ही होगा।
उदाहरण के तौर पर जून 2010 में दिल्ली ट्रैफिक पुलिस ने जब फेसबुक पर अपना पेज बनाया तो मात्र 2 महीनों में ही 17,000 लोग इससे जुड़ गए और 5,000 से ज्यादा फोटो और वीडियो इस पेज पर डाले गए। इन फोटो और वीडियो में ट्रैफिक नियमों के उल्लंघन की तस्वीरें, उल्लंघन की तारीख व समय और जगह का विवरण होता था। नतीजतन जहां एक आेर नियम उल्लंघन करने वालों के घर चालान जाने लगे, वहीं दूसरी आेर चालक और ज्यादा चौकन्ने होने लग गए। इस छोटी-सी पहल से पुलिस को बिना वर्दी एेसे लाखों सिपाही मिल गए। इस प्रयास से जहां एक आेर समाज का भला हुआ वहीं दिल्ली की सड़कें भी सुरक्षित होने लग गईं।
असल में करोड़ों की आबादी वाले इस देश में यदि पुलिस और जनता के बीच कुछ प्रतिशत के संबंध किसी कारण से बिगड़ जाते हैं तो उसका असर पूरे देश पर पड़ता है। पुलिसकर्मी किस तरह के तनावपूर्ण माहौल में काम करते हैं, उसका अंदाजा केवल पुलिसकर्मी ही लगा सकते हैं, आम जनता नहीं। स्वार्थी तत्व इस सबका नाजायज फायदा उठा कर पुलिस को बदनाम करने का काम करते आए हैं।
आमतौर पर देखा जाता है कि यदि कोई अपराधी पुलिस द्वारा पकड़ा जाए और फिर बाद में अदालत द्वारा छोड़ दिया जाए तो दोषी पुलिस ही ठहराई जाती है, जबकि असल में भारत की दंड संहिता और न्यायिक प्रणाली में ऐसे कई रास्ते हैं जिनका सहारा लेकर अपराधी का वकील उसे छुड़ा लेता है। यदि अपराधी असल में दोषी है और पुलिस ने सही कार्रवाई कर उसे हवालात में डाला है तो समाज का भी यह दायित्व होता है कि यदि किसी नागरिक ने अपराध होते हुए देखा है तो अदालत में जाकर उसे साक्ष्य देना चाहिए। एेसा करने से पुलिस और समाज का एक-दूसरे पर विश्वास बढ़ेगा ही।
जहां राजनीतिक लोग पुलिस प्रशासन को अपना हथियार समझ कर उन पर दबाव डालते हैं, वहीं पुलिसकर्मी अपने तनाव और दबाव के बारे में किसी से कहते भी नहीं हैं और आम जनता के सामने बुरे बनते हैं। पुलिस कर्मियों पर अगर कुछ नाजायज करने का दबाव आता है तो पुलिस अफसर को मीडिया या आजकल के दौर में सोशल मीडिया की मदद से अपने पर पडऩे वाले दबाव का खुलासा कर देना चाहिए। इससे जनता के बीच एक सही संदेश जाएगा और पुलिस को अपना हथियार बनाकर राजनीतिक रोटियां सेंकने वाले नेताआें का भंडाफोड़ भी होगा।
गौरतलब है कि अंग्रेजों द्वारा बनाए गए 1861 के एक्ट के अधीन कार्य करने वाली भारतीय पुलिस में सामुदायिक पुलिसिंग का कहीं भी वर्णन नहीं था। यह तो सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप का असर है कि हर राज्य के पास एक राज्य पुलिस एक्ट है, जिसमें सामुदायिक पुलिसिंग का कहीं न कहीं जिक्र जरूर है परंतु इसे कोई विशेष तवज्जो नहीं दी जाती। यदि सामुदायिक पुलिसिंग का सही ढंग से उपयोग हो तो पुलिस अपना कार्य तनाव मुक्त होकर काफी कुशलता से करेगी।
20वीं शताब्दी में भारत के उत्तरी राज्यों में ‘ठीकरी पहरा’ नामक योजना प्रचलन में थी, जिसके अंतर्गत गांव के सभी युवा रात्रि के समय पहरा देते थे तथा डाकू-लुटेरों को पकडऩे में पुलिस की मदद करते थे। पंजाब में ‘सांझ’, चंडीगढ़ में ‘युवाशक्ति प्रयास’ तथा तमिलनाडु में ‘मोहल्ला कमेटी आंदोलन’ के नाम से एेसी योजनाएं चलाई जा रही हैं तथा हर राज्य में अच्छे परिणाम देखने को मिल रहे हैं।
समय गुजारने के साथ इन योजनाआें की तरफ अब शायद कोई ज्यादा ध्यान नहीं दे रहा। आज के दौर में जहां देश के चप्पे-चप्पे पर सी.सी.टी.वी. कैमरों की नजर है, वहीं अगर सामुदायिक पुलिसिंग पर ज्यादा जोर दिया जाए तो अपराध घटेंगे और जनता और पुलिस के बीच संबंधों में भी सुधार होगा। नागरिक पुलिस को अपने परिवार का ही एक हिस्सा मानेंगे।-विनीत नारायण