कश्मीर में वार्तालाप के नए दौर की जरूरत

punjabkesari.in Wednesday, Jun 21, 2017 - 11:13 PM (IST)

कश्मीर एक बार फिर समाचारों में है। वास्तव में तो यह हमेशा ही समाचारों में रहता है। मुख्यधारा का मीडिया आमतौर पर सरकारी पक्ष को ही पेश करता है जो वास्तविक स्थिति को अपवाद के रूप में सामने लाता है। कश्मीर सचमुच जल रहा है। कश्मीरी लोगों पर सदाबहार आंदोलनकारी होने का ठप्पा लगाया जा रहा है।

श्रीनगर संसदीय उपचुनाव ने प्रशासन के इन दावों की पोल खोल दी है कि छिटपुट इलाकों को छोड़कर स्थिति हर प्रकार से सामान्य है। केवल 7 प्रतिशत लोगों ने ही चुनाव में हिस्सा लिया जबकि शेष सभी ने बायकाट किया। इससे पहले स्थानीय निकाय चुनावों में लोगों ने बहुत बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था। विधानसभा चुनाव में भी मतदाताओं की हिस्सेदारी काफी हद तक अच्छी रही थी लेकिन जब अलग से संसदीय चुनाव करवाया गया तो बहुत थोड़े लोग घरों से निकलेे। 

क्या इस घटनाक्रम को भारतीय संसद में कश्मीरियों के अविश्वास का प्रतीक माना जा सकता है क्योंकि यह भारतीय संविधान की धारा 370 को व्यावहारिक रूप में लागू करने में असफल रही है? या चुनाव की टाइमिंग ठीक न होने के कारण ऐसा हुआ है? यह चुनाव पी.डी.पी. के सांसद के त्यागपत्र के कारण करवाना जरूरी था क्योंकि कश्मीर की समस्याओं को हल करने के मामले में पी.डी.पी.-भाजपा की गठबंधन सरकार की विफलता के विरुद्ध गुस्सा व्यक्त करते हुए इस सांसद ने पार्टी और पद से त्यागपत्र दे दिया था। कश्मीर की स्थिति में आतंकवादी बने स्थानीय कश्मीरी युवक बुरहान वानी की हत्या के बाद नाटकीय ढंग से बदलाव आ गया था। अब उसके बाद ‘कमांडर’ बने कश्मीरी युवक को भी मार दिया गया है और उसके जनाजे में भी हजारों लोगों ने भागीदारी की थी। 

इससे पहले मिलिटैंट तथा सशस्त्र आतंकी पाकिस्तानी घुसपैठियों के रूप में आयात किए जाते थे लेकिन गम्भीर चिंता की बात है कि स्वतंत्रता के 7 दशकों बाद स्थानीय युवक सशस्त्र विद्रोह में शामिल हो रहे हैं। बेशक ऐसे लोगों की संख्या ज्यादा न हो तो भी उन्हें कश्मीरी लोगों से समर्थन और सहायता मिल रही है। पाकिस्तान के लिए कश्मीर तब से एक सिरदर्द बना हुआ है जब इसका भारत में विलय हुआ था। कश्मीरी संविधानसभा ने यह प्रस्ताव पारित किया था कि धारा 370 की गारंटी के मद्देनजर कश्मीर भारत के साथ विलय करता है। 

इस धारा में कश्मीर को विशेष दर्जा प्रदान किया गया था। यह कश्मीरियों को आंतरिक स्वायत्तता की जामनी देती है। इसे केन्द्रीय सरकार ने स्वीकार कर लिया था और साथ ही इस धारा का भारतीय संविधान में समावेश कर लिया गया था। लेकिन एक बार स्वीकार किए जाने के बाद इसे कभी भी व्यावहारिक रूप में लागू नहीं किया गया। कश्मीर की खूबसूरत आबादी का एक भाग 1948 से ही पाकिस्तान के कब्जे में है। हमेशा से ही एक वर्ग पाकिस्तान में कश्मीर के विलय का पक्षधर रहा है बेशक संख्या की दृष्टि से यह कोई बहुत बड़ा नहीं है। 

लेकिन इससे काफी बड़ा वर्ग मजहब परस्त पाकिस्तान की बजाय सैकुलर भारत के साथ विलय चाहता था, जिसके लिए कश्मीर की अलग पहचान और विशेष दर्जे को स्वीकार भी करवाना चाहता था। धारा 370 उनकी इसी आकांक्षा की गारंटी करती है। लेकिन सवाल यह है कि इस धारा को व्यावहारिक रूप में ताक पर क्यों और कब रखा गया? इसके लिए जिम्मेदार कौन है। धारा 370 के निष्पादन में नि:संदेह कुछ समस्याएं हैं। क्योंकि कश्मीर की देखा-देखी खास तौर पर पूर्वोत्तर राज्यों से भी इसी तरह की मांग उठ सकती है। उसे अलग से हल किया जा सकता है। लेकिन कश्मीर के मामले में तो हमने आंतरिक स्वायत्तता का विश्वास दिलाया था और अब इस वायदे पर फूल चढ़ाए जाने की जरूरत है। देश विभाजन से पूर्व न तो मोहम्मद अली जिन्नाह और न ही मुस्लिम लीग कभी कश्मीरी लोगों का समर्थन हासिल कर सके थे।

शेख अब्दुल्ला का अप्रतिम नेतृत्व कश्मीर घाटी के परम्परागत सैकुलर जीवन मूल्यों को बचाकर रख सका था। पाकिस्तानी आतंकवादियों ने बहुत से अलगाववादी नेताओं के साथ- साथ भारत से विलय के पक्षधरों को अपना निशाना बनाया था। अलगाववादियों में भी समय बीतने के साथ-साथ अंतर्कलह बढ़ती गई। कभी वे विभाजित होते तो कभी वह एकता करते, पुन: विभाजित होते और इसी तरह कमजोर होते गए। उनकी विश्वसनीयता भी मिट्टी में मिल गई थी। लेकिन हाल ही के वर्षों में जम्मू-कश्मीर की एक के बाद एक सरकारों की विफलता ने स्थिति को बदल कर रख दिया है। लोग अधिक संख्या में अलगाववादी बन रहे हैं। जनता और सुरक्षा बलों के बीच टकराव की घटनाएं बढ़ रही हैं। अतीत में वार्ता के कई दौर चलाए गए हैं। लेकिन कभी भी ठोस निर्णय नहीं लिया गया। अब स्थिति सम्भालने के लिए वार्तालाप का नया दौर चलाना जरूरी हो गया है। 

केन्द्र सरकार कहती है कि वह अलगाववादियों के साथ कोई बातचीत नहीं करेगी। यदि यह केवल राजनीतिक दलों के साथ ही विचार-विमर्श करना चाहती है तो यह फिजूल की कवायद सिद्ध होगी। इसे धारा 370 को व्यावहारिक रूप में लागू करने का वायदा करते हुए सभी मुद्दइयों के साथ वार्तालाप करनी चाहिए। कश्मीर में उग्रपंथियों और पाकिस्तानी आतंकवादियों की घुसपैठ के कारण सुरक्षा बलों के साथ-साथ सेना को भी लम्बे समय से प्रयुक्त किया जा रहा है। जिससे जनता और सेना के बीच टकराव लगातार बढ़ता आ रहा है। सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (अफस्पा) के अंतर्गत सेना द्वारा अत्यधिक बल प्रयोग और हथियारों के कारण यह आम लोगों से अलग-थलग होकर रह गई है और लोग अफस्पा को वापस लिए जाने की मांग कर रहे है। 

सेना निश्चय ही बहुत कठिन स्थिति का सामना कर रही है। लेकिन फिर भी एक नागरिक को मानव कवच के रूप में वाहन से बांधे जाने पर कश्मीरियों को अच्छा संदेश नहीं गया। सेना को यह याद रखना होगा कि कश्मीर में यह अपने देश के नागरिकों के विरुद्ध युद्ध नहीं लड़ रही है बल्कि वहां अमन-कानून की स्थिति बनाए रखने का सवाल है। पत्थरबाज उग्र और क्रुद्ध भीड़ तो होते हैं लेकिन आतंकवादी नहीं होते इसलिए उनके साथ उग्रवादियों जैसा व्यवहार भी नहीं किया जाना चाहिए। आम जनता और उग्रवादियों के बीच दूरी बढ़ाई जानी चाहिए और यह काम जनता का भरोसा जीत कर ही किया जा सकता है। यदि उन्हें उग्रवादियों के तुल्य समझा जाएगा तो लोग दुश्मन के खेमे में जाएंगे ही। ऐसी स्थिति को टालने के लिए कश्मीर में वार्तालाप का नया दौर शुरू किए जाने की जरूरत है।     


सबसे ज्यादा पढ़े गए

Recommended News

Related News