कोलकाता की घटना दो शक्तियों के बीच ‘संघर्ष’ की प्रतीक

punjabkesari.in Friday, Feb 08, 2019 - 03:49 AM (IST)

गत दिनों पश्चिम बंगाल में जिस प्रकार का घटनाक्रम सामने आया, वह वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में अस्वाभाविक प्रतीत नहीं होता। पिछले साढ़े 4 वर्षों में कांग्रेस, तृणमूल, सपा, बसपा, राजद जैसे स्वघोषित सैकुलरिस्टों ने पहले संविधान, न्यायिक, ई.वी.एम., असहिष्णुता और अब संघीय ढांचे के नाम पर मोदी सरकार को कटघरे में खड़ा करने का प्रयास किया है। विचारणीय बात यह है कि पिछले 56 महीनों में ऐसा क्या हुआ है जिससे इन विपक्षी दलों को अनुभव हो रहा है कि स्वतंत्र भारत में यह सब पहली बार हो रहा है? विगत 5 फरवरी को पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने बड़े ही नाटकीय ढंग से सी.बी.आई. जांच के खिलाफ अपना धरना समाप्त कर दिया। इस स्थिति का कारण क्या है और क्यों ममता बनर्जी अपना तथाकथित ‘‘भारत बचाओ,संघीय ढांचा बचाओ’’ धरना खत्म करने लिए मजबूर हुईं? 

इस विकृति की जड़ें 3 फरवरी के उस घटनाक्रम में हैं, जिसमें शारदा चिटफंड घोटाले को लेकर कोलकाता पुलिस आयुक्त राजीव कुमार से पूछताछ करने पहुंचे सी.बी.आई. अधिकारियों को प्रदेश सरकार के निर्देश पर हिरासत ले लिया गया था। इसके बाद मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने आक्रामक अंदाज के साथ राजीव कुमार के समर्थन में सड़क पर धरने की घोषणा कर दी, जिसे तुरंत कांग्रेस, सपा, राजद, ‘आप’, नैशनल कांफै्रंस सहित अधिकांश विपक्षी दलों का समर्थन मिल गया। विरोधाभास की पराकाष्ठा देखिए, जिस मामले में कांग्रेस का राष्ट्रीय नेतृत्व ममता बनर्जी के समर्थन में कूद पड़ा, उसी की प्रदेश इकाई धरने को संविधान और लोकतंत्र विरोधी बता रही है। पश्चिम बंगाल कांग्रेस के अध्यक्ष और लोकसभा सांसद अधीर रंजन चौधरी के अनुसार, सी.बी.आई. जांच से घबराकर ममता बनर्जी धरने पर बैठी थीं।

खास बात यह रही कि इस धरना-प्रदर्शन को आम आदमी पार्टी के शीर्ष नेता अरविंद केजरीवाल का भी समर्थन प्राप्त हो गया, जो वर्ष 2011-12 में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के जनज्वार पर सवार होकर दिल्ली के मुख्यमंत्री पद पर पहुंचे हैं और मोदी विरोध के नाम पर अब भ्रष्टाचार की नींव को ही मजबूत करने में जुटे हैं। मामला जब सर्वोच्च न्यायालय में पहुंचा, तब अदालत ने 5 फरवरी को सुनवाई करते हुए कोलकाता पुलिस आयुक्त राजीव कुमार को शिलांग में सी.बी.आई. के समक्ष प्रस्तुत होने का निर्देश दे दिया। शीर्ष अदालत ने कहा, ‘‘राजीव कुमार को सी.बी.आई. पूछताछ में परेशानी क्या है? वह जांच में सहयोग करें।’’ 

भ्रम पैदा करने का प्रयास
विपक्षी दलों के साथ-साथ मीडिया के एक वर्ग द्वारा यह भ्रम पैदा करने का प्रयास किया जा रहा है कि लोकसभा चुनाव से कुछ हफ्ते पहले और मोदी सरकार के दबाव में सी.बी.आई. राजीव कुमार से पूछताछ करने पहुंची थी। आखिर सच क्या है? क्या सी.बी.आई. ने पहली बार शारदा और रोजवैली घोटाला मामले में कोई कार्रवाई की है? क्या विपक्षी दल और उनके बौद्धिक समर्थकों (मीडिया के एक वर्ग सहित) के लिए शारदा और रोजवैली घोटाला काल्पनिक है? जिन लाखों लोगों ने लालच में आकर अपनी जीवनभर की बचत पूंजी को खो दिया, क्या वे झूठे हैं? और वे लोग उन मौतों के बारे में क्या कहेंगे, जिसमें पैसे डूबने से आहत लोगों ने आत्महत्या कर ली थी? 

शारदा चिटफंड और रोजवैली घोटाला पश्चिम बंगाल में भ्रष्टाचार के बड़े मामले हैं, जिनमें लाखों निवेशकों के लगभग 20 हजार करोड़ रुपयों की हेराफेरी की गई थी। अप्रैल 2014 में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर सी.बी.आई. शारदा मामले की जांच कर रही है, जिसमें प. बंगाल पुलिस को भी जांच में सहयोग करने का अदालती आदेश था। मामले में दोषी करार और शारदा के संरक्षक सुदीप्तो सेन से पूछताछ और एकत्र साक्ष्यों के आधार पर सी.बी.आई. ने पिछले 4 वर्षों में मदन मित्रा, शृंजॉय बासु, कुणाल घोष जैसे तृणमूल कांग्रेस के कई नेताओं की गिरफ्तारी, तो श्यामापद मुखर्जी, सोमेन मित्रा जैसे तृणमूल नेताओं से पूछताछ की है। ममता सरकार में मंत्री रहे मदन मित्रा को दिसम्बर 2014 में गिरफ्तार किया गया था, जिन्हें जेल में 629 दिन बिताने के बाद अदालत से जमानत मिल पाई थी। इसी तरह वर्ष 2016 से रोज वैली घोटाले की जांच कर रही सी.बी.आई. ने कुछ माह पूर्व तृणमूल कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सुदीप बंदोपाध्याय और तपस पॉल की गिरफ्तारी की थी।

पूछताछ की जरूरत क्यों
यक्ष प्रश्न यह है कि सी.बी.आई. राजीव कुमार से पूछताछ क्यों करना चाहती है? शारदा चिटफंड घोटाले पर पश्चिम बंगाल सरकार ने विशेष जांच दल (एस.आई.टी.) बनाया था, जिसके प्रमुख राजीव कुमार थे। मीडिया रिपोटर््स के अनुसार, शारदा समूह के मुखिया सुदीप्तो सेन की सहयोगी देबजानी मुखर्जी ने बताया था कि एस.आई.टी. ने उनके पास से एक लाल डायरी, पैनड्राइव सहित कुछ महत्वपूर्ण दस्तावेज जब्त किए थे। तब से ही सी.बी.आई. इन साक्ष्यों की तलाश कर रही है। कहा जाता है कि उस डायरी में चिटफंड से रुपए लेने वाले नेताओं के नाम थे, जिसे गायब करने का आरोप कोलकाता के पुलिस आयुक्त राजीव कुमार पर लगा है। 

साक्ष्य मिटाने के आरोपी के पक्ष में जिस प्रकार मुख्यमंत्री ममता बनर्जी सहित सभी मोदी विरोधी दलों के नेता लामबंद हो गए और सी.बी.आई. की कार्रवाई को संघीय ढांचे पर प्रहार और संवैधानिक संकट की संज्ञा देने लगे, वे उस समय क्यों चुप रहे जब बीते दिनों पश्चिम बंगाल के बालुरघाट में रैली को संबोधित करने जा रहे उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के हैलीकॉप्टर को ममता सरकार ने उतरने नहीं दिया था? इसी तरह, जब 2010 में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी से विशेष जांच दल ने 2 बार घंटों पूछताछ की थी और तत्कालीन गृहमंत्री अमित शाह को सी.बी.आई. ने गिरफ्तार किया था, तब क्यों देश में संकट की स्थिति उत्पन्न नहीं हुई थी? इस दोहरी मानसिकता का कारण उस राजनीतिक, वैचारिक और व्यक्तिगत घृणा में है, जिसमें तथाकथित सैकुलरिस्टों और उदारवादियों के लिए स्वस्थ संविधान लोकतंत्र का प्रतीक है, किंतु अपने कुनबे के किसी भी व्यक्ति की गिरफ्तारी या उसके विरुद्ध अदालती निर्देश- देश में संवैधानिक और लोकतांत्रिक संकट का बड़ा कारण बन जाता है।

विशेषाधिकार संस्कृति
सच तो यह है कि पिछले 72 वर्षों से कांग्रेस, विशेषकर नेहरू-गांधी परिवार ने जिस ‘‘विशेषाधिकार संस्कृति’’ को देश में प्रतिपादित किया है, जिसमें स्वयं को संविधान, नियम-कानून और लोकतांत्रिक मूल्यों से ऊपर मानने की परम्परा और जो वह कहे, उसे अकाट्य/ब्रह्म-वाक्य मानने और उसके अनुसार शासन करने की मानसिकता है, इसी विकृति से देश के अधिकांश विपक्षी दल ग्रसित हैं। इस पृष्ठभूमि में इस बात का अंदाजा लगाना अधिक कठिन नहीं है कि क्यों शारदा घोटाले की जांच के खिलाफ ममता बनर्जी को नैशनल हेराल्ड आयकर चोरी मामले में आरोपी राहुल गांधी, चारा घोटाला मामले में दोषी लालू प्रसाद यादव, खनन घोटाले की जांच में घिरे अखिलेश यादव सहित चंद्रबाबू नायडू और अरविंद केजरीवाल सहित अधिकांश विपक्षी दलों का समर्थन एकाएक मिल गया। 

वास्तव में, कोलकाता का घटनाक्रम दो शक्तियों में संघर्ष का प्रतीक है। इसमें एक पक्ष का प्रतिनिधित्व कांग्रेस, तृणमूल सहित वे विपक्षी दल कर रहे हैं, जो उस पुरानी वांछित व्यवस्था के पक्षधर हैं, जिसमें किसी भी समझौते में कमीशनखोरी हो, भ्रष्टाचार की छूट हो, आरोपी निश्चित होकर बिना रोक-टोक देश-विदेश घूमने के लिए स्वतंत्र हो, जवाबदेही मुक्त शासन हो और राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के रूप में समानांतर संविधानेत्तर केन्द्र को स्थापित करने की व्यवस्था हो। इसी संघर्ष के दूसरे पक्ष की अगुवाई वह नेतृत्व कर रहा है, जो उपरोक्त इन सभी विकृतियों से मुक्त नए भारत का निर्माण करना चाहता है। क्या यह सत्य नहीं कि कड़े कानून और दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति के कारण देश छोड़कर भाग चुके आॢथक अपराधियों को कूटनीतिक मार्ग से वापस स्वदेश लाने का प्रयास हो रहा है? हाल ही में मोदी सरकार की कूटनीतिक कोशिशों के कारण ही ब्रिटेन के गृहमंत्रालय ने भगौड़े विजय माल्या के प्रत्यर्पण की स्वीकृति दी है। इससे पहले, अगस्ता वेस्टलैंड घोटाला मामले में क्रिश्चियन मिशेल, राजीव सक्सेना और दीपक तलवार को भारत वापस लाया जा चुका है। 

यहां बात केवल माल्या तक सीमित नहीं है, केन्द्र सरकार नीरव मोदी, मेहुल चोकसी, चेतन संदेसरा, ललित मोदी सहित 58 आॢथक भगौड़ों को देश वापस लाने के लिए संबंधित देशों से प्रत्यर्पण, इंटरपोल से रैड कार्नर नोटिस और लुक आऊट नोटिस जारी करने की मांग कर चुकी है। इस सूची में यूरोपीय बिचौलिए गुईडो राल्फ हाश्चके और कार्लो गेरोसा का भी नाम शामिल है। विगत साढ़े 4 वर्षों में मोदी सरकार के इन भ्रष्टाचारियों को देश वापस लाने के प्रयास और घोटालों पर सख्त कार्रवाइयों से वर्तमान विपक्षी दल देश में अपने लिए वांछित और सुविधाजनक वातावरण नहीं होने से किंकर्तव्यविमूढ़ और हत्प्रभ हैं। कोलकाता का राजनीतिक नाटक, उसी असहजता का परिणाम है।-बलबीर पुंज


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