अल्पसंख्यक रिपोर्ट : अमरीका पहले अपने गिरेबान में झांके

Friday, Jun 28, 2019 - 04:10 AM (IST)

गत मंगलवार (25 जून) को अमरीकी विदेश मंत्री माइक पोम्पिओ द्विपक्षीय वार्ता हेतु 3 दिवसीय भारत दौरे पर दिल्ली पहुंचे। इस दौरान उनकी भेंट प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, विदेश मंत्री एस. जयशंकर,राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल सहित अन्य पदाधिकारियों से हुई, जो कूटनीतिक, व्यापारिक और सामरिक दृष्टिकोण से काफी महत्वपूर्ण भी रही। किंतु भारत आगमन से पहले पोम्पिओ ने अमरीकी विदेश विभाग की एक रिपोर्ट जारी की, जिसमें देश के भीतर कथित उग्र हिंदुओं द्वारा किए जा रहे तथाकथित मुस्लिम उत्पीडऩ का उल्लेख है, जिसे लेकर मोदी सरकार को कटघरे में खड़ा करने का भी प्रयास हुआ है। 

अब यह किसी से छिपा नहीं है कि भारत-अमरीका के बीच आयात शुल्कों को लेकर तनातनी किस स्तर पर है। अभी कुछ समय पहले ही अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने भारत को मिली विशेष व्यापारिक छूट वापस ले ली थी। इसके अतिरिक्त, भारत द्वारा रूसी हथियार एस-400 की खरीद भी अमरीका की आंखों में चुभ रही है। यदि इस पूरे घटनाक्रम के बीच इस रिपोर्ट के जारी होने के समय को भी नजरअंदाज कर दिया जाए, तब भी क्या विश्व के सबसे शक्तिशाली लोकतंत्र (अमरीका) को दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक राष्ट्र (भारत) को मानवाधिकारों पर उपदेश देने का कोई नौतिक अधिकार है? 

रिपोर्ट में है क्या
आखिर रिपोर्ट है क्या? अमरीकी विदेश विभाग की ओर से जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ, विशेषकर मुस्लिमों पर उग्र ङ्क्षहदू समूहों द्वारा भीड़ के हमले 2018 में भी जारी रहे और सरकार इन हमलों पर कार्रवाई करने में विफल रही। बकौल रिपोर्ट, ‘देश में कम से कम 24 राज्यों में गोवध पर पूर्ण रूप से प्रतिबंध है, जो अधिकतर मुसलमानों और अन्य अनुसूचित-जाति और अनुसूचित-जनजाति के सदस्यों को प्रभावित करता है।’ कठुआ मामले का उदाहरण देते हुए रिपोर्ट में कहा गया है कि धार्मिक अल्पसंख्यकों पर हमलों में कानून प्रवर्तनकर्मियों पर शामिल होने के आरोप थे। 

आखिर अमरीका को भारत की छवि धूमिल करने का साहस किसने दिया? भारत में 130 करोड़ से अधिक की जनसंख्या बसती है, जिसमें मुस्लिम आबादी 20 करोड़ है, तो ईसाई 2.8 करोड़। यदि विश्व में सर्वाधिक आपराधिक घटनाओं की बात करें, तो जनसंख्या के संदर्भ में भारत में औसतन 100 आपराधिक मामले सामने आते हैं, जिसमें विभिन्न समुदायों के लोग शामिल होते हैं। 

वर्ष 2014 में नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद उनके विरोधियों (राजनीतिक, वैचारिक और व्यक्तिगत) द्वारा देश में एक विकृत विमर्श स्थापित करने का प्रयास हुआ है, उसमें किसी भी श्रेणी के अपराध का शिकार यदि कोई ङ्क्षहदू है और उसमें अपराधी मुस्लिम या फिर किसी अन्य समुदाय से संबंध रखता है, तो वह देश के स्वघोषित सैकुलरिस्ट, वाम-उदारवादी और टुकड़े-टुकड़े गैंग के लिए एक सामान्य आपराधिक घटना बन जाती है। 

यदि स्थिति प्रतिकूल हो, जिसमें अपराध का शिकार मुस्लिम और अपराधी ङ्क्षहदू हो, तो इस जमात को देश के मुस्लिम खतरे में नजर आने लगते हैं। नारों में भारत को मुस्लिम विरोधी घोषित कर दिया जाता है। विशेष बुद्धिजीवी पुरस्कार वापस करने लगते हैं। पीड़ित परिवार के घर सांत्वना जताने के लिए नेताओं की भीड़ जुट जाती है और उन पर पैसों व उपहारों की बरसात कर दी जाती है। पिछले 5 वर्षों में मो.अखलाक, जुनैद, पहलू खान आदि मामलों में ऐसा ही घटनाक्रम देखने को मिला है, जिसमें भाजपा/संघ विरोध के लिए देश की सनातन संस्कृति और उसकी जीवंत बहुलतावादी परम्परा तक को शेष विश्व में कलंकित करने में कोई कमी नहीं छोड़ी गई। 

यदि वाम-उदारवादियों और स्वयंभू बुद्धिजीवियों के आरोपों को आधार बनाया जाए, तो क्या अखलाक, जुनैद, पहलू खान या फिर तबरेज आदि की हत्या उनके मुस्लिम होने के कारण हुई है? यदि वाकई ऐसा होता तो क्या इन प्रत्येक मामलों में मृतक के अन्य सहभागियों और परिजनों आदि को भी नुक्सान नहीं पहुंचाया जाता? क्या ऐसा हुआ? नहीं। 

देश में मुसलमानों की स्थिति
देश में मुस्लिमों की स्थिति क्या है? क्या यह सत्य नहीं कि उन्हें बहुसंख्यकों की भांति समान संवैधानिक अधिकार और कुछ मामलों में अधिक स्वतंत्रता प्राप्त है? क्या यह सत्य नहीं कि स्वतंत्रता के समय देश में जो मुस्लिम आबादी 4 करोड़ भी नहीं होती थी, वह आज 20 करोड़ हो गई है? क्या अमरीका ने अपनी तथाकथित रिपोर्ट में इन तथ्यों का संज्ञान लिया? भारतीय विदेश मंत्रालय ने जहां इस रिपोर्ट को सिरे से खारिज कर दिया है, वहीं सत्तारूढ़ भाजपा इसे मोदी सरकार और दल के प्रति पूर्वाग्रह से प्रेरित बता रही है। क्या यह सत्य नहीं कि इन अधिकतर मामलों में स्थानीय विवाद और आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों का हाथ रहा है? क्या बतौर प्रधानमंत्री, नरेन्द्र मोदी ने संसदीय संबोधन सहित कई अवसरों पर इस प्रकार की हिंसक घटनाओं की निंदा करते हुए सार्वजनिक रूप से विधिसम्मत सख्त कार्रवाई करने की बात नहीं की है? 

अमरीका में मानवाधिकारों का हनन
इस पृष्ठभूमि में विश्व के सबसे समृद्ध, प्रगतिशील और विकसित राष्ट्रों में से एक अमरीका की स्थिति क्या है? यह किसी विडम्बना से कम नहीं कि मानवाधिकार हनन के लिए भारत पर उंगली उठाने वाले ट्रम्प प्रशासन ने अपने देश में हो रहे मानवाधिकार हनन और नस्लीय हिंसा का संज्ञान तक नहीं लिया। अमरीकी खुफिया जांच एजैंसी एफ.बी.आई. की एक रिपोर्ट के अनुसार, अमरीका में वर्ष 2017 में हिंदुओं, सिखों और मुस्लिमों के खिलाफ अपराधों सहित 6,000 से अधिक घृणा अपराध दर्ज किए गए, जोकि वर्ष 2015 की तुलना में 5 प्रतिशत, तो वर्ष 2014 के मुकाबले 10 प्रतिशत अधिक हैं। बात केवल ट्रम्प प्रशासन तक सीमित नहीं है। विगत 2 दशकों से मानवाधिकारों को लेकर अमरीका का रवैया रसातल में रहा है। ग्वांटेनामो जेल में जहां कैदियों से अमरीकी अधिकारियों का व्यवहार सोवियत संघ के वामपंथी तानाशाह जॉसेफ  स्टालिन से कम क्रूर नहीं था। 

भारत में जब भी किसी पर अत्याचार होता है, चाहे वह अल्पसंख्यक ही क्यों न हो, सभ्य समाज इसकी घोर ङ्क्षनदा करता है और आरोपी न्यायिक प्रक्रिया से गुजरता है। इसके विपरीत आज भी अमरीका में अधिकांश अश्वेतों-विशेषकर अफ्रीकी मूल के अमरीकी नागरिकों को उसके सत्ता-अधिष्ठान द्वारा ही प्रताडि़त किया जाता है। क्या यह सत्य नहीं कि निहत्थे और निरपराध अश्वेतों को आज भी श्वेत पुलिसकर्मी मनमाने तरीके से आज भी गोलियों से भून डालते हैं? 

इस संबंध में वर्ष 2014 की एक घटना न केवल विचलित करने वाली है, अपितु वह अश्वेतों के प्रति अमरीकी श्वेतों की ‘व्हाइट मैन्स बर्डन’ मानसिकता को भी उजागर करती है। उस वर्ष 22 नवम्बर को ओहायो स्थित एक घर के बाहर अश्वेत समुदाय का 12 वर्षीय किशोर तमिर राइस अपने पिस्तौल रूपी खिलौने के साथ खेल रहा था, तभी गश्त पर निकला पुलिसिया वाहन वहां रुका और उसमें सवार एक श्वेत पुलिसकर्मी ने बिना किसी चेतावनी के निरपराध किशोर को गोली मारकर मौत के घाट उतार दिया। 

इसी तरह 2014 में ही पश्चिमी अमरीकी में मिसूरी पुलिस ने 18 साल के एक निहत्थे अश्वेत माइकल ब्राऊन को उस समय गोली मार दी थी, जब वह पुलिस के सामने आत्मसमर्पण करना चाह रहा था। माइकल की एक दुकान में किसी बात को लेकर मालिक के साथ झड़प हो गई थी, इसके बाद पुलिस को बुलाया गया। जैसे ही पुलिस घटनास्थल पर पहुंची, उसने उस अश्वेत को गोली मार दी। अमरीका में अश्वेतों पर अत्याचार का काला इतिहास है। सन् 1555 से लेकर 1865 तक अधिकांश अफ्रीकियों को गुलामी के लिए जबरन अमरीका में लाया गया, जहां उनसे पशु तुल्य व्यवहार किया जाता था। 

इस अमरीकी रिपोर्ट की पृष्ठभूमि में प्रश्न यह भी उठता है कि भारत को मजहब के आधार पर बांटने का घृणित काम किसने किया था? क्या 1947 में भारत का रक्तरंजित विभाजन वामपंथी विचारधारा, साम्राज्यवादी ब्रिटेन और इस्लामी कट्टरवाद के संयुक्त प्रयासों का परिणाम नहीं था? स्पष्ट है कि यदि भारत में भय, लालच और प्रलोभन के माध्यम से मतांतरण को बढ़ावा दिया जाएगा या फिर ‘काफिर-कुफ्र’ और ‘बुतपरस्त’ दर्शनशास्त्र के माध्यम से भारत के मूल बहुलतावादी चरित्र, संरचना और कालजयी सनातनी स्वभाव से छेड़छाड़ या इसे खत्म करने का प्रयास किया जाएगा, तो नि:संदेह इसका समाज में प्रतिकार होगा।-बलबीर पुंज
 

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