अध्यादेश जारी करना क्या कानून के शासन की उपेक्षा नहीं?

punjabkesari.in Wednesday, May 24, 2023 - 04:43 AM (IST)

वास्तविक भूल यह है कि हम भूल से कुछ नहीं सीखते। यह बात केन्द्र द्वारा राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली संशोधन अध्यादेश 2023 के बारे में सटीक बैठती है। शुक्रवार को उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ के निर्णय को निष्प्रभावी करने के लिए केन्द्र सरकार ने यह अध्यादेश जारी किया। उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ ने अपने निर्णय में दिल्ली में सेवाओं और नौकरशाही का नियंत्रण दिल्ली सरकार को दिया था और यह निर्णय रेखांकित करता है कि निर्वाचित सरकार के माध्यम से व्यक्त जनादेश लोकतंत्र में सर्वोपरि है। ‘आप’ इस निर्णय की समीक्षा के लिए पुन: न्यायालय में गई है और पुन: एक टकराव की पृष्ठभूमि तैयार हो गई है। 

केन्द्र अध्यादेश जारी करने को यह कहते हुए उचित ठहराती है कि दिल्ली एक विशेष दर्जे का संघ राज्य क्षेत्र है, जहां पर केन्द्र की एक महत्वपूर्ण भूमिका है। ‘आप’ सरकार अधिकारियों का स्थानांतरण कर भ्रष्टाचार के मामले में स्वयं को बचाने का प्रयास कर रही है। हम दिल्ली की प्रशासनिक प्रणाली को बचाने का प्रयास कर रहे हैं। यह कोई बड़ा मुद्दा नहीं, जिसे आप द्वारा उछाला जा रहा है। 

एक अध्यादेश द्वारा संवैधानिक सिद्धान्तों की किस सीमा तक उपेक्षा की जा सकती है और क्या संसद इस अध्यादेश को स्वीकृति देगी? क्या एक अध्यादेश लोकतांत्रिक प्रक्रिया को पलट सकता है? इस निर्णय को उचित ठहराने के लिए अनेक तर्क दिए जा रहे हैं। कुछ लोगों का कहना है कि अध्यादेश तब आवश्यक हो जाते हैं, जब कार्यपालिका यह महसूस करती है कि न्यायालय के निर्णय से उसकी मौलिक प्राथमिकताओं की उपेक्षा की गई है और अनेक सरकारों ने इसका प्रयोग किया है। अनेक देशों में राष्ट्रीय राजधानी के शासन के संबंध में विशेष प्रावधान हैं। न्यायालय ने स्वयं कहा है कि दिल्ली सरकार की शक्तियां संसद के कानून के अधीन हैं, इसलिए केन्द्र ने अपने अधिकारों की सीमा में एक नया कानून बनाया। 

हालांकि विश्व के अनेक परिपक्व लोकतंत्रों में इसका उपयोग नहीं किया जाता और यह माना जाता है कि इसका प्रयोग ऐसे मामलों में किया जाएगा, जहां पर अत्यावश्यक हो और जहां पर विपक्ष और समाज की राय उपलब्ध न हो। संविधान में, जब संसद का सत्र न चल रहा हो तो, सरकार को अध्यादेश जारी करने की शक्ति प्रदान की गई है। संविधान में यह प्रावधान किया गया है कि आपात स्थितियों में सरकार को जब किसी कानून में संशोधन करने या नए कानून लाने के लिए तत्काल कदम उठाने हों तब अध्यादेश जारी किया जा सकता है। 

केन्द्रीय मंत्रिमंडल द्वारा अध्यादेश को मंजूरी देने के बाद राष्ट्रपति इसे अपनी स्वीकृति देते हैं और अध्यादेश कानून बन जाता है। तथापि सरकार को इस अध्यादेश को संसद की पहली बैठक के 6 सप्ताह के भीतर उसके समक्ष रखना होता है। अध्यादेश को एक विधेयक के रूप में लाना होता है और संसद इस पर चर्चा के बाद इसे स्वीकार या अस्वीकार कर सकती है या इसमें कुछ संशोधनों के साथ इसे स्वीकार कर सकती है। यदि किन्हीं कारणों से इस प्रक्रिया का अनुकरण नहीं किया जाता तो अध्यादेश एक निश्चित समय सीमा के भीतर समाप्त हो जाता है। राष्ट्रपति इस अध्यादेश को वापस भी भेज सकते हैं। यह भी आवश्यक है कि संसद का सत्र 6 माह की अवधि के भीतर हो। 

नि:संदेह प्रत्येक सरकार ने कानून बनाने के लिए अध्यादेश का सहारा लिया किंतु मोदी सरकार के कार्यकाल में अध्यादेश जारी करना विवादास्पद बन गया। आपको स्मरण होगा कि केन्द्र तीन कृषि कानूनों को जून 2020 में अध्यादेश के माध्यम से लाया था, जिनका व्यापक विरोध हुआ। इन तीनों कृषि कानूनों को उस वर्ष मानसून सत्र में संसद द्वारा कानून बनाया गया, किंतु एक वर्ष बाद किसानों के निरंतर विरोध-प्रदर्शनों के बाद उन कानूनों को निरस्त किया गया। पी.आर.एस. लैजिस्लेटिव रिसर्च और लोकसभा के आंकड़ों के अनुसार, यू.पी.ए. सरकार ने 2004 से 2014 के बीच 61 अध्यादेश जारी किए, किंतु मोदी के नेतृत्व में राजग सरकार ने 2014 के बाद 76 अध्यादेश जारी किए हैं। यह बताता है कि सरकार कानून बनाने के लिए कार्यपालिका के मार्ग को प्राथमिकता देती है और संसद से परामर्श या उसकी स्वीकृति के बिना विधायी संशोधन को जल्दबाजी में लाती है। 

1950 से 2014 के बीच 679 अध्यादेश जारी किए गए अर्थात प्रति वर्ष औसतन 11 अध्यादेश। इनमें से 456 अध्यादेश 6 कांग्रेसी प्रधानमंत्रियों द्वारा 50 वर्ष की अवधि में जारी किए गए। नेहरू ने 1962 से 1964 के दौरान 17 अध्यादेश जारी किए। उनकी पुत्री इंदिरा गांधी ने 1971 से 1977 के बीच 77 अध्यादेश जारी किए अर्थात प्रत्येक 2 माह के भीतर 3 अध्यादेश। राजीव गांधी के 5 साल के कार्यकाल के दौरान 35 अध्यादेश जारी किए गए। इन सभी प्रधानमंत्रियों की संसद में बहुमत की सरकार थी। नरसिम्हा राव की अल्पमत सरकार ने अपने 5 वर्ष के कार्यकाल में 77 अध्यादेश जारी किए और फिर भी कांग्रेस मोदी सरकार पर हमला करती है। 

रोचक तथ्य यह भी है कि वामपंथी दलों द्वारा समॢथत संयुक्त मोर्चा सरकार, जिसे कांग्रेस बाहर से समर्थन कर रही थी, ने 1996 से 1998 की अवधि के दौरान देवगौड़ा और गुजराल के प्रधानमंत्री कार्यकाल के दौरान केवल 61 विधेयक पारित किए किंतु प्रति माह 3 अध्यादेश की दर से 77 अध्यादेश जारी किए। वाजपेयी के नेतृत्व में राजग सरकार ने 1998 से 2004 के दौरान प्रति वर्ष 9 अध्यादेश की दर पर 58 अध्यादेश जारी किए। मनमोहन सरकार की यू.पी.ए.-1 सरकार के दौरान 36 और यू.पी.ए.-2 सरकार के दौरान 225 अध्यादेश जारी किए गए। 

शायद कम लोगों को पता है कि संविधान सभा के वाद-विवादों में अध्यादेश जारी करने के बारे में गंभीर आशंकाएं व्यक्त की गई थीं। के.टी. शाह ने कहा था कि अध्यादेश जारी करना कानून के शासन की उपेक्षा करना है। उनकी ङ्क्षचता थी कि जब सरकार साधारण परिस्थितियों का सामना करने के लिए भी अध्यादेश जारी करती है तो हमें इस तथ्य को नजरंदाज नहीं करना चाहिए कि यह बिना वाद-विवाद और चर्चा के जारी किया गया है। उच्चतम न्यायालय ने 2017 में कृष्ण कुमार मामले में निर्णय दिया कि किसी अध्यादेश को पुन: जारी करना संवैधानिक दृष्टि से उचित नहीं है क्योंकि यह विधायी निकायों की शक्तियों और एक संसदीय लोकतंत्र में जिसके पास कानून बनाने की प्राथमिक शक्ति है, का अतिक्रमण करना है। 

फिर इस समस्या का समाधान क्या है? राजनीतिक प्रणाली तथा और अध्यादेश के बारे में वर्तमान राजनीतिक मूल्यों में बदलाव लाने के लिए लंबा संघर्ष करना होगा। यह केवल भाजपा बनाम ‘आप’ या किसी अन्य दल का मुद्दा नहीं है। लोकतांत्रिक मूल्यों पर बारंबार हमला अस्वीकार्य है। राजनीतिक नैतिकता और जवाबदेही सुशासन और स्थिरता के लिए सर्वोपरि है। जनता को टकराव और विवाद नहीं चाहिए।-पूनम आई. कौशिश


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