खेलों में मैडल जीतना इतना भी कठिन नहीं

punjabkesari.in Saturday, Aug 27, 2016 - 01:46 AM (IST)

(पूर्ण चंद सरीन): यह सत्य है कि जिस प्रकार किसी व्यक्ति में यह प्रतिभा जन्मजात होती है कि वह बड़ा होकर श्रेष्ठ कलाकार बनेगा, उसी प्रकार श्रेष्ठ खिलाड़ी बनने की  प्रतिभा भी जन्मजात होती है हालांकि कला और खेलों के प्रति रुचि प्रत्येक व्यक्ति में होती है। जरूरी यह है कि कला हो या खेलकूद, इस प्रतिभा को पहचान कर उसे इस प्रकार तराशना होता है कि वह हीरे की भांति चमक पैदा कर सके। क्या हमारे पास कोई ऐसी व्यवस्था है कि किसी व्यक्ति में खेलकूद में कीर्तिमान स्थापित करने की जन्मजात प्रतिभा को पहचान सकें? जिन देशों ने अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में मैडल पाए हैं उनमें इस प्रकार की प्रतिभा वाले खिलाडिय़ों को पहचान कर भली-भांति प्रशिक्षित कर प्रतियोगिता में उतारा गया और वे मैडल लाने में सक्षम हुए।

 
जहां तक हमारे देश की बात है चाहे एशियन खेलें हों, राष्ट्रमंडल खेल हों या ओलिम्पिक, उसके शुरू होने से कुछ समय पहले ही हम सोचते हैं कि हमें अपनी टीम को भेजना है और आधी-अधूरी तैयारी के साथ कुछ एक खिलाडिय़ों का चुनाव हो जाता है तथा भेज दिया जाता है। इन मुठ्ठीभर खिलाडिय़ों  में ज्यादातर वही होते हैं जो अपनी प्रतिभा को बचपन में ही पहचानकर एकलव्य की भांति अपने ही बलबूते पर मनपसंद खेलों  में पहचान बनाने की महत्वाकांक्षा पूरी करने की दिशा में लगे रहे हैं। 
 
जब उन्होंने पदक हासिल किए तो समाज हो या सरकार, उनकी वाहवाही में जुट गए। इन पर धन और सुविधाओं की वर्षा होने लगी और यहां तक कि सरकारों ने उन्हें नौकरी देने की पेशकश भी कर दी। जरा सोचिए? बैडमिंटन खिलाड़ी पी.वी. सिंधू को मुख्यमंत्री ने डिप्टी डायरैक्टर का पद देने की पेशकश की तो सिंधू के इंकार करने पर उनके सम्मान को कितनी ठेस पहुंची होगी। उसी प्रकार हरियाणा के मुख्यमंत्री ने साक्षी को नौकरी देने का लालच दिया। यही सबसे आसान तरीका है किसी भी खिलाड़ी के खिलाड़ीपन को समाप्त कर देने का।
 
यहां यह जरूरी हो जाता है कि जब हम किसी खिलाड़ी से पदक लाने की उम्मीद रखते हैं तो उसके खिलाड़ीपन को जिंदा रखना भी जरूरी हो जाता है। अब हमारे यहां आज तक खेलों को लेकर कोई ऐसे स्कूल नहीं बन पाए हैं जहां खिलाडिय़ों की प्रतिभा  को निखारने के लिए सुनियोजित पाठ्यक्रम पढ़ाए जाते हों, कोई अच्छा स्पोट्र्स स्कूल या विश्वविद्यालय होना तो दूर की बात है क्योंकि नौकरी चाहे कैसी भी हो, फाइलों और नौकरशाही में फंसकर खिलाड़ी को खेलना याद ही नहीं रहता। 
 
याद कीजिए हमने फ्लाइंग सिख मिल्खा सिंह और हॉकी के जादूगर ध्यानचंद से लेकर आज तक कितने व्यक्तियों को ऐसी सुविधाएं प्रदान की हैं जिन्हें पदक जीतने के बाद केवल संबंधित खेल को आगे बढ़ाने का कार्य सौंपा गया हो? उदाहरण के तौर पर अंतर्राष्ट्रीय मंच पर एक दर्जन से ज्यादा पदक पाने वाले पहलवान शौकेन्द्र को तंगहाली के कारण अपना मैडल बेचने को मजबूर होना पड़ा, वहीं एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीतने वाले सरवन सिंह को भी अपना मैडल बेचना पड़ा। 
 
इतना ही नहीं, हॉकी खिलाड़ी गोपाल भैंगरा को 50 रुपए दिहाड़ी और डुंगडुंग को चौकीदार की नौकरी करनी पड़ी। इतना ही नहीं, आर्थिक तंगी के कारणकराटे की अंतर्राष्ट्रीय खिलाड़ी वंदना को चाय और सीतासाहू को सड़कों पर गोल-गप्पे बेचने पड़ रहे हैं। हालांकि सरकार ने इनकी आॢथक मदद करने का ऐलान तो कर दिया है लेकिन अब तक कोई सुविधा मुहैया नहीं कराई है। अब ये केवल कुछ एक लोगों की कोशिशों का नतीजा है जैसे कि पुलेला गोपीचंद जिन्होंने अपने बलबूते पर सर्वश्रेष्ठ बैडमिंटन खिलाडिय़ों का निर्माण करने का बीड़ा उठाया। विडम्बना यह है कि सरकार ने उन्हें कुछ एकड़ जमीन देकर वाहवाही लूट तो ली लेकिन उस जमीन पर एकैडमी खोलने में गोपीचंद को 6 साल लग गए। 
 
जरा सोचिए अगर ये 6 साल बच जाते तो अब तक वह कितने बैडमिंटन खिलाड़ी देश को दे चुकेहोते। यही हाल दूसरे खेलों का है। मिसाल के तौर पर कुश्ती के विश्व प्रसिद्ध नायक गुरु हनुमान ने पुरानी दिल्लीकी एक छोटी-सी बस्ती में व्यायामशाला खोल कर धुरंधर खिलाड़ी देश को दिए जिसमें सतपाल और सुशील हैं। ये सब उनके व्यक्तिगत प्रयास का ही नतीजा था।
 
हम यह भूल जाते हैं कि हारना-जीतना उतना महत्वपूर्ण नहीं जितना  यह है कि हमारे खिलाडिय़ों ने कैसे अपना खेल खेला। उदाहरण के लिए दीपा को चाहे कोई पदक न मिला हो लेकिन उसने खेल की दुनिया में अपनी अमिट छाप छोड़ दी।
 
ओलिम्पिक में गए 67 खिलाडिय़ों पर 30 करोड़ रुपए खर्च हुए। अब श्रेष्ठ खिलाडिय़ों को 19 करोड़ रुपए पुरस्कार देेने की घोषणा कर दी गई है। क्या इन पुरस्कारों के साथ यह शर्त नहीं रखी जा सकती कि ईनाम की राशि का कुछ प्रतिशत संबंधित खेल की एकैडमी बनाने और नए खिलाडिय़ों को संवारने में लगाया जाएगा जैसा कि सिंगापुर में पुरस्कार के साथ-साथ यह शर्त होती है कि उस राशि का 20 प्रतिशत वह खिलाड़ी खेल के विकास के लिए खर्च करेेगा।
 
साधनों का अभाव नहीं: ऐसा नहीं है कि हमारे यहां खिलाडिय़ों को तैयार करने के लिए धन की कोई कमी है। जब यह देश क्रिकेट जैसे खेल के खिलाडिय़ों को करोड़ों में खिला सकता है तो अन्य खेलों के प्रतिभावान खिलाडिय़ों को अंतर्राष्ट्रीय खेलों में पदक दिलवाने से भी नहीं चूकेगा।
 
हमारी हालत तो यह है कि अगर मान लीजिए किसी वजह से नंबर एक खिलाड़ी क्वालीफाई करने से रह जाता है तो हमारे पास शायद ही उसकी जगह लेने के लिए दूसरे या तीसरे नंबर पर कोई खिलाड़ी उपलब्ध हो। यानी कि हम एक ही खिलाड़ी तैयार करते हैं और कहीं वह रह गया तो हम भी खाली हाथ वापस आ जाते हैं। जहां तक बजट की बात है हमारा बजट यदि 1600 करोड़  का है तो ब्रिटेन का 9 हजार करोड़ का है जबकि हम उम्मीद यह करते हैं कि ब्रिटेन के बराबर ही हमें पदक मिलें। अब तक 30 ओलिम्पिक खेलों में हमने 28 पदक हासिल किए हैं जबकि फेल्प्स अकेले ने  ही उतने पदक लिए हैं।
 
ऐसा नहीं है कि खेलों में पदक हासिल करना आसमान के तारे तोड़ लाने जैसा है क्योंकि जन्मजात प्रतिभा संपन्न खिलाड़ी तो हर देश में होते हैं बस उन्हें तराशना रह जाता है। हमारे यहां जब तक खेलकूद के लिए पर्याप्त सुविधाएं नहीं होंगी, खिलाडिय़ों के कौशल विकास के लिए उचित इंतजाम नहीं होंगे, उन्हें प्रशिक्षण देने वाले ट्रेनर्स का चुनाव कर उन्हें भी प्रशिक्षित करने की व्यवस्था नहीं होगी और विभिन्न खेलों के लिए विशेष खेलकूद विद्यालय स्थापित नहीं होगा तथा खिलाडिय़ों के खान-पान, उनके रहन-सहन और स्वास्थ्य को खेलों में भाग लेने योग्य बनाए रखने के लिए नीति नहीं बनेगी तब तक यह उम्मीद करना व्यर्थ है कि आशा के मुताबिक पदक पा सकेंगे जैसा कि इस ओलिम्पिक में हमें कम से कम 12 या 19 पदक की उम्मीद थी लेकिन मिले केवल दो। इससे बड़ा मजाक और क्या होगा कि आज के दौर में कोई ग्राम पंचायत अपना खेल का मैदान विकसित करना चाहती है तो मात्र एक लाख रुपए की राशि दी जाती है। छात्रवृत्ति के नाम पर हम 500 रुपए से आगे नहीं बढ़ पाए हैं। 
 
क्या कारण है कि 2013-14 में 223 खेल संघ घटकर केवल 57 रह गए हैं। औसतन रियो ओलिम्पिक में प्रत्येक खिलाड़ी पर लगभग 5 लाख रुपए खर्च किए गए। इतिहास में सबसे अधिक 2400  से ज्यादा ओलिम्पिक मैडल जीतने वाला अमरीका खेलों पर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 22 रुपए खर्च करता है। वहीं ब्रिटेन 50 पैसे प्रति व्यक्ति प्रतिदिन और जमैका 19 पैसे प्रति व्यक्ति प्रतिदिन खेलों पर खर्च करता है। अब हर आदमी पर हर रोज 3 पैसे खर्च करके कितने ओलिम्पिक मैडल लाए जा सकते हैं।
 
क्रिकेट की भांति इन खेलों का भी व्यवसायीकरण किया जाना चाहिए। वैसे भी अनेक औद्योगिक घराने सी.एस.आर. के नाम पर और कुछ अपने मन से विभिन्न अकादमियों और संस्थाओं को वित्तीय सहायता देते रहते हैं। यदि उन्हें व्यवसाय की भांति आमंत्रित किया जाए तो वे सहर्ष इसमें अपना योगदान करने को तत्पर हो जाएंगे क्योंकि तब वे इसे आमदनी और मुनाफे का जरिया समझने लगेंगे तथा सरकार का प्रोत्साहन मिलेगा तो इन खेलों के खिलाडिय़ों को समुचित अवसर मिलने के साथ-साथ उनकी माली हालत भी मजबूत होगी और इस तरह वे इन खेलों को अपना करियर बनाने की दृष्टि से देखने लगेंगे, जैसा कि अमरीका और यूरोप के देशों में होता है। जहां क्रिकेट को कोई जानता नहीं लेकिन बैडमिंटन, हॉकी, बास्केटबाल और वालीबॉल जैसे खेलों को कोई भूलता नहीं। 
 
उल्लेखनीय यह है कि आज इन देशों ने पदक तालिका में सर्वोच्च स्थान बनाया हुआ है उसे पाने के लिए उन्हें 20 से 21 वर्ष लगे हैं, इसलिए जरूरी यह है कि दूरगामी खेल नीति बनाकर प्रतिभावान खिलाडिय़ों की हर संभव सहायता करें, सुविधाएं प्रदान करें तभी विश्व में पहले से लेकर पांचवें स्थान पर रहने योग्य हो सकते हैं। 
 

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