राजनीति में अब नैतिकता के सारे प्रश्न डूब रहे

punjabkesari.in Sunday, Aug 28, 2022 - 06:33 AM (IST)

सी.बी.आई., ई.डी. के छापों की भरमार के बीच उसको काऊंटर करने की राजनीति का एक नया प्रयोग सामने आ रहा है। लेकिन इस प्रयोग के साथ एक बात तो साफ हो रही है कि भारतीय राजनीति में अब नैतिकता के सारे प्रश्न डूब रहे हैं। इसका पूरा असर समाज पर है। भले ही वह कितनी भी अनदेखी करे। ये डूब रहे प्रश्र अचानक से एक दिन फिर निकल खड़े होंगे और पूरे समाज से जवाब मांगेंगे। क्या नैतिकता की बात करना भी अब बेकार की बात होगी। सच-झूठ, काऊंटर सच-झूठ को जाति, प्रदेश की अस्मिता से जोड़ कर नैतिकता को दलदल में दबा दिया जा रहा है ताकि कोई सच को जान ही न सके। 

बिहार में राष्ट्रीय जनता दल की कमान जिस परिवार के पास है, वह लंबे समय से भ्रष्टाचार के मामलों में जांच एजैंसियों के सवालों से जूझ रहा है। इसलिए भ्रष्टाचार इस परिवार के लिए कोई नया मुद्दा नहीं। उनके लिए मुद्दा और मापदंड अलग हैं। इसकी झलक हमें बार-बार देखने को मिलती है और बुधवार को बिहार विधानसभा में भी देखने को मिली। 

राजद नेता तेजस्वी यादव ने पूरे मामले को उलटते हुए अपने भाषण में कहा, ‘‘आज हम जिस देश और राज्य में हैं- वहां हमारे पास दो ही विकल्प हैं। पहला तो यह कि सामाजिक तनाव बढ़ते हुए, देश को विनाश की ओर जाते हुए देखें या फिर एक-दूसरे का हाथ पकड़कर गांधी, लोहिया, जे.पी. और बाबा साहब के देश को इस नफरत से बचा लें। ...हमने तो अपने पुरखों के काम को चुना और हम इसके लिए प्रतिबद्ध हैं। इस देश में अशांति का माहौल बनाने की कोशिश की गई तो हम किसी भी दंगाई को नहीं बख्शेंगे।’’ 

यह भाषण जिस समय बिहार विधानसभा में हो रहा था, उस वक्त सी.बी.आई. देश भर में तेजस्वी सहित इस पार्टी के नेताओं के 25 ठिकानों को ‘जमीन के बदले नौकरी’ मामले को खंगाल रही थी। जो नेता गांधी, लोहिया और बाबा साहब के विचारों की बात कर रहा है, उसकी पार्टी बिहार में ‘जंगल राज’ के लिए बदनाम है। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि भारतीय राजनीति में नैतिकता के प्रश्न कहां खड़े हैं। यह भी हमें पता है कि इन छापों से आर.जे.डी. या लालू जी के वोट बैंक पर कोई फर्क नहीं पडऩे वाला। यह वोट बैंक नैतिकता के सवाल से ऊपर उठ चुका है। 

पड़ोसी झारखंड में ई.डी. के छापों के बीच पता चलता है कि अंडों की सप्लाई करने वाला न जाने क्या-क्या सप्लाई करता था और न जाने क्या-क्या लाभ उठाता था। यह सबको पता है कि मुख्यमंत्री का पद तो क्षणिक होता है और उसको बचाने की कोशिश अब आदिवासियों की अस्मिता के आवरण पर हो रही है। बसपा प्रमुख मायावती का वोटबैंक इस लिए उनसे नहीं खिसका कि उन पर प्रत्याशियों से करोड़ों करोड़ लेने के आरोप लगे। उनके लिए यह प्रतिष्ठा का मामला रहा कि जो काम बड़े लोग या ऊंची जाति के लोग करते रहे हैं, वो बहन जी भी कर सकती हैं। 

गुजरात सरकार एक तरफ आजादी के अमृतकाल का महोत्सव बना रही थी तो दूसरी तरफ बीस साल पुराने बिलकिस बानो गैंगरेप के सजायाफ्ता 11 लोगों को आम माफी दे रही थी। गैंगरेप के दोषियों को आम माफी देने वाली भाजपा वर्ष 2012-13 में बलात्कारियों को सजाए-मौत की मांग करने में सबसे आगे थी। पक्षकार कह सकते हैं कि कानून के अनुसार राज्य सरकार से गठित कमेटी सजा माफ कर सकती थी और उसको यह हक भी है लेकिन सामाजिक नैतिकता भी कोई चीज होती है। 

दिल्ली में ‘निर्भया’ की मौत के बाद 29 दिसम्बर 2012 को लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने सदन में कहा कि बलात्कार और हत्या में दोषी पाए गए लोगों को फांसी की सजा दी जानी चाहिए। उन्होंने लोकसभा में नेता सदन गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे से सामूहिक बलात्कार की घटना पर चर्चा के लिए सर्वदलीय बैठक बुलाने की मांग की। इसके अलावा उसी दिन उन्होंने ट्विटर पर लिखा, ‘मैंने 10 फरवरी 2011 को (बलात्कारी हत्यारों के लिए) फांसी की जो मांग की थी, उसे फिर दोहरा रही हूं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मेरा अनुरोध है कि महिलाओं के खिलाफ अपराधों से निपटने के लिए कड़े कानून बनाने के मकसद से संसद का विशेष सत्र बुलाया जाए।’ गुजरात शासन का यह कदम प्रधानमंत्री की उस भावना के बिल्कुल विपरीत था जो उन्होंने लाल किले की प्राचीर से महिलाओं को लेकर व्यक्त की थी। 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण की शुरूआत रानी लक्ष्मीबाई और बेगम हजरत महल सहित सभी महिला सेनानियों को श्रद्धांजलि से की। प्रधानमंत्री ने कहा, ‘‘हमारे आचरण में बदलाव आ गया है। हम कई बार महिलाओं का अपमान करते हैं। क्या हम अपने व्यवहार में इससे छुटकारा पाने का संकल्प ले सकते हैं। हमें यह सुनिश्चित करने की जरूरत है।’’ नेता और राजनीतिक दल भले ही नैतिकता के यक्ष प्रश्नों को दरकिनार करने की लाख कोशिश करें मगर जनता के मूड और दबाव से देश की अदालतें ऐन मौके पर अपना दायित्व निभाती हैं। सर्वोच्च न्यायालय ऐसे में उन सभी प्रश्नों को फिर से खड़ा कर देता है। कोई याचिका या स्वत: संज्ञान नेताओं को कटघरे में ले आता है।-अकु श्रीवास्तव 
 


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