मोदी सरकार के तीन साल: ‘कहां है विकास’

Monday, May 29, 2017 - 10:55 PM (IST)

मोदी सरकार जब अपने 3 वर्ष के शासन का रिपोर्ट कार्ड प्रस्तुत कर रही है तो मन में यह विचार आता है कि जो तथ्य व आंकड़े प्रस्तुत किए जा रहे हैं क्या वे भरोसे योग्य हैं। 

प्रधानमंत्री अपनी भाषण कला के बूते किसी पर भी हावी हो सकते हैं और इस प्रकार ‘अच्छे दिनों’ के नए युग की वाहवाही की लहरों पर सवारी करना जारी रखेंगे। एक बात तो निश्चय से कही जा सकती है कि सोशल मीडिया, डिजिटल मीडिया तथा प्रसारण जगत मोदी ने इतना धुआंधार चला रखा है कि अन्य किसी के लिए मुश्किल से ही जगह बची है। इस प्रचार में यह दावा किया जा रहा है कि ‘‘आम लोग अब गवर्नैंस में सक्रिय भागीदार बन गए हैं क्योंकि जनता और सरकार के बीच अब परस्पर भरोसा कायम हो गया है।’’ 

हर कोई बिना सवाल उठाए मोदी के मुंह से निकले एक-एक शब्द को  हजम किए जा रहा है। फिर भी जब उनकी सरकार की बैलेंस शीट तैयार करके देखी जाए तो प्रधानमंत्री क्या इस तथ्य पर पर्दा डाल सकते हैं कि स्थिति पहले की तरह ही जड़वत बनी हुई है यानी कि कोई बदलाव नहीं हो रहा? मोदी जगह-जगह यह नारा देते हैं, ‘‘साथ है, विश्वास है...हो रहा विकास है।’’ लेकिन क्या सचमुच विकास हुआ है? 

क्या वह समावेशन ला सकेंगे, अल्पसंख्यकों को भयमुक्त कर सकेंगे और उनका विश्वास जीत सकेंगे? हां, सच, रोजगार, विकास, आधारभूत ढांचा , गुणवत्तापरक, शिक्षा और यहां तक कि स्वच्छ भारत व अच्छे दिनों का जो वायदा किया गया था-वह कहां है? क्या हम उनके आलोचकों की इस बात पर विश्वास कर लें कि मोदी एक ‘मूलवादी पार्टी’ के धाड़वी हैं? विपक्ष को तो उन्होंने नि:संदेह चारों खाने चित्त कर दिया है और अब यह पूरी तरह दिशाहीन एवं खंडित है। इसके पास न तो कोई नेता है और न ही कोई दिशा। बस एकमात्र काम मोदी सरकार का विरोध करना है कि शायद इसी बहाने विपक्षी पार्टियां एकजुट बनी रहेंगी। लेकिन विपक्ष का यह सपना पूरा नहीं हुआ और  इसी तरह मोदी सरकार ने 3 वर्ष पूरे कर लिए। 

उत्तर प्रदेश के चुनाव में भाजपा की धमाकेदार जीत  तथा पूर्वोत्तर में  इसके बढ़ रहे जनाधार से मोदी विरोधियों में जो हताशा पैदा हुई है वह किसी संकट से कम नहीं और सभी सर्वेक्षणों में मोदी को किसी भी  प्रतिपक्षी से कोसों आगे बताया जा रहा है। इस समय मोदी ही भारत रूपी शेर पर सवार और दैत्यकार छलांगें लगाते हुए रास्ते में आने वाले हर विरोध को कुचलते जा रहे हैं। नोटबंदी जैसे अपने कदम को गरीब-समर्थक करार देकर उन्होंने न केवल बहुत बड़े जनसमूह तक अपनी पहुंच बना ली है बल्कि उन्हें पटखनी देने की विरोधियों की चालों  और साजिशों को विफल करते हुए उनका काफिया तंग करके हाशिए पर धकेल दिया है। 

यू.पी. की चुनावी जीत इस तथ्य को रेखांकित करती है कि मुस्लिम मतदाताओं की उनके प्रति अंध घृणा  के बावजूद उन्हें कोई आंच नहीं आने वाली लेकिन इसी बात के कारण ही उनके विरोधी और भी बुरे दौर में से गुजर रहे हैं तथा दिशाहीन होकर अंधेरे में हाथ-पांव चला रहे हैं। ऊपर से विरोधियों के पास मोदी के मुकाबले का कोई शुभंकर भी नहीं। जिस राहुल पर विपक्षियों की उम्मीदें टिकी हुई थीं वह तो वर्तमान में स्वयं ही एक आफत बन कर रह गए हैं। इससे भी बड़ी बात यह है कि संघ परिवार ने मोदी के दुश्मनों के रास्ते में अनेक स्तरों पर जाल बिछा रखे हैं। एक जाल तो बिछाया गया है हिन्दू ध्रुवीकरण के माध्यम से। बेशक गौरक्षकों के विरुद्ध बहुत  वावेला मचाया गया है तो भी संघ परिवार के जंगजू जातिगत और साम्प्रदायिक ङ्क्षहसा के बीच भी हिन्दुओं में यह भावना बढ़ा रहे हैं कि वे एक हैं। 

आपको याद होगा कि किस प्रकार मोदी ने चुनावी अभियान दौरान श्मशान  बनाम कब्रिस्तान और दीवाली बनाम रमजान की टिप्पणियां करके मुस्लिम तुष्टीकरण के विरुद्ध हिन्दुओं की भावनाओं का दोहन किया। ऐसा करके उन्होंने कथित सैकुलरवादियों की उम्मीदों पर पानी फेर दिया। दूसरी बात यह है कि जाति की सीमाओं को सफलता सहित तोड़ते हुए नोटबंदी से उन्होंने भाजपा को ब्राह्मण-बनिया छवि से मुक्ति दिलवाई जबकि विपक्ष इसी इंतजार में लारें टपकाता रहा कि  नोटबंदी पर हमला करने के लिए उसे बहुत बड़ा मुद्दा मिल जाएगा। 

आप उन्हें आत्मकेन्द्रित कहें या तानाशाह अथवा हिन्दू जुनूनी, फिर भी नरेन्द्र मोदी की स्वीकार्यता लगातार  उच्च स्तर पर बनी हुई है। हाल ही में हुए एक सर्वेक्षण के अनुसार वह  70 प्रतिशत भारतीयों के चहेते हैं और दुनिया के शीर्ष पांच नेताओं  में शामिल हैं। ‘फोब्र्स’ पत्रिका की दुनिया के शक्तिशाली लोगों की सूची में वह शीर्ष 10 में शामिल हैं जबकि ट्विटर और फेसबुक पर उनके सबसे अधिक फालोअर्स हैं। शायद मोदी के बारे में जिस अहंकार का आभास होता है उसका कारण उपरोक्त बातें हैं। मोदी पूरी शक्ति पी.एम.ओ. में केन्द्रित किए जा रहे हैं। ‘वन वे’ सड़क की तरह पी.एम.ओ.  से संदेश नीचे तक जाते हैं लेकिन संवाद कोई नहीं होता। औसतन प्रति 45.6 घंटों (1.9 दिन) के बाद मोदी  एक नया भाषण देते हैं और ‘डायरैक्ट मार्कीटिंग’ की शैली में इसे सब जगह पहुंचा दिया जाता है।

सरकार के इन सब प्रयासों के बावजूद विपक्ष मोदी के 3 वर्ष के शासन को निराशाजनक करार दे रहा है जबकि सरकार के लिए यह सौभाग्य और दुर्भाग्य का मिला-जुला दौर रहा है। सप्तरंग इंद्रधनुष के दूसरे छोर पर पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर में पाकिस्तान के विरुद्ध ‘सर्जिकल स्ट्राइक्स’ एक बहुत जोरदार रणनीतिक और दाव-पेंचक बदलाव का प्रतीक बन गई हैं जिससे आंख के बदले आंख और दांत के बदले दांत का परिदृश्य देखने को मिल रहा है। पाकिस्तान और चीन के साथ रिश्ते बिल्कुल बर्फानी हो गए हैं जबकि किसी जमाने में भारत के भरोसेमंद और परखे हुए दोस्त रह चुके रूस के साथ संबंध भी डावांडोल हैं। 

नोटबंदी स्वतंत्र भारत के सबसे दिलेरी भरे नीतिगत कदमों में से एक थी। जी.एस.टी. बिल पास करने के साथ-साथ बिजली और बैंकिंग क्षेत्र के सुधार भी अर्थव्यवस्था के बहुत बड़े चालक हैं। इनकी बदौलत भारत में आयकर देने वालों की संख्या में 90 लाख की वृद्धि हुई है, भारत का मार्कीट पूंजीकरण 2 ट्रिलियन डालर को पहुंच गया है और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश भी पुराने सभी रिकार्ड तोड़ गया है। इससे आगे बढ़ते हुए सरकार भ्रष्ट लोगों के बुरी तरह पीछे पड़ गई है। जब सोनिया-राहुल, पूर्व वित्त मंत्री चिदम्बरम और उनके बेटे जैसे कांग्रेसी नेता, राष्ट्रीय जनता दल के लालू प्रसाद और उनकी बेटी, बसपा की मायावती के भाई जैसों को विभिन्न आरोपों में घेरा जाता है तो इसका स्पष्ट संकेत है कि मोदी गंभीरता से अपने रास्ते पर आगे बढ़ रहे हैं। 

यह सच है कि गरीब परिवारों को कुकिंग गैस कनैक्शन उपलब्ध करवाने वाली ‘उज्ज्वला’, डायरैक्ट बैंक ट्रांसफर, मोबाइल बैंकिंग, महिला सशक्तिकरण, बिजलीकरण  एवं एल.ई.डी. बल्बों का वितरण, 10 करोड़ से अधिक लोगों के लिए सिक्योरिटी बीमा योजना के साथ-साथ सब लोगों के लिए आवास की नीति ने राहुल के ‘सूट-बूट की सरकार’ के आक्षेप की हवा निकाल दी। वैसे यह हैरानी की बात है (और इसका कारण भी मोदी ही जानते हैं) कि अभी तक उन्होंने विकास तथा ‘संडास से पहले आवास’ तथा रोजगार जैसे कुंजीवत मुद्दों की सुध क्यों नहीं ली है? अमन-कानून, महिलाओं व बच्चों के विरुद्ध अपराध रोकने, मुद्रास्फीति, अनपढ़ता तथा अस्वास्थ्य जैसी सरकार की आधारभूत जिम्मेदारियां ही बहुप्रचारित ‘रोटी, कपड़ा और मकान’ के सपने की सफलता की कसौटी हो सकती हैं। लेकिन विडम्बना देखिए कि सैलफोन तो बिना मांगे मिल रहे हैं लेकिन भोजन के लिए  लोग भीख मांग रहे हैं। 

सरकार की सबसे उल्लेखनीय विफलता तो यह है कि इसने विशुद्ध गवर्नैंस उपलब्ध करवाने के लिए कालबाह्य कानूनों से मुक्ति दिलाते हुए नए युग के सत्ता अधिष्ठान विपक्ष में ‘न्यूनतम सरकार, अधिकतम गवर्नैंस’ का जो नारा दिया था वह भी अब धूल चाट रहा है। सार्वजनिक क्षेत्र में से भी सरकार बाहर नहीं निकली है और ऐसा लगता है कि जैसे निजीकरण के लिए यह अधिक उत्साहित नहीं है। बिना पानी और शौचालयों के 2019 तक स्वच्छ भारत का सपना साकार करना भी बहुत दूर की कौड़ी है। सबसे बड़ा सवाल तो यह है कि क्या मोदी राजनीतिक रूप में भारत को बदल सकेंगे?    

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