पी.एन.बी. घोटाला : सरकारी बैंकों का जल्द से जल्द निजीकरण किया जाए

punjabkesari.in Sunday, Feb 18, 2018 - 04:10 AM (IST)

आपके कानों को यदि मेरी बात ‘पार्टीवादी’ होने का आभास दे तो यह स्मरण करने का कष्ट करें कि जब सच्चाई बयान की जाती है तो यह कड़वी भी लगती है। अन्य सभी बड़े-बड़े घोटालों की तरह पी.एन.बी. में हुए ताजा-तरीन घोटाले का भांडा भी पूर्व सरकार के सिर फोड़ा जा सकता है। 

नीरव मोदी द्वारा लूटपाट का सिलसिला 2010 के आसपास शुरू हुआ था और 2018 की जनवरी में उस समय समाप्त हुआ जब उससे वेतन पाने वाला कारिंदा पंजाब नैशनल बैंक का वरिष्ठ कार्यकारी नहीं रह गया था। उसके जाने के बाद बैंक में कोई ऐसा अधिकारी नहीं था जो नीरव मोदी की सेंधमारी को अधिकृत करता। आंतरिक और बाह्य नियामक लापरवाही तथा बैंक के खुद की लेखाकारी की विफलता ने इस घोटाले को फलने-फूलने में सहायता दी। फिर भी निष्पक्ष एवं न्यायपूर्ण ढंग से सोचने वाले लोग वास्तव में इस कारण से मोदी सरकार से हमदर्दी कर सकते हैं कि इसकी स्थिति ‘करे कोई, भरे कोई’ जैसी बनी हुई है। मोदी यू.पी.ए. के गुनाहों की गठरी का भार ढोने को मजबूर हैं। 

दुर्भाग्य की बात है कि मोदी सरकार भी वह एकमात्र कदम उठाने का आभास नहीं दे रही जो देश के गरीब लोगों को इस तरह की आपराधिक लूटपाट से बचा सके। संक्षेप में कहा जाए तो इस समस्या का समाधान केवल यह है कि 1969 में केवल चुनावी गणनाओं के अंतर्गत जो मूल पाप किया गया था उसको उलटा घुमाया जाए और उसका प्रायश्चित किया जाए। इस विषय में तब की पृष्ठभूमि पर दृष्टिपात करना हितकर होगा। 

1969 में कांग्रेस के पुराने नेताओं  (सिंडीकेट) के साथ भीषण सत्तायुद्ध में उलझी हुई इंदिरा गांधी ने खुद को गरीबों की हमदर्द सिद्ध करने के लिए बैंक राष्ट्रीयकरण का सरल-सा हथकंडा अपनाया। 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया और इन्हें वित्त मंत्रालय के नौकरशाहों के अधीन कर दिया गया। वह दिन और आज का दिन, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक घोटालों की लूटपाट की दलदल में गहरे से गहरे धंसते जा रहे हैं। जिस किसी की भी सत्तासीन राजनीतिज्ञों तक पहुंच हो वह बिना किसी तरह की जवाबदेही की गारंटी दिए करोड़ों-अरबों रुपए के ऋण ले सकता है। बैंकों की लम्बे समय से परखी हुई इन मर्यादाओं को ताक पर रख दिया गया है। वित्त मंत्री से ‘हां’ का इशारा मिलना ही उनके कारिंदों के लिए पर्याप्त संकेत होता है। हजारों करोड़ रुपए के ऋण देने से पहले किसी भी तरह की जांच-पड़ताल को फिजूल बनाकर रख दिया गया था। 

हम सभी भली-भांति परिचित हैं कि सार्वजनिक क्षेत्र की लूटपाट ने गरीब लोगों को किस हद तक कष्ट पहुंचाया है, हालांकि इंदिरा गांधी ने इन्हीं गरीब लोगों के नाम पर बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था। करदाताओं के जिस पैसे से शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी कल्याणकारी सुविधाएं उपलब्ध करवाई जा सकती थीं उसी पैसे को भूखों की तरह डकारने का नतीजा यह हुआ है कि अब बैंक भारी-भरकम गैर-निष्पादित सम्पत्तियों के बोझ तले दबे हुए हैं और सरकार के सामने यह समस्या दरपेश है कि इनका पुन: पूंजीकरण कैसे किया जाए। वैसे मोदी के सत्तासीन होने के समय से ही पी.एम.ओ. की फोन कॉल पर भारी-भरकम ऋण देने का सिलसिला थम गया है। लेकिन क्या वित्त मंत्री, उनके सहायकों और उनके बेटे के मामले में यही बात कही जा सकती है? 

वैसे मोदी सरकार ने विरासत में मिली गैर-निष्पादित सम्पत्तियों का मामला सुलझाने में बहुत सुस्ती से काम लिया है। 2007-08 से लेकर 2012-13 के बीच बैंकों द्वारा दिया गया ऋण 20 लाख करोड़ रुपए से बढ़कर 60 लाख करोड़ के भारी-भरकम आंकड़े तक पहुंच गया। इस पूरी वृद्धि का ठीकरा भी 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट पर नहीं फोड़ा जा सकता। यह तो मानना ही पड़ेगा कि डिफाल्टरों की पहचान करना और उन पर शिकंजा कसना कोई आसान काम नहीं। बैंकों का 9 हजार करोड़ रुपया डकारने के बाद विजय माल्या देश से भाग गया। इस प्रकरण ने सरकार के जनसम्पर्क तंत्र का पूरी तरह दिवाला निकाल दिया। वैसे उसे ऋण की अनुमति देने तथा पैसे का भुगतान करने से राजग के किसी भी नेता का कोई भी लेना-देना नहीं। 

जहां माल्या ब्रिटेन से अपने भारत प्रत्यार्पण को रोकने के लिए हर हथकंडा प्रयुक्त कर रहा है वहीं उसके कुकृत्य से भी कहीं बड़ा घोटाला प्रकाश में आया है। हाई प्रोफाइल ज्वैलर नीरव मोदी द्वारा पंजाब नैशनल बैंक के साथ 11400 करोड़ से भी अधिक की धोखाधड़ी ने बैंकों के सार्वजनिक स्वामित्व पर फिर से सवाल उठा दिया है। वैसे इसका तात्पर्य यह नहीं कि प्राइवेट सैक्टर के बैंक दूध के धुले हैं। वे भी आम आदमी के हितों की अनदेखी करते हुए अक्सर सत्ता से नजदीकी रखने वाले पूंजीपतियों की लालसा पूरी करते हैं। फिर भी प्राइवेट होने के कारण इन बैंकों में दोषी पाए जाने पर किसी न किसी को जवाबदेह बनना ही पड़ता है और उसे दंडित भी किया जाता है। जब भी किसी प्राइवेट बैंक में घोटाला होता है तो शेयर बाजारों में इसके शेयर की कीमत में भारी गिरावट आने से सबसे अधिक नुक्सान प्रोमोटरों को ही होता है। 

इसके विपरीत सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक किसी के आगे भी जवाबदेह नहीं क्योंकि सरकार भी करदाताओं के खून-पसीने की कमाई झोंक कर कुप्रबंधन के शिकार बैंकों का उद्धार करने के लिए तत्पर रहती है-बिल्कुल जिस तरह एयर इंडिया के मामले में किया गया है। उदारीकरण का दौर शुरू होने के बाद इस बात का कोई तुक नहीं कि सरकार अपने बैंकों का परिचालन करे। स्टेट बैंक आफ इंडिया को छोड़कर अन्य सभी सरकारी बैंकों का अवश्य ही निजीकरण शीघ्रातिशीघ्र होना चाहिए। 

राजग सरकार ने 2016 में दिवाला कानून पारित किया था जिसमें पहली बार बैंकों को उन लोगों से वसूली करने के अधिकार दिए गए जो जानबूझ कर बैंकों का कर्ज नहीं लौटाते।  विजय माल्या और नीरव मोदी जैसे लोगों द्वारा किसी प्राइवेट बैंक के साथ इतनी बड़ी धोखाधड़ी करने की नौबत ही न आई होती क्योंकि वहां इतनी बड़ी धनराशि जाली दस्तावेजों के आधार पर निकलवाना लगभग असम्भव है और यदि वे सफल हो भी गए होते तो संबंधित बैंकों के कई शीर्ष अधिकारी सलाखों के पीछे होते। लेकिन पी.एन.बी. के मामले में तो ऐसा लगता है कि दो शीर्ष अधिकारी ही नीरव मोदी के साथ सांठगांठ करते रहे हैं। 

नौसरबाज व्यवसायी तो नौसरबाजी से बाज नहीं आएंगे। ऐसे में उन्हें सरकारी स्वामित्व वाले बैंकों की लूट करने की छूट क्यों दी जाए। सरकारी बैंकों को बेच कर क्यों न उनका घाटा कम किया जाए और या फिर बिक्री से हासिल हुआ पैसा आधारभूत ढांचे में खर्च किया जाए। उल्लेखनीय है कि बैंकिंग क्षेत्र के 70 प्रतिशत कारोबार पर सरकार का कब्जा है। इसके बावजूद एस.बी.आई. को छोड़कर अन्य समस्त सरकारी बैंकों का बाजार मूल्य प्राइवेट बैंकों की तुलना में कम है। इस स्थिति का एक ही उपाय है बैंकों का निजीकरण किया जाए और नियामक तंत्र को मजबूत किया जाए।-वरिन्द्र कपूर


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