चतुर, कर्मठ और परिश्रमी महिलाओं की पहचान करना आवश्यक

punjabkesari.in Saturday, Mar 08, 2025 - 06:51 AM (IST)

प्रति वर्ष अनेकों दिवस दुनिया भर में मनाए जाते हैं। बहुत से तो केवल परिपाटी की तरह होते हैं, कुछ कोई विशेष घटना की स्मृति ताजा रखने के लिए और थोड़े से वे जिनका असर हमारी जीवन शैली, सोच और क्रियाकलापों पर पड़ता है। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस इसी श्रेणी में आता है क्योंकि यह आधी आबादी से संबंधित है।

चतुर और चालाक : इसमें कोई संदेह नहीं कि ईश्वर ने महिलाओं को गर्भ से ही चतुर बनाया है। जन्म के बाद जैसे-जैसे आयु बढ़ती है, उनमें चालाकी, चुलबुलापन और उसके साथ ही मासूमियत बढ़ती जाती है। घर परिवार में उन्हें नटखट और नादान समझा जाने लगता है, उनकी किसी बात को टालना मुश्किल होता है और अक्सर उनकी मनमानी को भी सामान्य समझ कर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता।  इसके मूल में एक बात तो यह होती है कि लड़की को हमेशा दूसरे घर की धरोहर समझ कर ही उसके साथ व्यवहार किया जाता है। शायद इसी कारण बहुत से परिवारों में लड़की के जन्म पर खुश न होने की परंपरा शुरू हुई होगी और लड़का होने पर ढोल ताशे और धूमधाम से उसका इस संसार में आने पर स्वागत करने की मानसिकता पनपी होगी।

चतुराई और चालाकी का जब कुटिलता से संगम हो जाता है तब इस प्रवृत्ति की महिलाओं के लिए यह सोने पर सुहागा होता है। उनके लिए कुछ भी ऐसा नहीं होता जो उन्हें उनकी इच्छा पूरी करने या कुछ भी हासिल करने से रोक सके। प्रकृति द्वारा प्राप्त कोमलता और सुंदरता का उपयोग कहां करना है और इन दोनों तत्वों का इस्तेमाल छल-कपट से अपना स्वार्थ पूरा करने के लिए कैसे करना है, यह उनका जन्मजात गुण होने से उन्हें सफलता मिल ही जाती है। वर्तमान दौर में अगर चतुर महिलाओं के बारे में सोचना शुरू करें तो सबसे बड़ा नाम श्रीमती इंदिरा गांधी का लिया जा सकता है। उनमें चतुरता और कुटिलता का ऐसा संगम था कि वे राजनीति के शिखर तक पहुंच गईं और उन्होंने एक बार कुछ भी निश्चय कर लेने के बाद पीछे हटना स्वीकार नहीं किया, चाहे उसके लिए कोई भी उपाय अपनाया जाए। 

उन्हें लौह महिला कहकर पुकारना पड़ा और पुरुष समाज उनके लिए केवल ताश की ऐसी जोड़ी थी जिसे वे अपने अनुसार जब चाहे फेंट लेती थीं और प्रतिद्वंद्वी के सामने कोई विकल्प नहीं छोड़ती थीं सिवाय उनकी बात मानने और उनके आगे समर्पण करने के। वे तो खैर बहुत ही समझबूझ वाली और प्रतिष्ठित परिवार से थीं लेकिन एक अन्य महिला का नाम लिया जाए तो वह बिहार की श्रीमती राबड़ी देवी का है। वे बहुत कम पढ़ी लिखी लेकिन दृढ़ और आत्मविश्वास से भरी मुख्यमंत्री सिद्ध हुईं और उनके लिए राजनीति करना एक चतुर खिलाड़ी की तरह दांव पेंच लगाकर अपना काम बनाना सिद्ध हुआ। परंतु बात वही कि महिलाओं का यह नैसर्गिक या ईश्वर प्रदत्त गुण होता है कि वे जो चाहें, जब चाहें और जिस किसी के भी साथ चाहें, अपनी बात मनवाने के लिए कैसा भी आसान या निष्ठुर कदम उठा सकती हैं, अब उससे किसी का जीवन और मान सम्मान तक खतरे में भी हो तो उन्हें कोई दिक्कत नहीं होती।

कर्मठता के मानदंड : महिलाओं की यह स्थिति आज के डिजिटल युग और आधुनिक टैक्नोलॉजी के इस्तेमाल से और भी सुगम हो गई है। यह उनके लिए बाएं हाथ का खेल हो गया है कि वे इसका उपयोग किसी को ब्लैकमेल कर बर्बाद करने के लिए करें या जीवन को बेहतर बनाने के लिए या समाज में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए। यहीं से उन महिलाओं की श्रेणी निकलती है जिन्हें कर्मठ और मेधावी कहा जाता है। इनके लिए शारीरिक सुंदरता किसी को अपने मोहपाश में बांधने के लिए नहीं होती बल्कि स्वयं को शिक्षित और अपने लक्ष्य के प्रति समर्पित रहने के लिए होती है। इनमें अध्यापक जिनका उद्देश्य अपने विद्यार्थियों का चरित्र निर्माण, वैज्ञानिक जिनका लक्ष्य नवीनतम अनुसंधान, समाजसेवक जिनका लक्ष्य समाज से कुरीतियों को समाप्त करना, स्वास्थ्य सेवाओं में नियुक्त डाक्टर और चिकित्सा से जुड़े नॄसग जैसे महत्वपूर्ण पदों का निर्वहन करना, राजनीति के व्यवसाय में शामिल होकर देश को दिशा प्रदान करना और इसी तरह के कार्य हैं। मदर टैरेसा से लेकर कल्पना चावला और सुनीता विलियम्स और अनेकों प्रसिद्ध और गुमनाम महिलाएं इस श्रेणी में आती हैं जिन्हें कोई जानता हो या नहीं, उनके किए गए कार्यों का लाभ एक पीढ़ी तक ही सीमित नहीं रहता बल्कि युग युगांतर के लिए होता है।

परिश्रम की पराकाष्ठा: जहां एक और ऐसी महिलाएं हैं जिनका जीवन एक स्वच्छ धारा या यूं कहें कि जीवन के लिए जरूरी सभी चीजों से भरा हुआ है और वे अपनी योग्यता से वह पाने के यत्न करती रहती हैं जो उनका अधिकार है। इसके विपरीत ऐसी महिलाएं जिनकी संख्या बहुत अधिक है और जीवन जिनके लिए किसी भी प्रकार समय काटना और जो कुछ मिल जाए उससे संतुष्ट रहना है। परिश्रमी, मेहनत मजदूरी कर परिवार चलाने वाली और कुछ भी न होते हुए सब कुछ होने जैसी बातें करते हुए जीवित रहना ही सबसे बड़ी बात है। ये घरों में काम करती हैं, सड़कों पर झाड़ू लगाती हैं और माता-पिता से लेकर पति और बच्चों तक की उपेक्षा का शिकार होने के लिए मजबूर हैं, उनकी बात विश्व महिला दिवस पर न हो तो इसकी उपयोगिता क्या है और यह कितना प्रासंगिक हो जाता है कि ऐसी महिलाओं को केवल जीने भर की आज़ादी है वरना उनके जीवन में सब कुछ खाली ही होता है। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर यही कहना है कि महिलाओं को आत्मनिर्भर बनने दीजिए, उन्हें मुफ्तखोरों की तरह जीवन जीने की राह दिखाने के परिणाम सही नहीं होंगे और पूरी पीढ़ी के साथ अन्याय होगा।-पूरन चंद सरीन
 


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