निरंकुश होता जा रहा भारतीय राजतंत्र

punjabkesari.in Sunday, Oct 17, 2021 - 05:19 AM (IST)

भारतीय राजतंत्र लगातार निरकुंश होता जा रहा है। अपने विरुद्ध कोई भी आवाज, आंदोलन या टिप्पणी इसे बेचैन कर देती है। इस विरोध के कारणों को जानने की बजाय मौजूदा राज्य प्रबंध खुद को ‘सही’ सिद्ध करने के लिए विरोधी पक्ष की खामियां खोजने को प्राथमिकता देता है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए देश की खुफिया एजैंसियां, आयकर विभाग, ई.डी. तथा प्रशासन का जितना दुरुपयोग मोदी सरकार द्वारा किया जा रहा है, शायद इतिहास में पहले ऐसी मिसाल नहीं मिलती। 

न्याय प्रणाली के एक हिस्से ने जहां प्रधानमंत्री कार्यालय के ‘आदेश’ को पूरी तरह से स्वीकार कर लिया है, वहीं संविधान, देश प्रति प्रतिबद्धता रखने वाले जज साहिबानों ने सच व असूलों का परचम आज भी अपने हाथों में थामा हुआ है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा लखीमपुर खीरी की घटना से निपटने के तरीकों पर यू.पी. सरकार व पुलिस विरुद्ध बहुत ही गंभीर टिप्पणियां की गई हैं। इसी तरह सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिन मदन बी लोकुर का 3 अक्तूबर को लखीमपुर खीरी में हुई ङ्क्षहसक घटना बारे, जिसमें चार किसानों को केंद्रीय मंत्री के पुत्र द्वारा कार के नीचे कुचल कर शहीद कर दिया गया, केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्रा को इस्तीफा देने या उसे बर्खास्त करने की बुलंद आवाज इसका एक जीता-जागता उदाहरण है। 

मीडिया के एक बड़े हिस्से ने अपनी अंतर्रात्मा के विवेक को पूरी तरह गिरवी रख दिया है। वह निष्पक्ष पत्रकारिता या आजाद मीडिया वाला रोल त्याग कर पैसे तथा शोहरत के पीछे भाग रहा है। लखीमपुर खीरी की घटना, जिसमें 8 लोगों की जान चली गई, किसान आंदोलन बारे लोगों को सच बताने की बजाय उनका सारा जोर मोदी सरकार की प्राप्तियों, आतंकवादी घटनाओं, धर्म केन्द्रित साम्प्रदायिक बहसों व मुम्बई में फिल्मी सितारों के बेटों तथा नजदीकियों के ‘ड्रग्स कांड’ को देश हित में बड़ी घटनाओं की तरह घंटों प्रसारित करने पर लग जाता है। 

यू.पी. में हिंदुवादी संगठनों के सदस्यों द्वारा की जाती ङ्क्षहसक साम्प्रदायिक कार्रवाइयां, अल्पसंख्यक समुदाय के विरुद्ध नफरतपूर्ण प्रचार तथा दलित समाज व महिलाओं के विरुद्ध किए जाते अत्याचारों की रोशनी में दोषियों को कटघरे में खड़ा करने की बजाय किसी न किसी बहाने पीड़ित पक्षों को ही दोषी ठहराया जाता है। बड़ी गिनती में लोगों को मीडिया पर किया जाता झूठा प्रचार अब काफी हद तक झूठा तथा मनगढ़ंत लगने लग पड़ा है, इस पर संतोष किया जाना चाहिए। 

इस तरह के माहौल में जब शासक पक्षों द्वारा सारे प्रशासन के खुफिया तंत्र तथा मीडिया के बड़े हिस्से को डरा कर या लालच देकर अपनी ओर कर लिया जाए तो फिर सरकारों से अपने कामों के लिए लोगों तथा कानून के प्रति जवाबदेही का नैतिक तथा संवैधानिक फर्ज अदा करने की आशा कैसे की जा सकती है? 14 फरवरी 2019 को जम्मू-कश्मीर के अत्यंत सुरक्षित क्षेत्र में सेना तथा अर्धसैनिक बलों के जा रहे बड़े काफिले पर आतंकवादी हमले में 40 जवानों के शहीद होने बारे की गई जांच अभी तक सार्वजनिक नहीं की गई, सुरक्षा के नजरिए से इन दर्दनाक मौतों के लिए कौन से अधिकारी या एजैंसी जिम्मेदार है? कोई जांच की भी गई या नहीं, इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। 

सुप्रीमकोर्ट तथा निचली अदालतों द्वारा ‘देशद्रोह’ के मामलों के अधीन चलाए जाते मुकद्दमों तथा पुलिस रिकार्ड में दर्ज दोषियों की गलत जानकारी बारे की जाती सरकार विरोधी टिप्पणियों का संतोषजनक उत्तर भी नहीं दिया जाता। यहां तक कि केंद्रीय मंत्रियों द्वारा लोकसभा तथा राज्यसभा में दी जाती झूठी या अद्र्ध सच्ची जानकारी भी सदन की ‘मानहानि’ नहीं समझी जाती। महंगाई, बेरोजगारी, भुखमरी से मौतों जैसे गंभीर मामलों के ब्यौरे तथा आंकड़ों सहित दी जाने वाली जानकारी को सरकार द्वारा रोक लिया जाता है। फिर ‘जवाबदेही’ का तो प्रश्र ही नहीं उठता। 

इसी तरह ‘पी.एम. केयर्स’, जो कोरोना महामारी से निपटने के लिए फंड स्थापित किया गया था, के लिए चंदा देश की तीनों सेनाओं, पब्लिक सैक्टर के उपक्रमों तथा सरकारी अधिकारियों के दबाव में बहुत से सरकारी स्कूलों, अस्पतालों तथा अन्य विभागों के कर्मचारियों से एकत्र किया गया, जिसे ‘निजी फंड’ का रूप दिया गया है, जिसकी कोई जांच-पड़ताल अथवा पूछताछ नहीं हो सकती। यह सब कुछ उस समय हो रहा है जब मोदी सरकार बेशक भारतीय संविधान के अनुसार कार्य करने का ङ्क्षढढोरा पीट रही है लेकिन हकीकत में संविधान की मूल भावना को बिना संविधान बदले पूरी तरह से तबाह किया जा रहा है। 

विरोधियों को कोई विशेष पुस्तक पढऩे के बहाने या शक के आधार पर देश की शांति के लिए खतरे के तौर पर बिना किसी सबूत या जांच के जेल में डाल दिया जाता है। बिना किसी अदालती कार्रवाई के सालों तक ‘बेगुनाह दोषी’ जेलों मे गलता-सड़ता रहता है। अनेक बार ऐसे ‘बेगुनाह दोषी’ अदालतों द्वारा कोई सबूत न मिलने के कारण बाइज्जत बरी कर दिए जाते हैं।  तब तक वे जीवन के अंतिम पड़ाव तक पहुंच चुके होते हैं। इस तरह के मामलों में किसी अदालत अथवा सरकारी तंत्र द्वारा कभी कोई अफसोस या क्षमा-याचना नहीं की जाती। तो क्या वर्तमान लोकतांत्रिक प्रणाली को ‘वास्तविक लोकतंत्र’ का नाम दिया जा सकता है? या आजादी प्राप्ति के संघर्ष की तरह इस मुद्दे पर अगली लड़ाई लड़ी जानी अभी बाकी है? यह निर्णय हम सामान्य लोगों ने ही करना है।-मंगत राम पासला


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