नेहरू की विचारधारा आज भी भारत के सार्वजनिक जीवन में जीवंत

punjabkesari.in Saturday, May 27, 2023 - 05:50 AM (IST)

देश के लिए अपना सम्पूर्ण जीवन समर्पित करने वाले पं. जवाहर लाल नेहरू की पुण्यतिथि 27 मई को कृतज्ञ राष्ट्र भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित कर रहा है। जिस तरह से उनके कृत्य भारत की मिट्टी में विलीन हैं, उसी प्रकार उनकी विचारधारा आज भी भारत के सार्वजनिक जीवन में जीवंत है। 

उन्हें महान स्वतंत्रता सेनानी के रूप में याद किया जाता है, जिन्होंने ब्रिटिश हुकूमत की जेलों में अपने जीवन का 9 साल से भी ज्यादा समय बिताया और देश के प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में कठिन जिम्मेदारियों को संभाला तथा गरीबी, भूख, अशिक्षा, विभाजन की विभीषिका, संसदीय लोकतांत्रिक संरचना एवं दूसरी कई सारी बड़ी चुनौतियों से पार पाया। यह उनकी सोच का ही परिणाम है कि उन्होंने आई.आई.टी., आई.आई.एम., एम्स, अंतरिक्ष एवं परमाणु संस्थान जैसे कई उत्कृष्ट संस्थानों, प्रयोगशालाओं, अनुसंधान केंद्रों की स्थापना से राष्ट्र निर्माता के रूप में अपनी भूमिका का निर्वहन किया। समृद्धि और रोजगार सृजन की दिशा में उन्होंने भारी उद्योगों और बांधों की स्थापना की। 

राष्ट्रीय चिंतन में वैज्ञानिक स्वभाव के प्रवर्तक, समाजवाद, सामाजिक न्याय और सामाजिक समानता की पहल हो या गुटनिरपेक्ष आंदोलन व पंचशील के प्रवर्तक के रूप में या लेखक,  दार्शनिक और उत्कृष्ट वक्ता के रूप में नेहरू अपनी अचकन में गुलाब का फूल लगाए बच्चों के चाचा के रूप में हों या अपनी इकलौती बेटी इंदू के प्यारे ‘पप्पू’ के रूप में, उन्हें हमेशा लोकतंत्र के प्रबल पैरोकार के रूप में भी याद किया जाता है। आजादी के बाद पिछले 75 वर्षों में सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार पर आधारित चुनावों के माध्यम से केंद्र और राज्यों में सत्ता का शांतिपूर्ण हस्तांतरण इसका जीता-जागता प्रमाण है। 

पंडित नेहरू उस मध्यरात्रि के जादुई क्षणों के नायक थे, जब पूरा भारत आजादी की नई सांस लेते हुए जाग रहा था। उस समय उन्होंने कहा था, ‘‘वर्षों पहले हमने भाग्य के साथ एक वादा किया था और अब समय आ गया है जब हम अपने उस संकल्प को पूरा करें।’’ दिग्गज राजनेता नेहरू भारत के सबसे प्रभावशाली, विद्वान और जनप्रिय नेता थे। उन्होंने आजाद भारत के सामने उच्च आदर्श और एजैंडा तय किया। उन्होंने घोषणा की कि  यह ओछी और घातक आलोचना का समय नहीं है, यह किसी तरह की दुर्भावना और दूसरों पर दोष मढऩे का समय नहीं है। हमें स्वतंत्र भारत के ऐसे महान भवन का निर्माण करना है जहां उसके सभी बच्चे रह सकें। 

नेहरू बेहद दृढ़ लोकतंत्रवादी थे और लोकतंत्र के प्रति उनकी धारणा बड़ी प्रबल थी। वह राष्ट्र निर्माण में विपक्ष को बराबर का भागीदार मानते थे और विपक्षी नेताओं के साथ अत्यंत सम्मानजनक व्यवहार करते थे। उनका मानना था कि सशक्त और सजग विपक्ष का अभाव लोकतंत्र के अभाव का जीता-जागता प्रमाण है। उनका यह भी मानना था कि उनकी सरकार की मनमानी पर अंकुश रखने और देशवासियों की स्वतंत्रता व उनके अधिकारों की रक्षा के लिए सरकार की रचनात्मक आलोचना के लिए विपक्ष की जरूरत है। इसलिए उन्होंने न केवल विपक्षी दलों के नेताओं को संभाले रखा, बल्कि उनकी देख-रेख करते हुए उन्हें प्रोत्साहित भी किया। शायद इसी वजह से जे.बी. कृपलानी ने अटल बिहारी वाजपेयी के बारे में पूर्वाग्रही टिप्पणी की थी कि वह ‘जनसंघ के भेस में नेहरूवादी’ थे। 

नेहरू ने पहली बार सांसद बने वाजपेयी को 1960 में संयुक्त राष्ट्र महासभा सत्र के लिए प्रतिनिधिमंडल में शामिल किया था। प्रधानमंत्री कार्यालय ने संयुक्त राष्ट्र में भारत के अधिकारियों में से एक एम.के. रसगोत्रा (जो बाद में विदेश सचिव भी बने) को सभी महाद्वीपों से पहली बार आने वाले आगंतुक नेताओं से परिचय कराने का भी निर्देश दिया, ताकि उन्हें यह पता चल सके कि ‘दुनिया वास्तव में कैसे काम करती है’। नेहरू का आम लोगों पर जबरदस्त भरोसा था और उन्होंने उन्हें राष्ट्र निर्माण के लिए आमंत्रित किया। उनकी दुर्लभ राजनीतिक और लोकतांत्रिक सोच ही थी, जिसने एक गैर-कांग्रेसी, ङ्क्षहदू महासभा के डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, अनुसूचित जाति महासंघ के डा. बी.आर. अम्बेडकर, जस्टिस पार्टी के सर आर.के. शणमुखम चेट्टी और अर्थशास्त्री जॉन मथाई को देश के पुनॢनर्माण के लिए सार्वजनिक जीवन के विभिन्न पहलुओं में उनकी विशेषज्ञता और अनुभव का लाभ उठाने के लिए आमंत्रित किया। ये सभी नेता नेहरू और कांग्रेस के घोर आलोचक थे, लेकिन नेहरू ने नीति निर्माण में सर्वसम्मत निर्णय पर पहुंचने के लिए हर वैचारिक पहलू की राय और सहयोग हासिल किया। 

1956 में विपक्षी दल के सदस्य  हुकम सिंह को लोकसभा के उपाध्यक्ष के रूप में चुनने का विचार लेकर आए नेहरू वास्तव में पूरी तरह से लोकतांत्रिक राजनेता थे। हुकम सिंह भले ही नेहरू के प्रखर आलोचक थे और उन्हें यह कहते हुए उद्धृत किया जाता है कि कहने को ही सही, कम से कम नेहरू निरंकुश शासक हैं जो लोकतंत्र की प्रशंसा करते हैं। तभी से देश में लगभग सभी विधायी निकायों में इस स्वस्थ लोकतांत्रिक परंपरा का पालन किया जाता रहा है। लेकिन दुर्भाग्य से, अब इस अनूठी संसदीय परंपरा को त्याग दिया गया है और सुप्रीम कोर्ट को केंद्र व 5 राज्यों को डिप्टी स्पीकर का चुनाव करने में उनकी विफलता पर नोटिस जारी करना पड़ा। लोकसभा के लिए संविधान के अनुच्छेद 93, राज्य विधानसभाओं के लिए अनुच्छेद 178 और राज्यों की परिषद (राज्य सभा) के लिए अनुच्छेद 89(2) के तहत उनका संवैधानिक दायित्व है। 

ऐसा नहीं है कि नेहरू आलोचनाओं और विवादों से परे थे, लेकिन उन्होंने असहमति का सामना भी पूरी शालीनता से किया और अपने विरोधियों को शालीनता, गरिमा और अनुकरणीय सहिष्णुता के साथ जवाब दिया। उन्होंने सार्वजनिक जीवन में हमेशा अनुशासन और मर्यादा बनाए रखी और कभी भी अपने विरोधियों को नतीजा भुगतने, अपशब्द बोलने या डराने की कोशिश नहीं की। हाल में ही प्रकाशित टेलर सी. शरमन की पुस्तक ‘नेहरूज इंडिया-ए हिस्ट्री ऑफ सैवन मिथ्स’ में उनकी टिप्पणियों का उल्लेख करना यहां प्रासंगिक होगा कि ‘वह असाधारण रूप से लोकतांत्रिक थे। उनकी लोकप्रियता, करिश्मे और विपक्ष के लगभग पूर्ण अभाव ने भी उन्हें निरंकुशता के लालच में नहीं आने दिया।’ हम सभी आपकी स्मृति को प्रणाम करते हैं! -भूपेंद्र सिंह हुड्डा(हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री एवं नेता प्रतिपक्ष)


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