लैंगिक भेदभाव को खत्म करना जरूरी

punjabkesari.in Saturday, Apr 03, 2021 - 05:05 AM (IST)

यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि वैश्विक आर्थिक मंच की हाल ही में प्रकाशित अंतर्राष्ट्रीय लैंगिक भेद अनुपात रिपोर्ट 2021 में भारत की स्थिति बेहद खराब है। इस रिपोर्ट में 156 राष्ट्रों में महिलाआें के प्रति भेदभाव की स्थिति का आकलन किया गया है। इस अध्ययन के अनुसार भारत 140वें पायदान पर है। बंगलादेश, नेपाल, श्रीलंका और भूटान जैसे देश इस मामले में भारत के मुकाबले काफी बेहतर स्थिति में हैं। पिछले साल इस रिपोर्ट में भारत का स्थान 153 देशों की सूची में 112वां था। विडम्बना यह है कि इस साल यह और भी नीचे चला गया। पिछले दिनों एक अन्य रिपोर्ट में बताया गया था कि भारत की गिनती उन देशों में हो रही है जहां औरतों के लिए आर्थिक अवसर बेहद कम हैं। 

इस रिपोर्ट की बात छोड़ दें तो भी यह किसी से छिपा नहीं है कि इस प्रगतिशील दौर में भी महिलाआें को कार्यस्थल पर भेदभाव का सामना करना पड़ता है। हम उन्हें जरूरी सुरक्षा व्यवस्था तक उपलब्ध नहीं करा पाते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि एक तरफ महिलाएं सफलता की नई कहानियां लिख रही हैं तो दूसरी तरफ महिलाआें पर अत्याचार की घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं। इस प्रगतिशील दौर में हमें यह सोचना होगा कि महिलाआें के सन्दर्भ में बड़ी-बड़ी बातें करने वाला यह समाज इस मुद्दे पर खोखला आदर्शवाद क्यों अपना लेता है ? 

यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि हम अभी तक भी महिलाआें को सम्मान देना नहीं सीख पाए हैं लेकिन महिलाएं इस सब से बेपरवाह हमें सम्मान देने में जुटी हुई हैं। महिलाएं आसमान को छू रही हैं और हम जमीन पर उन्हें दबोच कर उनके आत्मसम्मान को ठेस पहुंचा रहे हैं। हमारे देश की बेटियों ने यह कई बार सिद्ध किया है कि यदि उन्हें प्रोत्साहन और सम्मान दिया जाए तो वे हमारे देश को अन्तर्राष्ट्रीय फलक पर एक नई पहचान दिला सकती हैं। लेकिन हमारे समाज में आजादी के इतने वर्षों बाद भी बेटियां वह सम्मान प्राप्त नहीं कर पाईं जिसकी वे हकदार थीं। यह सही है कि इस दौर में बेटियों को लेकर समाज की सोच बदल रही है। 

परिवार बेटियों के पालन पोषण और शिक्षा पर ध्यान जरूर दे रहे हैं लेकिन हमारे समाज के सामूहिक मन में बेटियों को लेकर एक अजीब सी नकारात्मकता है। रियो डि जेनेरियो में हुए आेलिम्पिक में कांस्य पदक जीतने वाली महिला पहलवान साक्षी मलिक के पिता ने कुछ समय पहले बताया था कि जब मैं पहली बार अपनी बेटी को कुश्ती सिखाने के लिए अखाड़े में लेकर गया तो मुझे समाज के ताने सुनने पड़े थे। पितृसत्तात्मक समाज में लड़कियों को रोज नई-नई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इस दौर में हमारे समाज के एक छोटे से तबके में लड़कियों को पूर्ण छूट दी जाने लगी है लेकिन यहां उनकी चुनौतियां अलग तरह की होती हैं। कुल मिलाकर पितृसत्तात्मक समाज लड़कियों के लिए अनेक तरह के अवरोध खड़े कर रहा है। 

21वीं सदी में भी यदि लड़कियों को आगे बढऩे की कोशिश करने पर ताने सुनने पड़ें तो हमें यह सोचना होगा कि हमारी प्रगतिशीलता में कहां कमी रह गई है? केवल भाषणबाजी से समाज में प्रगतिशीलता नहीं आती है। प्रगतिशील बनने के लिए हमें बहुत सी सड़ी-गली परम्पराआें को दांव पर लगाना पड़ता है। केवल डिग्रियां बटोर कर शिक्षित हो जाना ही समाज की प्रगतिशीलता का पैमाना नहीं है। शिक्षा ग्रहण कर समाज के हर वर्ग के उत्थान में उसका उपयोग करना ही सच्ची प्रगतिशीलता है। इस दौर में विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या हम लड़कियों और महिलाआें के सन्दर्भ में सच्चे अर्थों में प्रगतिशील हैं? क्या लड़कियों को पढ़ाना-लिखाना और आधुनिक परिधान पहनने की अनुमति देना ही प्रगतिशीलता है? दरअसल हम प्रगतिशीलता के अर्थ का उपयोग बहुत ही सीमित सन्दर्भों में करते हैं। 21वीं सदी में भी यदि हम लड़कियों की रक्षा नहीं कर सकते तो इससे ज्यादा शर्मनाक कुछ नहीं हो सकता। 

दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि खेलों में भी लड़कियों को अनेक स्तरों पर चुनौतियां झेलनी पड़ती हैं। छोटी उम्र में अनेक लड़कियों को समाज के डर से अपने शौक की कुर्बानी देनी पड़ती है। इसीलिए हमारे देश में बहुत सारी महिला प्रतिभाएं जन्म ही नहीं ले पाती हैं या फिर असमय दम तोड़ देती हैं। जो महिला प्रतिभाएं परिवार के प्रोत्साहन से खेलों की तरफ रुख करती हैं, उन्हें भी अनेक पापड़ बेलने पड़ते हैं। कई बार एेसी घटनाएं प्रकाश में नहीं आ पाती हैं और खिलाडिय़ों को ताउम्र यह दर्द झेलना पड़ता है। प्रशिक्षण के दौरान और मैदान पर महिला खिलाडिय़ों से छेड़छाड़ की घटनाएं भी आम हैं। 

ऐसी घटनाआें और वातावरण को देखकर अन्य परिवारों का मनोबल भी टूट जाता है और वे अपनी बेटियों को खेल के क्षेत्र में भेजने से कतराने लगते हैं। बहरहाल लैंगिक भेदभाव पर केन्द्रित यह रिपोर्ट हमारी व्यवस्था पर कई सवाल खड़े करती है। हमें यह समझना होगा कि इस दौर में लैंगिक भेदभाव हमारे समाज पर काले धब्बे की तरह है।-रोहित कौशिक   
 


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