उम्र का तकाजा बेशक हो, स्वस्थ रहकर जीना एक कला है
punjabkesari.in Saturday, Oct 02, 2021 - 04:11 AM (IST)

उम्र का बढ़ना जन्म से ही निर्धारित और शुरू हो जाने वाली सामान्य प्रक्रिया है जिसे रोकना असंभव है। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, शरीर अपना आकार यानी लंबाई, चौड़ाई, ऊंचाई, शारीरिक गठन, मानसिक स्वास्थ्य और काम करने की ऊर्जा प्राप्त करता जाता है। बचपन, यौवन और वृद्धावस्था अर्थात शरीर का भरपूर उपयोग करने के बाद सम्पूर्ण परिपक्वता की स्थिति आती है तो यह सोच बनने लगती है कि अब बहुत हुआ, बहुत जी लिए, जो करना था या जैसी नियति या भाग्य था, वह सब कर लिया, अब शांति या मुक्ति मिले और प्रभु के चरणों में स्थान प्राप्त हो।
जीवन और मरण अपने हाथ में नहीं होने से उम्र के उस पड़ाव पर पहुंचने के बाद जिसमें करने के लिए न तो कुछ हो और न ही कुछ करने की इच्छा हो लेकिन उम्र का खाता बंद न हो रहा हो और अपने को असहाय, बेचारा समझने और दूसरों पर निर्भर रहने की स्थिति हो जाए तो मन उदास रहने लगता है, शरीर तथा मस्तिष्क दोनों ही ढीले पडऩे लगते हैं। तो क्या जीवन अगर बाकी है तो उसे आनंद लेते हुए और मनोरंजन के साथ नहीं जीना चाहिए, यह प्रश्न उन लोगों को अपने आप से करना जरूरी हो जाता है जो पहले की तरह स्वतंत्र, मुक्त और बेफिक्र होकर जिंदगी व्यतीत करना चाहते रहे हैं? सन् 1950 में जहां एक भारतीय की औसत आयु 35 वर्ष थी वहां अब यह दोगुनी होकर 70 तक पहुंच गई है। इसका अर्थ यह हुआ कि इसके बाद भी 80 से 100 वर्ष तक जीने की कल्पना की जा सकती है। इसी तरह दुनिया में ऐसे बहुत से देश हैं जिनमें औसत आयु 80-85 वर्ष है अर्थात वहां रहने वाले सौ साल से अधिक जीने के बारे में सोच सकते हैं।
इन देशों में ऐसे देश भी हैं जिनमें शुद्ध वायु, हरियाली और प्राकृतिक रूप से जीवन बिताने की अपार संभावनाएं हैं और इसके विपरीत कनाडा, हांगकांग जैसे भी देश हैं जो प्रदूषण के मामले में काफी आगे हैं। इसका मतलब यह हुआ कि कुदरत की नियामत के कारण तो लंबी उम्र हो ही सकती है लेकिन औद्योगिक देशों में प्राकृतिक संतुलन बिगड़ जाने पर भी सौ या इससे अधिक का जीवन होना सामान्य बात हो सकती है। क्या इसका अर्थ यह नहीं है कि उम्र का ताल्लुक हमारी सोच और जिंदगी जीने के तरीके पर ज्यादा निर्भर करता है बजाय इसके कि हम कहां रहते हैं, हमारी भौगोलिक स्थिति कैसी है, प्राकृतिक संसाधनों के मामले में कितने मालामाल हैं! इसके स्थान पर इस बात का अधिक महत्व है कि किसी भी देश के वासियों की सोच कैसी है, वहां स्वस्थ रहने के प्रति कितनी जागरूकता है और इसके साथ ही चिकित्सा संबंधी सुविधाओं की क्या स्थिति है?
अगर सोच यह है कि अब तो बस जैसे-तैसे जीना है, मन का हो जाए तो ठीक, न हो तो वह भी ठीक या फिर अपनी इच्छाओं के पूरा न हो पाने या अपनी मर्जी के अनुसार कुछ न कर सकने का आरोप परिवार या समाज पर डाल देना, तो यह किसी भी दृष्टि से सही नहीं है। जीवन जब अपना है तो उसे जीने का तरीका भी अपना होना चाहिए, इसमें अगर परिवार को आपत्ति है या समाज उसमें कुछ रुकावट पैदा करता है तो उसकी अनदेखी करने में ही भलाई है क्योंकि तब आप दूसरों के भरोसे रहने या हर बात में उनकी राय लेकर कोई भी काम करने से मुक्त हो जाएंगे।
स्वास्थ्य संबंधी सुविधाएं
जिन देशों में सेहत पर ध्यान उनमें रहने वालों से अधिक सरकार और प्रशासन की तरफ से ज्यादा दिया जाता है, उनमें स्वास्थ्य संबंधी सुविधाओं को सामान्य व्यक्ति के लिए बहुत ही सुलभ और कम खर्चीला बना दिया गया है। वहां उम्र का बढऩा और उसे खुश रहकर गुजारना एक साधारण-सी बात है। इसके विपरीत जिन देशों में जैसे कि अपने ही देश में स्वास्थ्य को लेकर आज तक कोई मजबूत ढांचा नहीं बन पाया है, वहां के नागरिकों को मजबूरी में सरकार की नाकामी का नुक्सान उठाना पड़ता है। हमारे देश में अब जाकर यह व्यवस्था करने की सुध ली गई है कि प्रत्येक नागरिक के स्वास्थ्य का डिजिटल रिकार्ड रखा जाए लेकिन यह कहीं सुनिश्चित नहीं किया गया है कि उम्रदराज व्यक्ति को यदि कोई बीमारी हो या सेहत संबंधी कोई परेशानी हो तो वह बिना किसी अतिरिक्त बोझ के अपने को कैसे स्वस्थ रख सकता है? महंगा इलाज उसे प्रेरित ही नहीं करता कि वह अपनी सेहत का ध्यान रखे और इस हालत में वह लंबी उम्र को वरदान नहीं बल्कि अभिशाप समझने लगता है।
अपनी सेहत अपने हाथ
अक्सर आपने देखा होगा कि फिल्म या नाटक का कोई अभिनेता अपने से आधी उम्र की अभिनेत्री के साथ अभिनय करते हुए अटपटा नहीं लगता बल्कि दोनों की उम्र पर ध्यान न दें तो बहुत ही सामान्य और स्वाभाविक लगता है। एेसा क्यों होता है? इस बारे में यदि विश्लेषण करेंगे तो पता चलेगा कि बड़ी उम्र के अभिनेता ने अपनी सोच को इस तरह मोड़ दे दिया कि वह अपने को अपने सह-कलाकार की ही उम्र का सोचकर अभिनय करने लगता है। उसकी यह सोच ही उसे उम्र के फासले पर ध्यान न देने के लिए प्रेरित करती है और यही प्रेरणा उसकी दिनचर्या का अंग बन जाती है। ऐसे व्यक्ति को हम सदाबहार, चिरयुवा और उम्र का असर न दिखाई देने वाला व्यक्ति मानकर उसकी प्रशंसा करते हैं।
बढ़ती उम्र में यदि इसी सोच के साथ जीने की कोशिश की जाए कि हमारी सोच अभी भी वैसी है जैसी कि तब थी जब हम अब से आधी उम्र के थे तो वृद्धावस्था का डर नहीं रहेगा और व्यक्ति आनंदपूर्वक जी सकेगा। अपने शौक हों या कोई भूली बिसरी इच्छा हो अथवा घूमने-फिरने, नई जगहों पर जाने का मन हो, यहां तक कि अपने रिश्तों का दायरा बढ़ाने की इच्छा हो तो इस उम्र में पीछे मुड़कर न देखना और उम्र को मनोरंजन की एक शैली मानते हुए जीना ही सबसे बेहतर है। और अब तो सरकार भी रिटायर्ड लोगों को नौकरी देने के बारे में सोच रही है क्योंकि उम्र कभी भी युवा होने की सोच पर हावी नहीं हो सकती। उम्र के असर से बचकर रहना है तो अपने खाने पीने, सोने जागने, सेहत का ध्यान रखते हुए अपने शरीर और मन की जांच पड़ताल कराते हुए ही जीना सर्वश्रेष्ठ है।-पूरन चंद सरीन