क्या पाकिस्तानी कलाकारों के लिए भारत मात्र ए.टी.एम. है

punjabkesari.in Friday, Sep 30, 2016 - 02:00 AM (IST)

(तरुण विजय): अक्सर कहा जाता है कि कला और संस्कृति सीमा हीन और दायरों से परे होती है  लेकिन यह बात केवल हिन्दुस्तान पर लागू की जाती है, पाकिस्तान जैसे देश इस परिभाषा से अलग रखे जाते हैं जहां भारतीय कलाकार न तोअपनी प्रस्तुति  दे पाते हैं और न ही उनको वह सम्मान मिलता है। यदि भारत के परिप्रेक्ष्य में मान भी लिया जाए कि  कला देश जैसे ‘तुच्छ’ दायरों से परे होतीहै जैसा कि भारत से कराची लिटरेचर फैस्टीवल के सहभागी कहते रहे, तो क्या कलाकार संवेदनहीन और पत्थर दिल हो सकता है कि भारत पर आतंकवादी हमलों की निंदा करने में भी उसको परहेज हो? क्या ऐसा एकभी पाकिस्तानी कलाकार मिला, जिसने भारत से पैसेबटोरने में तो कोई आपत्ति नहीं की लेकिनभारत पर हमलों की भी कभी ङ्क्षनदा की हो। क्या भारत ऐसे तथाकथित कलाकारों के लिए मात्र कला का ए.टी.एम. है।

भारत में पाकिस्तानियों की आवाज बने कुछ खास संपादक, नेता और चैनलों के पत्रकार हैं जो अक्सर अमन की आशा बन कर पाकिस्तान के स्वरों में अपना स्वर मिलाते  हैं। उनके लिए भारतीय सैनिकों का दुख, दुख नहीं, भारतीय शहीदों के परिवारों की वेदना से वे नितांत अछूते रहते हैं। अपने अखबारों और चैनलों पर पाकिस्तानी पक्ष रखना, पाकिस्तान के उच्चायुक्त के घंटे भर के इंटरव्यू दिखाना, आतंकवादियों के बच्चों के इंटरव्यू प्रथम पन्ने पर प्रमुखता से छापनाऔर पाकिस्तान द्वारा हमारी सीमा तथा सैनिकों पर प्रहार के बावजूद ऐसा दिखाना मानो ये लोग किसी स्वतंत्रग्रह और देश के निवासी हैं  जिनका  मातृभूमि के दुख-दर्द से कोई संबंध ही नहीं है, इनकी खास पहचान है।

अभी हाल ही में पाकिस्तानी कलाकारों के भारतीय कार्यक्रमों पर कतिपय देशभक्त संगठनों द्वारा आपत्ति के बाद उनके कार्यक्रम भारतीय आयोजकों द्वारा इस प्रकार रद्द किए गए मानो वे बहुत मजबूरी में ऐसा कर रहे हैं और उनको बहुत दुख है।

मैंने अभी तक एक भी पाकिस्तानी कलाकार का ऐसा बयान नहीं सुना है, जिसमें उसने आतंकवाद और दहशतगर्दी की ङ्क्षनदा की हो।  वे आते हैं गा-बजा कर, कुछ अभिनय दिखा कर यहां से पैसे बटोर कर वापस कराची और लाहौर चले जाते हैं, मानो हिन्दुस्तान उनके लिए धन कमाने की मंडी मात्र हो। यहां भी पाकिस्तानी तथाकथित कला और शायरी के ऐसे पागल प्रशंसक हैं, जिनकी आंखों में केवल कव्वालियां और मनोरंजन जीवन का सार है। वे मातृभूमि की रक्षा का विषय केवल पैसे, वेतन और नौकरी का जोखिम मानते हैं।  

अंग्रेजों के जमाने में ऐसे ही लोग रायबहादुर और राय साहेब के खिताब लिया करते थे, अब वे नए शासन से अपने हुनर दिखा कर नए पुरस्कार लेते हैं। सैनिक, देश, मातृभूमि, बलिदान, अपने शहीदों से रिश्ता, उनके बहादुरी के कारनामों के प्रति सम्मान और उन पर हमला करने वालों के प्रति शत्रुता और गुस्सा जैसे भाव इनको इमोशनल मूर्खता प्रतीत होते हैं। इसीलिए पाकिस्तानी कलाकारों के प्रति इनका  प्रेम कुछ ज्यादा ही होता है, यह जानते हुए भी कि वे उस देश से आ रहे हैं जिसके हाथ हमारे नागरिकों और फौजियों के खून से सने हैं।

अभी एक अंग्रेजी समाचार पत्र में मैंने कश्मीरी आतंकवादी बुरहान वानी के अब्बा का आधे पृष्ठ का लंबा इंटरव्यू पढ़ा।  एक बार भी उसने अपने बेटे के कुकृत्यों  के प्रति अफसोस जाहिर नहीं किया और उसकी तुलना भगत सिंह से की। जिस समय भारत पर पाकिस्तानी आतंकवादी हमले हो रहे हैं और भारतीय सैनिक शहीद हो रहे हैं, ठीक उसी समय इस भारतीय अखबार द्वारा पाकिस्तानी आतंकवाद के समर्थन में एक आतंकवादी के पिता का लंबा इंटरव्यू छापने का क्या उद्देश्य हो सकता है? 

इन्हीं दिनों कोलकाता के एक अंग्रेजी अखबार में भारत में  पाकिस्तानी उच्चायुक्त बासित का इंटरव्यू छपा, जिसमें उसने पुन: भारत की आलोचना की और कहा कि जम्मू-कश्मीर के लोगों से पूछ लिया जाए कि वे किसके  साथ  रहना चाहते हैं। एक बार भी इसनिर्भीक और स्वतंत्र पत्रकार ने नहीं पूछा  कि क्या यह शर्त वे पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर पर भी लागू करते हैं। 

इतना ही नहीं, चंडीगढ़ के एक अंग्रेजी दैनिक ने उस समय, जब भारत को पाकिस्तानी आतंकवाद के खिलाफ विश्वव्यापी समर्थन मिल रहा है, एक ऐसा लेख छापा जिसमें बताया गया कि इससमय पाकिस्तान को दुनिया के देशों, जिसमें अमरीका,  चीन, रूस शामिल हैं, से बेहद आत्मीय समर्थन मिलरहा है और भारत वैश्विक कूटनीति में अलग-थलग पड़ गया है।

इसको पढ़ कर, इतने कुताॢकक और झूठ पर टिके लेख से एक बारगी ऐसा लगा कि हम भारत का नहीं बल्कि पाकिस्तान का ‘डॉन’ या ‘पाकिस्तान टाइम्स’ अखबार पढ़़ रहे हैं।

स्वतंत्र पत्रकारिता का हम सभी समर्थन करते हैं। यह भी कि सत्ता पक्ष की नीतियों का पुरजोर विरोध करना या आलोचक लेख एवं संपादकीय लिखना पत्रकारिता का स्वीकार्य अंग है। इसके बिना लोकतंत्र अधूरा और बेमानी हो जाता है और फिर हम में तथा तानाशाहों में कोई फर्क नहीं रहता लेकिन राष्ट्र औरसमाज के प्रति संवेदना रहित होकर शत्रु के आक्रमण  के समय उसके पक्ष में लिखना और अपने देश के प्रति आक्रामक वक्तव्य देना और शत्रु देश के कलाकारों को आतिथ्य देना क्या राजनीतिक एवं पत्रकारिता की स्वतंत्रता का हिस्सा माना जाएगा? जो लोग संसद पर हमला करने वाले एस.ए.आर. गिलानी को फांसी के फंदे से छुड़ाने केलिए समितियां बनाते रहे वे क्या शहीदों के लिए शोक सभा या श्रद्धांजलि देते हुए आज तक देखे गए।

इन लोगों का न तो कोई ईमान होता है और न ही कोई सिद्धांत। ऐसे पाखंडी पत्रकारों और संपादकों को बेनकाब करना और उनको बौद्धिक आतंकवादियों की श्रेणी में रखना ही उचित होगा। इनके लिए किसी विचार स्वातंत्र्य का रक्षा कवच देना देश के प्रति अपराध ही होगा।  
 


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