‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’ देश को तानाशाही की ओर ले जाने का ही एक पड़ाव
punjabkesari.in Tuesday, Oct 03, 2023 - 05:35 AM (IST)

जहां एक ओर इंसाफ पसंद और अमनप्रस्त देशवासियों को भारत की लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष मान्यताओं को ठेस लग रही है वहीं दूसरी ओर आर.एस.एस. तथा उसके साथ जुड़े संगठन का कद बढ़ता ही जा रहा है। संघ के नेताओं की 1925 में इसकी स्थापना के समय से ही शुरू की गई धर्म आधारित राजनीति अपने निर्धारित मुकाम पर पहुंच रही है।
संघ प्रचारकों की ओर से लगातार यह प्रचार किया गया कि संघ का कोई राजनीतिक मंतव नहीं है और यह तो मात्र एक सामाजिक और सांस्कृतिक संगठन है जो लोगों के अंदर देशभक्ति, अनुशासन और समाज के प्रति समर्पण की भावना पैदा करने के लिए निष्ठा से काम करता है। मगर इस सत्य के पीछे छिपा झूठ 2014 में प्रधानमंत्री मोदी की ताजपोशी के फौरन बाद सभी पर्दों को फाड़ कर बाहर आ गया जब संघ नेताओं ने अपनी कार्रवाइयों से यह सिद्ध कर दिया कि उनका असली मकसद ही राजनीति करना है।
धर्म, कर्म के सारे कार्यों को छोड़ कर संघ मोदी सरकार के मार्गदर्शक की भूमिका में आ गया था। संघ परिवार के लिए यह खुशी का समय ही था कि 1947 के बाद आजाद भारत में कभी भी श्रमिकों, किसानों, दलितों और आथक तौर पर हाशिए पर धकेले हुए लोगों के अधिकारों की लड़ाई में भागीदार बनने के बिना ही आज उनका एक सच्चा सपूत भारतीय सत्ता पर काबिज हुआ बैठा है। भारतीय राजनीति के अंदर पहली बार किसी राजनीतिक दल ने धर्म आधारित देश की स्थापना करने के हित में भारतीय संविधान को अंग्रेजों की देन कह कर खुले रूप में इसकी आलोचना की है और इसे भारत की प्राचीन परम्पराओं के अनुसार फिर से लिखने की सलाह दी है।
देश के वर्तमान संविधान को भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल रहे राजनीतिक नेताओं और अन्य कार्यकत्र्ताओं ने स्वतंत्र भारत के लिए नई आशाओं और उमंगों की भरपाई करने वाले दस्तावेज के तौर पर लिखा है। संविधान के निर्माता डा. भीमराव अम्बेडकर ने संविधान के अंदर धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र, वंचित लोगों और महिलाओं के कल्याण और मानवीय मूल्यों को प्रफुल्लित करने के लिए मूल्यवान धाराएं शामिल करने में एक उल्लेखनीय भूमिका अदा की। प्रधानमंत्री मोदी ने 18 से 22 सितम्बर 2023 को बुलाए गए संसद के विशेष सत्र के दौरान सांसदों को संविधान की जो प्रति भेंट की उसे पढ़कर सबको हैरानी और शर्मिंदगी महसूस हुई थी क्योंकि संविधान की इस नई पुस्तक में पहले से लिखे आ रहे ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवाद’ शब्द गायब थे।
वैसे तो इस विशेष सत्र में भाजपा सांसद रमेश बिधूड़ी की जुबान से बसपा सांसद दानिश अली के लिए निकली गाली-गलौच और अति निम्र दर्जे वाली भाषा और उनकी ओर से उगले गए साम्प्रदायिक जहर ने इस सत्र को सचमुच में ही यादगारी बना दिया। बाकी की रहती कसर भाजपा के बाहुबली सांसद बृज भूषण शरण सिंह ने अपने भाजपा सहयोगी का साथ देते हुए दुव्र्यवहार और बदजुबानी से पीड़ित सांसद को ही कटघरे में खड़ा कर निकाल दी।
जिस किसी भी देश के भीतर धर्म आधारित शासन कायम करने के लिए राजनीति को पूर्ण रूप में एक विशेष धर्म की मर्यादाओं और विचारों के अनुसार चलाया जाता हो, उस देश में दूसरे धर्मों के साथ समानता वाला व्यवहार किए जाने की आस कैसे की जा सकती है? खालिस्तानी दौर की परछाईं आज भी देश के अंदर और विदेशी धरती पर देखी जा सकती है। अब जबकि भारत को धर्म आधारित देश स्थापित करने के लिए सत्ता पर काबिज राजनीतिक दल अपना पूरा जोर लगा रहा हो, तो फिर इसके नतीजे पहले से भी ज्यादा भयानक और खतरनाक निकलने स्वाभाविक हैं। समाजवाद का शब्द उस संघ परिवार को कैसे अच्छा लग सकता है जो भारत के अंदर 26 जनवरी 1950 में लागू किए गए संविधान को अंग्रेजी साम्राज्य से भी पहले सामाजिक और राजनीतिक ढांचे ‘राजशाही’ में तबदील करने के लिए प्रतिबद्ध है। राजशाही जो किसी भी धर्म या व्यक्ति के नाम पर चलाई जा रही हो, सदैव ही जनविरोधी, लोगों को मारने वाली और गैर-लोकतांत्रिक होती है।
ऐसी व्यवस्था के अंदर विज्ञान और तर्क आधारित शिक्षा का प्रसार करने की जगह देश को वहमप्रस्ती, अंधविश्वास और कर्मकांडी विचारधारा के अनुसार चलाया जाता है। ऐसे ढांचे में धार्मिक अल्पसंख्यकों, दलित वर्ग, औरत जाति और समानता वाला समाज बनाने के लिए संघर्षशील लोग हमेशा ही शासकों के प्रकोप का शिकार बनते हैं। ‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’ का विचार देश के लोकतांत्रिक और संघात्मक ढांचे को तानाशाही की ओर ले जाने का ही एक पड़ाव है। शैक्षणिक पाठ्यक्रमों में से वैज्ञानिक नजरिए को गायब कर मिथक कहानियों से भरा जा रहा है। मोदी सरकार हर कार्य को एक खास किस्म की धार्मिक रंगत देकर साम्प्रदायिक विचारधारा को और गहरा करना चाहती है। देश के लिए ऐसी चिंताजनक स्थिति कितनी देर रहेगी या फिर इसे अच्छी दिशा की ओर कब मोड़ दिया जाएगा इस प्रश्न का जवाब देश के अंदर मौजूद धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक और वामदलों के संयुक्त प्रयासों से ही मिल सकता है।-मंगत राम पासला