अब देश में शुरू हुई ‘दंगा पॉलिटिक्स’

punjabkesari.in Tuesday, Jun 14, 2022 - 06:26 AM (IST)

बीते दौर में किसी शायर ने कहा था कि ‘बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी’, लेकिन आज की परिस्थितियों में तो लगता है कि बात निकलेगी तो हिंसा तक जाएगी। टी.वी. डिबेट में किसी राजनीतिक दल की एक कार्यकत्र्ता द्वारा सामने वाले पैनलिस्ट की बात के प्रत्युत्तर में कहे गए वचन देश के कुछ हिस्सों में ङ्क्षहसा का कारण बन जाएंगे, यह अपने-आप में बेहद चिंताजनक है। 

पहले उत्तर प्रदेश के कानपुर, फिर प्रयागराज, सहारनपुर, देवबंद, हाथरस जैसी जगहों से लेकर रांची और हावड़ा में जुम्मे की नमाज के बाद पत्थरबाजी की ताजा घटनाएं स्थिति की संवेदनशीलता दर्शा रही हैं। स्थिति इसलिए भी गम्भीर है क्योंकि हिंसा की ये अधिकतर घटनाएं देश के उस प्रदेश में हुई हैं जिस प्रदेश की सरकार असामाजिक तत्वों के प्रति जीरो टॉलरैंस की नीति अपनाए हुए है। 

जिस प्रदेश में कभी गुंडाराज और माफिया के डर के साए में रहने को आम जनता मजबूर थी, उसमें अब अपराधी डर के कारण अंडरग्राऊंड होने को विवश हैं। लेकिन आज उसी प्रदेश में बच्चे पत्थर फैंक रहे हैं। क्या यह साधारण बात है? छोटे-छोटे बच्चों के हाथों में पत्थर थमा कर उन्हें ढाल बनाने वाले ये लोग कौन हैं? क्या सरकार का डर खत्म हो गया? क्या वे नहीं जानते कि सरकार कठोर कार्रवाई करेगी? सोशल मीडिया में तो लोग यहां तक कहने लगे हैं कि शुक्रवार को पत्थरबाजी का दिन और शनिवार को बुलडोजर का दिन घोषित कर दिया जाना चाहिए। लेकिन फिर भी इन लोगों के हौसले बुलंद हैं। इसे क्या समझा जाए? 

दरअसल पिछले कुछ समय से देश को अस्थिर करने के लगातार प्रयास हो रहे हैं। पहले शाहीनबाग, फिर दिल्ली दंगे, किसान आंदोलन और अब उत्तर प्रदेश के कानपुर, प्रयागराज जैसे शहर। इन सभी जगह विरोध का एक ही  स्वरूप, जिसमें अपने ही देश के नागरिकों और सुरक्षा बलों पर पत्थर फैंके जाते हैं। भले ही इस प्रकार की घटनाएं स्थानीय स्तर पर एक प्रदेश के कुछ हिस्सों में या फिर देश के कुछ इलाकों में ही होती हों, लेकिन इनका प्रचार अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हो जाता है। और फिर शुरू होती है भारत में मानवाधिकारों के हनन और अल्पसंख्यक समुदाय पर अत्याचार जैसे मुद्दों पर बहस।

कहने की आवश्यकता नहीं कि इस सब से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि पर क्या असर होता है। जिस प्रकार से इस ताजा मामले में लगभग 15 मुस्लिम देशों ने भारत सरकार से नाराजगी जताई, वह भारत के लिए एक संवेदनशील विषय बन गया। लेकिन इन विषम परिस्थितियों में भी यह भारत की कूटनीतिक जीत ही कही जाएगी कि इस सब के बावजूद भारत के इन देशों के साथ सम्बन्धों पर कोई असर नहीं पड़ा। 

सरकार तो खैर अपना काम कर रही है, लेकिन वह बच्चा, जिसके हाथों में पैन की जगह पत्थर पकड़ा दिए गए, वह राजनीति और कूटनीति तो छोडि़ए, अपना खुद का अच्छा-बुरा भी नहीं समझता। इन बच्चों की छोडि़ए, इससे पहले सी.ए.ए. के विरोध प्रदर्शन में शामिल अधिकतर लोग उस कानून के बारे में नहीं जानते थे। किसान आंदोलन में अधिकांश किसान उन कानूनों को नहीं समझते थे, लेकिन इन तथाकथित ‘काले कानूनों’ के विरोध में सड़कों पर थे। 

कहने का मतलब यह है कि देश-विरोधी ताकतों के लिए इस देश की भोली-भाली जनता उनका हथियार है- कभी किसानों के रूप में तो कभी बच्चों के रूप में, कभी विद्याॢथयों के रूप में तो कभी किसी समुदाय विशेष के रूप में। मुस्लिम समुदाय तो देश की आजादी से लेकर आज तक किसी भी राजनीतिक दल के एक वोट बैंक से अधिक कुछ नहीं रहा।  लेकिन अब समय आ गया है कि जुम्मे की नमाज के बाद देश के विभिन्न स्थानों पर हुई हिंसक घटनाओं के बाद मुस्लिम समुदाय के देश के पढ़े-लिखे लोग आगे आएं और इस प्रकार की घटनाओं के पीछे की राजनीति को बेनकाब करें, ताकि देश का मुसलमान देश-विरोधी ताकतों के हाथों की कठपुतली बन कर देश को कमजोर करने की बजाय देश का मजबूत स्तम्भ बने। 

आखिर हमें यह याद रखना चाहिए कि लोकतंत्र और देश का संविधान देश के नागरिकों को विरोध करने का अधिकार देता है तो देश की अखंडता एवं संप्रभुता की रक्षा करने का उत्तरदायित्व भी देता है। दरअसल अंतर्राष्ट्रीय न्यायिक सम्मेलन-2020 में अधिकारों और कत्र्तव्यों के विषय पर चर्चा करते हुए सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का भी मत था कि लोगों द्वारा कत्र्तव्यों का निर्वाह किए बिना सिर्फ अधिकारों की मांग करना संविधान की मूल भावना के खिलाफ है। अधिकार एवं कत्र्तव्य एक-दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरे की कल्पना भी नहीं की जा सकती। अत: जरूरी है कि हम संविधान द्वारा प्रदत्त विरोध के अधिकार का प्रयोग करें तो वह संविधान में वर्णित हमारे कत्र्तव्यों में बाधा न डाले। इससे पहले कि देश-विरोधी ताकतें अपने मंसूबों में कामयाब हो जाएं, अपनी सुविधानुसार संविधान का उपयोग करने के इस चलन को कठोर कदम उठाकर रोकना होगा।-डा. नीलम महेंद्र 
 


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