न्याय सिर्फ होना ही नहीं, दिखना भी चाहिए

punjabkesari.in Saturday, Mar 18, 2023 - 06:00 AM (IST)

पुलिस एवं न्यायालय दोनों न्याय के सोपान होते हैं। पीड़ित व्यक्ति के लिए जहां पुलिस न्याय का पहला पड़ाव है वहां न्यायालय एक  आखिरी व महत्वपूर्ण आशा की किरण की तरह होता है। मगर जब दोनों पड़ावों पर असहाय व्यक्ति को वांछित सकून न मिल पाए तब कानून के विश्वास पर गहरी चोट लगती है। पुलिस के लिए किसी अपराधी को पकडऩा और फिर जमानत पर छोड़ देना ही काफी नहीं है बल्कि पीड़ित के साथ सच्ची सहानुभूति रखना तथा तफतीश को सही मुकाम पर पहुंचाना और भी महत्वपूर्ण होता है।

वास्तव  में पीड़ित व्यक्ति को इस बात का एहसास व विश्वास करवाना भी आवश्यक होता है कि अपराधियों के साथ कड़ी पूछताछ की गई है। पीड़ित व्यक्ति को कई बार इस बात का पता ही नहीं चलता और उसे बताया भी नहीं जाता है कि गवाहों का बयान क्या लिखा गया है और जघन्य अपराधों में अपराधी की जमानत न होने के लिए पुलिस ने क्या-क्या प्रयत्न किए हैं। कई बार पुलिस वास्तविक तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर  रिपोर्ट दर्ज कर लेती है तथा अपराधियों को अनुचित लाभ पहुंचाने की कोशिश की जाती है तथा इसी तरह केस को बिना वजह से लम्बित रखा जाता है तथा अपराधी सरेआम दनदनाते रहते हैं।

ऐसे खूंखार व बेरहम अपराधियों को वन्धित नहीं करवाया जाता तथा न्याय खुले तौर पर लहूलुहान होता रहता है। पुलिस भले ही उचित व निष्पक्ष ढ़ंग से कार्रवाई कर रही हो मगर अब भी तफतीश का पारम्परिक व वर्षों से चलता हुआ रिवाज नहीं बदला जा रहा है। कई बार अपराधियों को उनके द्वारा किए गए गुनाहों के अनुरूप कानूनी दायरे में न लाकर उनसे ज्यादती या पक्षपात कर दिया जाता है। यह भी देखा गया है कि पुलिस किसी अपराधी को अपनी हिरासत में रखने के लिए न्यायालय से गुहार करती रहती है तथा हिरासत समाप्त होने के बाद अपराधी को न्यायिक हिरासत में भेजने के लिए इस बात का वर्णन करते हुए सिफारिश की जाती है कि वह गवाहों को डरा-धमका सकता है या फिर कहीं भाग सकता है तथा जज साहिब भी पुलिस की सिफारिश को यथावत उचित मानते हुए अपराधियों  को अनिश्चित समय की न्यायिक हिरासत बढ़ा देते हैं।

ऐसे हालातों में अपराधी को अपने जुर्म से अधिक सजा भुगतने को मजबूर कर दिया जाता है। हालांकि भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167 व 468 के अंतर्गत पुलिस को अपनी तफतीश की एक निश्चित परिसीमा बढ़ाने का अधिकार है मगर फिर भी  यह चाहिए कि  तफतीश को कम से कम समय में पूरा करके न्यायालय में भेजा जाए। वर्ष 2010 में भारतीय दंड़ प्रक्रिया संहिता की धारा 41 में संशोधन किया गया तथा पुलिस को 7 वर्ष की सजा से कम वाले अपराधों में मुलजिमों को जमानत पर छोडऩे के लिए अधिकृत किया गया है।

ऐसा इसलिए किया गया कि पुलिस आमतौर पर छोटे-मोटे अपराधों में भी लोगों की जमानत नहीं होने देती थी तथा वकीलों का एक बहुत मकडज़ाल जमानत करवाने के लिए ऐसे अपराधियों से मनचाहे पैसे वसूलते रहते थे। जज को तो परमात्मा का रूप माना जाता है क्योंकि वह किसी  की जिंदगी ले भी सकता और दे भी सकता है। संविधान ने उन्हें अपार शक्तियां प्रदान की हैं, जिनका उपयोग वे अपने विवेक के अनुसार कर सकते है मगर शायद पद की नजाकत की वजह से कई बार कुछ जज साहिब विवेक का सही व पूर्ण उपयोग नहीं कर पाते तथा पीड़ित/अपराधी दोनों को उचित समय पर न्याय नहीं मिल पाता।

कुछ जज किसी न किसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त भी होते हैं तथा अपने पद की गरिमा का बिल्कुल ध्यान नहीं रखते हैं। न्याय न सिर्फ होना चाहिए अपितु दिखना भी चाहिए की उक्ति महान रोमन सम्राट जुलियस सीजर के इस वक्तव्य से ली गई है कि उसकी पत्नी न केवल संदेह रहित बल्कि संदेह  से परे होनी चाहिए। यह बात उसने तब कही थी जब उसे पता लगा कि उसकी पत्नी पोम्पिया के संबंध कलोडियस नामक व्यक्ति से हो गए हैं तथा उसने इसी संशय के आधार पर उसे तलाक दे दिया था।

उसने कहा था कि जो लोग उच्च पद पर सुशोभित हुए होते हैं उन्हें थोड़ा भी अनौचित्य व अनैतिक कार्य नहीं करना चाहिए तथा यदि वे ऐसा कर बैठते हैं तो उन्हें अनुकरणीय सजा दी जानी चाहिए। इस वक्तव्य से एक बहुत बड़ी सीख मिलती है कि उच्च पदों पर तैनात व्यक्तियों का आचरण बिल्कुल संदेह से परे होना चाहिए तथा वे आम लोगों के रक्षक व पालक होने चाहिएं।

न्यायिक सिद्धांत में अक्सर यह कहा जाता है कि चाहे सौ गुनहगार छूट जाएं मगर किसी एक निर्दोष को सजा नहीं मिलनी चाहिए मगर दिल्ली हाईकोर्ट ने एक मामले की सुनवाई के दौरान स्पष्ट किया था कि जज की यह जिम्मेदारी है कि किसी निर्दोष को सजा न हो लेकिन उसे यह भी सुनिश्चित करना होगा कि कोई गुनहगार सजा से बचकर जा न पाए। यह दोनों ही बातें सार्वजनिक रूप से महत्वपूर्ण हैं। देखा गया है कि कई विचाराधीन कैदी जेल में ही दम तोड़ देते हैं।

न्याय का इंतजार करते करते उनकी आंखें पथरा जाती हैं तथा वो मानसिक तनाव के मरीज बन जाते हैं। जजों को ऐसे मुलाजिमों की दयनीय स्थिति पर संवेदनशील बनना चाहिए। वकीलों और पुलिस के कहने पर ही पेशी पर पेशी देकर ही अपना कार्य पूर्ण नहीं  कर लेना चाहिए। जस्टिस अमिताब राय सीमिति ने विचाराधीन कैदियों के संबंध में कुछ सुझाव दिए हैं जिनमें से कुछ सुझाव इस तरह हैं... छोटे-छोटे अपराधों में संलिप्त कैदी जो जमानत देने में असमर्थ हो उन्हें व्यक्तिगत पहचान बांड पर रिहा कर देना चाहिए। ऐसे अपराधों में जेल भेजने की बजाय जुर्माना/चेतावनी या अच्छे चरित्र के प्रोबेशन पर छोड़ देना चाहिए। -राजेन्द्र मोहन शर्मा डी.आई.जी. (रिटायर्ड)


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