बाढ़ की आपदा को रोकने और उसे अवसर में बदलने की नीति बने

punjabkesari.in Saturday, Jul 22, 2023 - 05:21 AM (IST)

वर्षा एक प्राकृतिक उपहार है। पहली फुहार में भीगने का आनंद ही कुछ और है। हल्की बूंदें, शीतल वायु शरीर को सुहाती हैं। चारों दिशाओं में प्रकृति का सौंदर्य दिखाई पड़ता है। श्रावण मास की यही महिमा है। जब यही वर्षा इतनी हो जाए कि सहन करना कठिन हो जाए, कुदरत का कहर बन जाए, जीवन अस्त-व्यस्त हो जाए और मनुष्य त्राहिमाम कर उठे, तब इसे आपदा बनने में देर नहीं लगती। गरजते बादल डराते हैं, पानी की कल-कल करती ध्वनि कर्कश लगती है और नदियों से निकलता संगीत दहाड़ बनकर भयभीत करता है। बहाव तेज होता जाता है और जो भी सामने आए, उसे लीलने को तैयार जल विभीषिका बन जाता है, बाढ़ का रूप धर लेता है, सब ओर पानी ही पानी दिखाई देता है और तब यह प्राकृतिक प्रकोप बन जाता है। 

इसका मतलब यह कि हमने वर्षा रूपी प्राकृतिक उपहार को ग्रहण करने की क्षमता का विकास नहीं किया। हमने जलमित्र बनकर उसका स्वागत करने के लिए आवश्यक प्रबंध नहीं किए। गंगा ने भी धरती पर तब अवतरण किया, जब शिवजी ने अपनी जटाओं में उसे समेट लिया और राजा भगीरथ ने उसे उसकी दिशा दिखाई। 

वर्षा की अवहेलना यानी मुसीबत बुलाना : सभी मौसम हर साल अपने साथ अपनी विशेषताएं लेकर आते हैं। वर्षा के मामले में हम यह भूल कर देते हैं कि उसे कुछ महीने का मान लेते हैं, जबकि यह ऐसी ऋतु है जो समाप्त होने पर भी अपना असर पूरे साल रखती है। बारिश होने पर यदि जल संग्रह कर लिया और उसके संरक्षण के लिए ताल, तलैया, बांध और दूसरे उपाय कर लिए तो पूरे वर्ष पीने, सिंचाई करने और घरेलू इस्तेमाल के लिए उसकी कमी नहीं होगी। साल भर नदियों की सफाई नहीं की, उसमें जमा हो गई गाद को नहीं निकाला गया, पानी के रास्ते में आने वाली रुकावटों को लगातार हटाया नहीं गया और जितने भी उपकरण, संयंत्र और प्लांट लगे हैं, बराबर उनकी देखभाल नहीं की गई तो वर्षा का रौद्र रूप धारण कर लेना स्वाभाविक है। 

एक उदाहरण हाल ही का है। जब दिल्ली डूबने लगी, रिहायशी बस्तियों में पानी भरने लगा और जनजीवन बिखरने लगा तो ध्यान आया कि जल निकासी के लिए जो दरवाजे बने थे, वे जाम हो चुके थे क्योंकि मुद्दत से उनकी देख-रेख अर्थात मैंटीनैंस ही नहीं हुई थी और उन्हें खोलने के लिए सेना तक को बुलाना पड़ा। जब तक ये खुलते, दिल्ली का बहुत बड़ा हिस्सा डूबने के कगार पर पहुंच चुका था। 

एक दूसरा उदाहरण, पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और उत्तर प्रदेश तथा बिहार में हर साल पहाड़ों के दरकने, बादलों के फटने, ग्लेशियरों के पिघलने और नदियों के बहाव में तेजी आने की घटनाएं होती हैं। हमने वन विनाश किया, पेड़ों की अंधाधुंध कटाई की, नदियों के मार्ग में निर्माण कार्यों से अवरोध खड़े कर दिए, किनारों पर रिहायशी बस्तियां बसा दीं और उद्योग खड़े कर दिए। यहां तक कि नैशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल का आदेश मानने की मजबूरी को ही समाप्त कर केवल उसे सलाह देने वाली संस्था बना दिया, जिसका कहा हम मानें या न मानें। परिणाम यह हुआ कि बड़े औद्योगिक घरानों को नदियों के इलाकों को बेचकर वहां बिजली घर और दूसरे उद्योग लगवा दिए, जिनसे एक ओर पानी के निकलने का रास्ता बंद हो गया और दूसरी ओर जहरीले रसायनों ने जल प्रदूषित कर दिया। पानी में रहने वाले जीव भी विनाश लीला में समा गए। सड़कें बन गईं और तेज गति से वाहन दौडऩे लगे। हमने विकास के नाम पर कुदरत के साथ जिस हद तक भी हो सकता था, खूब खिलवाड़ किया। 

नदियां वैसे भी अपना रास्ता बदलने के लिए जानी जाती हैं, इसलिए जहां से रास्ता मिला, बहने लगीं। जब अति हो गई और इंसान ने उन्हें नष्ट करने और उन पर कब्जा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी तो हमें सबक सिखाने के लिए उन्हें अपना विकराल या विराट स्वरूप तो दिखाना ही था। चंडीगढ़ हमारे देश के अनूठे और आधुनिक शहरों में गिना जाता है। इसके कारण आसपास के इलाके जैसे पंचकूला, मोहाली, जीरकपुर, खरड़, डेरा बस्सी भी विकसित होते गए, जमीन की कीमतें बढऩे लगीं और इन जगहों पर रहना शान की बात समझी जाने लगी। यहां नदियों का रास्ता पाट दिया गया, बरसाती नालों के ऊपर निर्माण हो गया और ड्रेनेज सिस्टम पर अतिक्रमण हो गया। इसे समझने के लिए दिल्ली की मिसाल भी ले लीजिए। यमुना के किनारे इतने अवैध निर्माण हुए, जिन्हें बाद में कानूनन कर दिया गया जिससे नदी का दम घुट गया। 

प्रकृति का बदला : अब कुदरत का खेल देखिए। जब पानी ने बाढ़ का रूप लिया तो इन राज्यों के ये सभी इलाके उसकी चपेट में आ गए। दिल्ली में राजघाट, आई.टी.ओ., यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट तक पानी आ गया। यही हाल चेन्नई, बेंगलुरु, मुंबई, गुवाहाटी, पटना से लेकर उन सभी प्रदेशों के बड़े शहरों का हुआ, जिन्होंने विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों के दोहन से लोगों को अपनी जड़ों से उखाडऩे का काम किया। यही नहीं, जहां झीलें हैं हमने उन्हें आपस में जोड़े रखने की व्यवस्था को ही खत्म कर दिया। अभी भी समय है। यह जान लीजिए कि प्रति वर्ष वर्षा में बढ़ौतरी होना निश्चित है। उसके कारणों का विश्लेषण करने की बजाय इतना समझना काफी है कि ग्लोबल वार्मिंग और प्रदूषण के कारण बर्फ  के पिघलने की रफ्तार बढ़ती रहेगी। नदियों में जल स्तर हर साल खतरे के निशान को पार करेगा। हमारे देश में लगभग साढ़े 5 हजार छोटे-बड़े बांध हैं। अधिक वर्षा से उनके टूटने का खतरा हमेशा बना रहने वाला है, खासतौर पर वे बांध, जिनका निर्माण सभी नियमों को ताक पर रखकर किया गया है। उनसे जो तबाही हो सकती है, उसकी कल्पना आज नहीं की और जरूरी कदम समय रहते नहीं उठाए तो निकट भविष्य में विनाश लीला का तांडव होना तय है। 

वर्षा को बाढ़ का रूप न लेने देने और आपदा को अवसर में बदलने का केवल एक उपाय है कि जल प्रबंधन इस तरह से हो कि समुद्र में गिरने से पहले उसे हम अपनी जरूरत, क्षमता और उपयोगिता के आधार पर रोकने की व्यवस्था कर लें, जल संरक्षण के उपायों को प्राथमिकता दें तथा बाढ़ नियंत्रण का स्थायी और नियमित प्रबंध करें। इसमें जल भंडारण सबसे प्रमुख है। विनाश से बचा जा सकता है, बशर्ते सही वक्त पर सही निर्णय लेकर दृढ़ता से कदम उठाए जाएं।-पूरन चंद सरीन   
    


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