न्याय प्रणाली में सुधार के लिए अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी

punjabkesari.in Thursday, Nov 13, 2025 - 04:20 AM (IST)

विधि सेवा दिवस के अवसर पर ‘कानूनी सहायता वितरण तंत्रों का सुदृढ़ीकरण’ विषय पर आयोजित राष्ट्रीय सम्मेलन में बोलते हुए, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि जीवन में सुगमता और व्यवसाय में सुगमता तभी संभव है जब न्याय में सुगमता सुनिश्चित हो। उन्होंने यह भी कहा कि जब न्याय सभी के लिए सुलभ हो, समय पर मिले और हर व्यक्ति तक उसकी सामाजिक या आर्थिक पृष्ठभूमि की परवाह किए बिना पहुंचे,‘तभी यह वास्तव में सामाजिक न्याय की नींव बनता है।’ भारत के मुख्य न्यायाधीश भूषण आर.गवई ने एक दिन बाद इसी सम्मेलन के समापन समारोह में बोलते हुए देश में ‘विधि सेवा प्राधिकरणों के ढांचे में आमूल-चूल परिवर्तन’ का आह्वान किया।

मनोनीत मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने भी इसी कार्यक्रम में बोलते हुए इस बात पर जोर दिया कि देश में विधिक सेवा ढांचे को अब ‘अपने भौगोलिक क्षेत्र का विस्तार करने से आगे बढ़कर उन लोगों के जीवन पर गहरा और मापनीय प्रभाव सुनिश्चित करना होगा जिन्हें वह बदलना चाहता है।’ ये सभी टिप्पणियां और अवलोकन सराहनीय हैं, लेकिन सवाल यह है कि इन सुधारों को लागू करने की क्षमता किसमें है? निश्चित रूप से आम आदमी में नहीं। यह केवल इन योग्य लोगों द्वारा ही किया जा सकता है।

भारतीय विधिक सेवाएं और न्याय व्यवस्था न्याय के लिए तरस रही है लेकिन कोई भी इस समस्या का समाधान करने की जिम्मेदारी नहीं लेता। न्यायिक सुधारों के चाहे जितने भी दावे हों, विभिन्न न्यायालयों में लंबित मामलों की संख्या बढ़ती जा रही है। अदालतों में लंबित मामलों की संख्या अब 5 करोड़ से ज्यादा होने का अनुमान है। यह कोई रहस्य नहीं है कि मामले वर्षों तक लंबित रहते हैं और कभी-कभी तो फैसला सुनाने में दशकों लग जाते हैं। सरकार सबसे बड़ी वादी बनी हुई है और उसे पहले अपने घर को व्यवस्थित करने की जरूरत है। सरकारी वकील खुद पर या कार्यपालिका के इशारे पर जिम्मेदारी लेने से बचने के लिए पुनर्विचार याचिकाएं दायर करते हैं। न्याय मिलने में होने वाली लंबी देरी के कारण समय की भारी बर्बादी या वादियों को होने वाले उत्पीडऩ के लिए कोई जवाबदेही नहीं दिखती। और तो और फैसला सुनाना भी आम लोगों के लिए अंतिम राहत नहीं है।

पिछले महीने सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर एकत्र किए गए राष्ट्रव्यापी आंकड़ों से पता चला है कि देश की विभिन्न जिला अदालतों में 8.82 लाख से ज्यादा निष्पादन की याचिकाएं लंबित हैं। इस प्रकार, लंबी मुकद्दमेबाजी के बाद अदालती मुकद्दमे जीतने के बावजूद, सफ ल वादियों को अदालतों द्वारा दिए गए फैसले की प्राप्ति के लिए अंतहीन प्रतीक्षा करनी पड़ रही है। सर्वेक्षण का आदेश देने वाले न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति पंकज मिथल की खंडपीठ ने कहा, ‘‘अगर डिक्री पारित होने के बाद, उसे लागू करने में वर्षों लग जाएंगे तो इसका कोई मतलब नहीं है और यह न्याय का उपहास होगा।’’डिक्री जारी करने की प्रक्रिया बहुत जटिल होती है और वादियों के लिए यह उसी उद्देश्य के लिए मुकद्दमेबाजी का दूसरा दौर होता है जिसके लिए उन्हें डिक्री जारी की गई थी। डिक्री को लागू करने के लिए, सफ ल वादियों को एक निष्पादन याचिका दायर करनी होती है। अदालतों द्वारा घोषित आदेशों के क्रियान्वयन में कई साल लग सकते हैं।

राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड द्वारा एकत्रित आंकड़ों के अनुसार, एक औसत दीवानी मुकद्दमे के निपटारे में औसतन 4.91 साल लगते हैं जबकि एक निष्पादन याचिका के निपटारे में 3.97 साल और लगते हैं। ये आंकड़े वाकई चौंकाने वाले हैं। देरी का मुख्य कारण कानूनी सलाहकारों का न होना, उच्च न्यायालयों द्वारा कार्रवाई पर रोक और दस्तावेजों में विसंगतियां हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने अब सभी उच्च न्यायालयों को अपने जिला न्यायालयों के साथ मिलकर 6 महीने के भीतर निष्पादन याचिकाओं का निपटारा करने का निर्देश देकर अच्छा काम किया है।
हालांकि, देश में न्यायिक वितरण प्रणाली में सुधार के लिए अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। प्रधानमंत्री और भारत के मुख्य न्यायाधीश को न्याय वितरण प्रणाली में आमूल-चूल परिवर्तन लाने के लिए पहल करनी चाहिए, न कि केवल यह कामना करनी चाहिए कि ऐसा हो गया।-विपिन पब्बी
 


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