मोदी सरकार के समक्ष बजट सत्र के साथ-साथ राजनीतिक और आर्थिक ‘चुनौतियां’ भी

punjabkesari.in Wednesday, Feb 10, 2016 - 12:50 AM (IST)

(उमाकांत लखेड़ा): संसद में अगले बजट सत्र के अढ़ाई माह के दौर में कई घटनाएं एक साथ घटित होने जा रही हैं। 5 प्रदेशों में चुनावी रणभेरी बज चुकी है। इसी क्रम में 2 माह बाद यानी 26 मई, 2016 को मोदी सरकार केन्द्र में अपने 2 साल का कार्यकाल पूरा करेगी। विवादों व उतार-चढ़ावों से भरा मोदी सरकार का 2 वर्ष का कार्यकाल व मार्च-अप्रैल में 5 राज्यों के चुनावों के चुनावी नतीजे भी आंशिक तौर पर ही सही देश की राजनीति की दशा-दिशा तय करने में अहम भूमिका निभाएंगे। 

 
इससे यह भी अंदाजा लगेगा कि प. बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक के विवादों से भरे कार्यकाल के बीच इन दोनों देवियों की सत्ता सियासत में कितना वजूद अब शेष रह गया है। इससे भी बढ़कर जो संकेत मिल रहे हैं वह गंभीर चुनौती व अनिश्चितता का आभास दे रहे हैं क्योंकि अर्थव्यवस्था अभी भी हिचकोले खाती नजर आ रही है तथा आॢथक सुधारों के मामलों में कार्पोरेट, अर्थशास्त्री व निवेशक अभी भी मोदी सरकार की डगर को लेकर असमंजस व अनिश्चितता के भंवर में हैं।
 
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस के बीच आरोप-प्रत्यारोप की कवायद जारी है। जैसा कि पी.एम. मोदी ने असम में हाल में अपने दौरे में कांग्रेस पर आरोप लगाया कि एक परिवार के इशारे पर संसद में व्यवधान जारी रहने से उनकी सरकार लोक महत्व के कई कामकाज नहीं कर पा रही। भले ही मोदी का कांग्रेस पर हमला असम में शासन कर रही कांग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व पर था लेकिन उनका बयान यह स्वीकारोक्ति के लिए काफी है कि विपक्षी कांग्रेस व मोदी सरकार के बीच आगामी संसद सत्र में भी असहयोग,  कटुता भरा व टकराव का एक और दौर देशवासियों को देखने को मिलेगा।
 
मोदी सरकार के पास लोकसभा में लबालब बहुमत है लेकिन राज्यसभा में अब भी भाजपा व उसके सहयोगी दलों के पास कमजोर संख्याबल होने की वजह से अभी भी लोक महत्व के आॢथक सुधारों, जिसमें विवादास्पद जी.एस.टी. विधेयक भी शामिल है, को पारित करवाने को मोदी के मंत्री कांग्रेस की मिजाजपुर्सी में महीनों से जुटे हैं। सेवा व माल कर कानून यानी जी.एस.टी. के लिए संविधान में संशोधन की जरूरत है तथा लोकसभा में मात्र 45 सांसदों वाली कांग्रेस ने राज्यसभा में मोदी सरकार को घुटने के बल टिकने को विवश कर रखा है।
 
मोदी सरकार के कामकाज पर अब भी आम जनता सवाल दाग रही है। कई वायदे पूरे नहीं हुए और उस पर आगामी 100 दिनों का एजैंडा मोदी सरकार के लिए कड़ी चुनौतियों से भरा है। 20 माह के उतार-चढ़ाव ने मोदी सरकार को कई खट्टे-मीठे अनुभव दिए हैं। सरकार पर भीतर व बाहर से बात को लेकर चौतरफा दबाव है कि अब बातें करने का नहीं एक्शन को जमीन पर उतारने का वक्त है। महंगाई, बाजार व अर्थव्यवस्था पर अभी भी मोदी सरकार पकड़ नहीं बना पाई है तथा अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतों में ऐतिहासिक गिरावट आ चुकी है। विदेशों से आयात के लिए इस बचत का लाभ मिलेगा लेकिन अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दामों में गिरावट से जो कीमतें 12 साल के न्यूनतम स्तर पर हैं, उसका लाभ आम जनता को नहीं मिल रहा।
 
2014 के आम चुनावों के दौर में ज्वार भाटे की मानिन्द नरेन्द्र मोदी की लहर खत्म हो चुकी है। आम लोग जिन्होंने मोदी के नाम पर भाजपा की फतह में योगदान दिया, उनमें एक मजबूत तबके को मोदी सरकार के कामकाज से अब तक निराशा हाथ लगी है। एक अलोकप्रिय व भ्रष्ट छवि की चादर में लिपटी रही कांग्रेस व उसके सिपहसालारों को गद्दी से हटाने के लिए मोदी ने गत आम चुनाव में जो वायदे किए थे, उन पर वे अभी पूरी तरह खरा नहीं उतर सके हैं। इस मामले में इसका सबसे अहम पहलू यह है कि आर्थिक मोर्चे पर सरकार अभी भी अपने लक्ष्य से काफी पीछे चल रही है। 
 
बिहार की करारी हार के बाद मोदी सरकार ने एक बड़ा सबक यह सीखा है कि सामाजिक क्षेत्र जैसे कि मनरेगा के जरिए गरीबों को मदद जारी रखने, किसानों को आगे बढ़ाने व खाद्य सुरक्षा को सुदृढ़ किए बगैर हाशिए पर जी रही एक बड़ी आबादी का भरोसा कायम नहीं रखा जा सकता। इन्हीं वजहों से मोदी सरकार को एक ओर आॢथक सुधारों और दूसरी ओर बजट को जन्मोन्मुखी बनाने हेतु संतुलन बिठाने की कड़ी चुनौती है।
 
मोदी सरकार अब गुजरात में विकास के मॉडल की चर्चा करती नहीं दिखती क्योंकि दूसरे प्रदेशों में जमीनी हालात एकदम अलग-अलग हैं। गुजरात में भाजपा का जादू जनता में खत्म हो रहा है। पिछले महीने राज्य में जिला परिषदों व ताल्लुका पंचायत के चुनाव में भाजपा को कड़ी हार झेलनी पड़ी। उसके कई गढ़ ढह गए। पटेलों के आरक्षण की मांग को लेकर आरंभ हुए पाटीदार आंदोलन के युवा नेता हाॢदक पटेल से आनंदीबेन पटेल सरकार इतनी भयभीत है कि उन्हें कई महीनों से जेल में ठूंसा हुआ है। स्थानीय चुनावों में भाजपा की हार के पीछे पाटीदारों का गुस्सा व जनता की कसौटियों पर खरा न उतरना एक बड़ी वजह माना जा रहा है।
 
बहरहाल इस साल मोदी सरकार के लिए कदम-कदम पर अग्रिपरीक्षा है। एक साल के भीतर 2 दौर के चुनाव होने हैं, उनमें से फिलहाल असम में ही भाजपा को सत्ता पास दिख रही है। जाहिर है कि पूर्वोत्तर के इस सबसे बड़े राज्य में सत्ताधारी तरुण गोगोई सरकार के खिलाफ 15 वर्षों के सत्ताविरोधी रुझान गुस्सा है। असम में करीब एक दशक से ज्यादा समय से सीमांत जिलों में बंगाली मुसलमानों के झंडाबरदार ए.आई.यू.डी.एफ. नेता बदरुद्दीन अजमल ने असम की राजनीति में एक मजबूत ध्रुवीकरण खड़ा किया है। असम में अजमल फैक्टर कांग्रेस ही नहीं भाजपा के वोट बैंक में भी सेंध लगाएगा।
 
असम के बाद सुदूर केरल में भाजपा को कुछ चमत्कार की आस बंधी है। वहां स्थानीय निकायों के चुनावों में भाजपा ने सत्ताधारी यू.डी.एफ. व माक्र्सवादी नेतृत्व वाले एल.डी.एफ. की चिन्ता बढ़ा दी है लेकिन वहां भाजपा अपना खाता खोलने में कामयाब हो जाती है तो यह स्वतंत्र भारत की चुनावी राजनीति इतिहास का रोचक प्रसंग होगा। इससे भी बढ़कर विडम्बनापूर्ण यह देखने को मिलेगा कि केरल में एक- दूसरे को पटखनी देने को उतावले हो रही वाम व कांग्रेस राजनीति पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी को सत्ता से हटाने की खातिर कैसे एक-दूसरे के साथ जीने-मरने की कसम खाएंगे।
 
बहरहाल 5 प्रदेशों में सिर्फ असम में ही भाजपा को कामयाबी की बड़ी उम्मीद है। इसलिए उसकी निगाह अगले साल के आरंभ में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड व पंजाब के चुनावों पर लगी है। यहां भाजपा का सब कुछ दाव पर लगा है। 
 
16वीं लोकसभा में 80 सीटों में 71 सीटें भाजपा ने खुद हथिया लीं व 2 सीटें अपने दल को देकर जीत लीं, लेकिन विधानसभा चुनावों की तैयारियों के मामले में भाजपा अभी भी चौराहे पर खड़ी है। पड़ोसी राज्य बिहार में चुनावी प्रबंधन व मतदाताओं का रुख न भांप पाने के कारण संघ व भाजपा नेतृत्व किसी बड़े चमत्कार की तलाश में है। यू.पी. में 2012 के विधानसभा चुनावों में राज्य की 403 सीटों में भाजपा की झोली में मात्र 48 सीटें ही हासिल हुई थीं। 
 
लोकसभा चुनावों में भाजपा के पक्ष में एकतरफा लहर अब यू.पी. में कहीं भी नहीं है। भाजपा के लिए उ.प्र. में दूसरा संकट यह है कि उसके पास इतने बड़े राज्य में मुख्यमंत्री पद के लिए कोई चमत्कारिक चेहरा नहीं है। केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ही दमदार नेता दिखते हैं लेकिन गुटों के साथ समन्वय बनाकर चलने में उनका पिछला रिकार्ड फिसड्डी होने की वजह से संघ परिवार कोई खतरा नहीं उठा रहा। केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी के यू.पी. दौरे इस बात का संकेत दे रहे हैं। उन्हें इस राज्य में भावी मुख्यमंत्री के तौर पर प्रोजैक्ट करने की दिशा में गंभीरता से सोचा जा रहा है। भाजपा व संघ के पत्ते कब व कैसे खुलते हैं इसके लिए यू.पी. की सियासत के सारे सूरमा दिल थामे बैठे हैं।              
 

सबसे ज्यादा पढ़े गए

Recommended News

Related News