‘यूज एंड थ्रो’ की राजनीति के चैम्पियन हैं नीतीश

punjabkesari.in Thursday, Jul 27, 2017 - 11:36 PM (IST)

‘‘मैं मिट जाऊंगा पर फिर भाजपा के साथ नहीं जाऊंगा’’, यह बयान नीतीश कुमार का था। आज एक बार फिर नीतीश कुमार भाजपा की गोद में बैठ गए हैं। नीतीश कुमार और भाजपा का यह गठबंधन सिर्फ और सिर्फ अनैतिक है और जनादेश की कसौटी पर अविश्वसनीय है, बिहार की जनता के साथ धोखा है? आखिर क्यों? इसलिए कि बिहार की जनता ने पिछले विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार को भाजपा के साथ सरकार बनाने का जनमत नहीं दिया था। 

अगर नीतीश कुमार को लालू प्रसाद यादव के साथ सरकार चलाने में परेशानी आ रही थी और लालू प्रसाद यादव और उनके परिजनों के भ्रष्टाचार से उनकी छवि खराब हो रही थी तो फिर नीतीश के सामने और भी रास्ते थे, जिस पर उन्हें चलना चाहिए था पर उन्होंने अन्य रास्ते तलाशे ही नहीं, अगर अन्य रास्ते तलाशे होते तो फिर भाजपा के साथ गठबंधन करने के लिए उन्हें मजबूर नहीं होना पड़ता। वह विधानसभा भंग करने की सिफारिश कर सकते थे, फिर से जनता के बीच जा सकते थे। अगर वह सही में ईमानदारी के प्रतीक हैं तो फिर जनता के बीच जाने से उन्हें डर क्यों था, वह जनता के बीच क्योंं नहीं गए, उन्हें जनता के बीच जाना चाहिए था। जनता से जनादेश लेकर फिर से सत्ता में आना चाहिए था। 

राजनीति में जनता के बीच जाने से वही लोग डरते हैं जिन्हें फिर से चुनकर आने पर संदेह होता है और जिनका कार्य जनहित के विपरीत होता है। नीतीश कुमार अपने आप को जितना भी सुशासन बाबू कह लें, अपने आप को ईमानदारी का प्रतीक बता लें पर यह सच है कि उन्हें जनता के बीच जाने से डर लगता है, सत्ता खोने का डर उनके सिर पर नाचते रहता है। राजनीतिक तथ्य को देख लीजिए। निश्चित तौर पर नीतीश कुमार ने भजन लाल को भी अनैतिकता और अविश्वसनीयता की कसौटी पर मात दे दी है। जिस भाजपा को सांप्रदायिक कह कर नीतीश कुमार ने 18 साल सत्ता और गठबंधन का सुख भोगने के बाद गठबंधन तोड़ दिया था आज उसी भाजपा के साथ उन्होंने फिर से दोस्ती कर ली है। उनकी दोस्ती को जायज ठहराने वाले लोगों की कमी नहीं है पर भारतीय लोकतंत्र की शुचिता के लिए ऐसे अवसर की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। 

नीतीश कुमार राजनीतिक तौर पर परजीवी हैं। परजीवी क्यों ? परजीवी इसलिए कि उन्होंने अपनी बदौलत कभी भी बिहार की राजनीति में खड़े होने की कोशिश ही नहीं की। कभी न कभी उन्हें वैसाखी की जरूरत पड़ती है, उन्हें आसानी से राजनीतिक वैसाखी भी मिल जाती है। राजनीतिक वैसाखी की बदौलत वह अपनी सत्ता सुनिश्चित करते हैं और फिर अपनी ताकत बना कर उस वैसाखी को कब्र में दफना देते हैं। दूसरे शब्दों में यह कह सकते हैं कि नीतीश कुमार यूज एंड थ्रो की राजनीति के चैम्पियन हैं। नीतीश कुमार की राजनीतिक यात्रा और उड़ान को देख लीजिए। आपको उत्तर मिल जाएगा। जब जार्ज फर्नांडीज के नेतृत्व में नीतीश कुमार लालू प्रसाद यादव से अलग हुए थे तब नीतीश कुमार की राजनीतिक औकात क्या थी? उस समय लालू की राजनीति उफान पर थी और विपक्ष में भाजपा लालू से लोहा लेती थी। कहने का अर्थ है कि उस समय राजनीतिक औकात सिर्फ लालू के पास थी और भाजपा संघर्षरत थी। 

लालू को समाप्त करने के लिए भाजपा ने नीतीश कुमार को आगे किया। भाजपा की यह बड़ी भूल थी। नीतीश भाजपा के सहारे राजनीतिक सीढिय़ां नापते चले गए। जब उनकी ताकत बढ़ गई तब उन्होंने जार्ज फर्नांडीज को ही पार्टी से बेदखल कर दिया। जार्ज फर्नांडीज और उन सभी नेताओं को नीतीश कुमार ने थ्रो कर दिया जिनके बल पर उनकी राजनीति चमकी थी। नीतीश कुमार की अतिमहत्वाकांक्षा ने कैसा राजनीतिक भूचाल कायम कर दिया था यह भी मालूम है। नीतीश कुमार की देश भर में कोई राजनीतिक जमीन नहीं थी, बिहार में भी उनकी पार्टी वैसाखी के सहारे खड़ी थी फिर भी उन्होंने प्रधानमंत्री बनने का सपना पाल लिया था। जिस भाजपा के सहारे कोई एक-दो साल नहीं बल्कि 18 साल तक सत्ता और गठबंधन सुख भोगा था वही भाजपा उनके लिए सांप्रदायिक हो गई थी। जिस नरेन्द्र मोदी को उन्होंने रेल मंत्री रहते हुए भविष्य का प्रधानमंत्री बताया था वही नरेन्द्र मोदी उनके लिए खलनायक और संहारक हो गए। 

रेल मंत्री के तौर पर गुजरात दंगा नीतीश के लिए कोई खास मायने नहीं रखता था पर प्रधानमंत्री बनने की अति-महत्वाकांक्षा में एकाएक नीतीश को गुजरात दंगा याद आ गया और मुस्लिम आबादी उनके लिए वंदनीय हो गई। इसे तो सिर्फ और सिर्फ अतिमहत्वाकांक्षा और पागलपन ही कहा जाएगा। नीतीश कुमार ने दहाड़ भी मारी थी कि वह नरेन्द्र मोदी को जमींदोज कर देंगे, नरेन्द्र मोदी को किसी भी स्थिति में प्रधानमंत्री नहीं बनने देंगे। देश की जनता ने नीतीश कुमार का यह गुरूर तोड़ दिया था। राजनीतिक बौखलाहट में नीतीश कुमार ने जंगलराज से दोस्ती कर ली थी। बिहार में लालू खानदान को जंगलराज कहते हैं। लालू खानदान से दोस्ती से निकली सत्ता जहरीली और भ्रष्टाचारी हो गई थी, अपराध चरम सीमा पर थे। एक पर एक लालू खानदान के भ्रष्टाचार की कहानियां सामने आई थीं और आ रही हैं। नीतीश कुमार की ईमानदारी दाव पर लगी थी। 

लालू भी लंगड़ी मारने की फिराक में थे। अपने बेटे तेजस्वी को वह राजनीतिक प्रशिक्षण दे रहे थे। जैसे ही तेजस्वी यादव का राजनीतिक प्रशिक्षण पूरा होता और तेजस्वी के पास राजनीतिक अनुभव परिपूर्ण होता वैसे ही लालू नीतीश को लंगड़ी मार देता। नीतीश कुमार भी यह सब समझ चुके थे। उन्होंने देखा कि लालू बाजी न मार ले जाए, उसके पहले ही लालू के पूरे खानदान को दागदार बना दिया जाए। इसी परिपे्रक्ष्य में लालू प्रसाद यादव खानदान की भ्रष्टाचार कहानियां निकलीं। सबको पता है कि नीतीश कुमार ने पहले ही इसकी पूरी योजना बनाई थी।

नरेन्द्र मोदी के साथ उनका मिलना और राष्ट्रपति पद पर भाजपा का समर्थन करने जैसे कदम पहले से ही चॢचत थे। लालू ने भी ठान लिया था कि चाहे जो कुछ भी हो जाए पर उनका बेटा इस्तीफा नहीं देगा। इसके बाद नीतीश कुमार ने अपना खेल खेल दिया। लालू और उनके खानदान की भ्रष्टाचार कहानियों का कोई पक्षधर नहीं होगा और न ही इस कसौटी पर लालू के पक्ष में किसी की भी सहानुभूति होनी चाहिए पर नीतीश कुमार की अविश्वसनीयता और अनैतिकता भी एक गंभीर ङ्क्षचता का राजनीतिक विषय है। 
 


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