देशद्रोह का नया व्याकरण, क्या सरकार स्वतंत्रता पर अंकुश लगा रही है

punjabkesari.in Wednesday, Jun 07, 2023 - 04:18 AM (IST)

विधि आयोग ने देशद्रोह से संबंधित भारतीय दंड संहिता की धारा 124 (क) को बनाए रखने की सिफारिश की है क्योंकि राज्य की सुरक्षा और स्थिरता के लिए कानून द्वारा स्थापित सरकार का अस्तित्व बने रहना एक आवश्यक शर्त है। इस संबंध में 153 वर्ष पुरानी औपनिवेशिक विरासत को निरस्त करने की देश की सुरक्षा और एकता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। इसलिए यह सुनिश्चित करना आवश्यक हो गया है कि सभी विघटनकारी गतिविधियों को पनपने से पहले ही दबा दिया जाए। 

जो कोई भी लिखित या बोले गए शब्दों या संकेतों से या अन्यथा विधि द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घृणा फैलाने या उसकी अवमानना करने या उकसाने या उसके प्रति विद्वेष पैदा करने का प्रयास करता है और जिसका उद्देश्य हिंसा को उकसाना हो या लोक व्यवस्था को भंग करना हो, उसे दंडित किया जाएगा। 

इसके अलावा आयोग ने इस कानून के अंतर्गत सजा को बढ़ाकर आजीवन कारावास या 7 वर्ष तक के कारावास की सजा या जुर्माने का प्रावधान किया है। यह देश विरोधी और विभाजनकारी तत्वों का सामना करने में इस कानून की उपयोगिता को रेखांकित करता है। यह माओवादियों और पूर्वोत्तर तथा जम्मू-कश्मीर में अतिवादियों तथा आतंकवादियों की गतिविधियों का सामना करने के लिए भी उपयोग में लाया जाएगा क्योंकि इस कानून का उद्देश्य ङ्क्षहसा और अवैध साधनों के माध्यम से निर्वाचित सरकार को पलटने के प्रयासों से उसकी सुरक्षा करना है। 

विधि आयोग ने सुझाव दिया कि सरकार को एक नोबल दिशा-निर्देश बनाना चाहिए। देशद्रोह के मामले में प्रथम सूचना रिपोर्ट 7 दिन के भीतर पुलिस इंस्पैक्टर द्वारा प्रारंभिक जांच के बाद ही दायर की जानी चाहिए और उसके बाद ही इसकी अनुमति दी जानी चाहिए। हालांकि आयोग ने इस बात को स्वीकार किया कि राजनेताओं द्वारा इसका दुरुपयोग किया जाता है किंतु इसके लिए आयोग ने अपने राजनीतिक माई-बाप को खुश करने के लिए पुलिस के अति उत्साह को जिम्मेदार बताया। सरकार ने कहा है कि आयोग की सिफारिश सुझाव के रूप में है और यह बाध्यकारी नहीं है तथा सभी हितधारकों से परामर्श कर इस बारे में निर्णय लिया जाएगा। 

उच्चतम न्यायालय ने पिछले वर्ष मई में देशद्रोह कानून पर रोक लगाई थी और कहा था कि यह विद्यमान सामाजिक वातावरण के अनुरूप नहीं है। स्पष्ट है कि न्यायालय एक संतुलन बनाने का कार्य कर रहा है हालांकि वह एक ओर राज्य के सुरक्षा हितों और एकता तथा दूसरी ओर नागरिकों की स्वतंत्रता को भी स्वीकार कर रहा है। नि:संदेह आयोग का निष्कर्ष न्यायालय के आदेश की भावना के विरुद्ध है।

इस धारा का सुनियोजित ढंग से दुरुपयोग किया जाता रहा है, जिसके अंतर्गत लोगों को तब भी गिरफ्तार किया गया, जब ङ्क्षहसा से उनका संबंध सिद्ध नहीं हुआ था। यह हमारे गणतंत्र के मूल्यों और आधारभूत सिद्धान्तों के प्रतिकूल है। आयोग ने इस कानून को सरकार का दर्जा दिया कि मानो यह राज्य हो। इसलिए देशद्रोह का प्रावधान अवधारणा की दृष्टि से भी दोषपूर्ण है। यह उन लोगों की वाक् स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने का साधन है, जो सरकार के विरुद्ध बात उठाते हैं। 

वर्ष 2014 के बाद 13,000 से अधिक ऐसे मामले दर्ज किए गए और अनेक आरोपी जेल में हैं। इनमें से केवल 329 मामलों में दोषसिद्धि हुई है। केवल वर्ष 2019 में देश में इस कानून के अंतर्गत 93 नए मामले दर्ज किए गए। जबकि सरकार का कहना है कि निहित स्वार्थी समूहों द्वारा विभिन्न विचारों के संबंध में अपना एजैंडा लागू करने का प्रयास किया जा रहा है। हम देश को उनकी विचारधारा से बचाना चाहते हैं। भारत और भारत के राष्ट्रवाद पर हमलों को रोकना चाहते हैं। 

तथापि आज भारत स्वयंभू उग्र राष्ट्रवाद की चपेट में है जहां पर आलोचक, बुद्धिजीवी आदि निशाने पर हैं। जीवन एक आधिकारिक संकरी पटरी पर जिया जा रहा है। प्रत्येक ट्वीट, हास्य, व्यंग्य आदि को एक दानव के रूप में माना जाता है और इसके चलते सार्वजनिक बहस निरर्थक सी बनती जा रही है। देश में आज असहिष्णुता बनाम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और व्यक्तिगत पसंद के बारे में बहस चल रही है और यदि यह प्रवृत्ति बिना अंकुश के बढ़ती रही तो समाज विखंडित हो जाएगा। जब भारत आत्मनिर्भरता के पथ पर आगे बढ़ रहा हो तो हमारे नेताओं को 140 करोड़ से अधिक जनसंख्या वाले देश में इस बात को समझना होगा कि यहां पर 140 करोड़ से अधिक विचार होंगे और वह लोगों के मौलिक अधिकारों पर अंकुश नहीं लगा सकती। साथ ही हमें इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि हम भड़काऊ और घृणास्पद तथा संकीर्ण विचारों से बचें। 

फिर इस समस्या का समाधान क्या है? क्या हम व्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाएंगे या कट्टरवादियों को बढ़ावा देंगे? किसी भी व्यक्ति को घृणा फैलाने की या उनके विचारों से हिंसा फैलाने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। उन्हें इस बात को समझना होगा कि कोई भी राष्ट्र दिल और दिमाग का मिलन है और एक भौगोलिक निकाय बाद में। साथ ही हमारे नेताओं को इस बात को समझना होगा कि आलोचना एक जीवंत तथा मजबूत लोकतंत्र का लक्षण है। 

कुल मिलाकर जब सरकार और न्यायालय देशद्रोह कानून के बारे में अंतिम निर्णय लें, तो उन्हें इस बात को ध्यान में रखना होगा कि हमारे देश में प्रक्रियागत सुरक्षोपाय कभी कामयाब नहीं होते क्योंकि यहां पर गिरफ्तार करने की प्रक्रिया अन्य सब प्रक्रियाओं पर भारी पड़ जाती है। इसका एक उदाहरण यह है कि पुलिस ने सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 66 (क) का उपयोग इसको निरस्त करने के काफी समय बाद किया। साथ ही ऐसे मामलों में दोषसिद्धि की दर बहुत कम है। यह बताता है कि ऐसे आरोपों में साक्ष्य नहीं होते। 

विधि आयोग के सुझाव का अनुच्छेद 19 द्वारा प्रदत्त स्वतंत्रता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के संबंध में उच्चतम न्यायालय द्वारा बल दिए जाने के साथ टकराव होता है। इसके अलावा धारा 124 (क) देशद्रोह की स्पष्ट परिभाषा देने में विफल रही है, जिसके चलते इसकी अस्पष्ट व्याख्या की गई है। निश्चित रूप से राज्य को आंतरिक और बाह्य आक्रमण से अपनी रक्षा करने में सक्षम होना चाहिए, किंतु ऐसे कार्य संवैधानिक अधिकारों की कीमत पर नहीं किए जाने चाहिएं। 

साथ ही हमें इस बात को भी समझना होगा कि भारत एक लोकतांत्रिक देश है न कि बहुसंख्यकवादी देश, जहां पर सभी नागरिकों को बुनियादी अधिकार दिए गए हैं। जब लोकतंत्र की बात आती है तो विचारों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सर्वोपरि है और हमारी संवैधानिक व्यवस्था में भी इन्हें अत्यधिक महत्व दिया गया है। यदि हम वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी नहीं दे सकते तो फिर हमारा लोकतंत्र बचा नहीं रह सकता।-पूनम आई. कौशिश
 


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