‘भारतीय नस्लवाद’ बहुत बड़ी चिंता का विषय

punjabkesari.in Saturday, Feb 13, 2016 - 12:51 AM (IST)

गत दिनों उत्तरी बेंगलूर में भीड़  द्वारा एक तंजानियाई लड़की पर पाशविक हमला और उससे कुछ दिन पूर्व हैदराबाद के संभ्रांत बंजारा हिल  इलाके में एक नाइजीरियाई नागरिक पर हमला सरासर नस्लवादी कुकृत्य हैं जिन्होंने शर्म से हमारे सिर झुका दिए हैं। हमने आधुनिक भारत के इस स्वरूप की तो अभिलाषा ही नहीं की थी। आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में तो ‘भारतीय आत्मा’ होनी चाहिए थी, जो कि अन्य मान्य प्राणियों की गरिमा और सम्मान का हमेशा ही ख्याल रखती है। 
 
बेंगलूर-हैदराबाद किस्म के जघन्य नस्लवादी कुकृत्य ‘भीड़ की मानसिकता’ के बहाने न्यायसंगत नहीं ठहराए जा सकते जैसा कि कर्नाटक के गृह मंत्री जी. परमेश्वर ने भयावह घटना होने के बाद गत 31 जनवरी को कहा था, न ही ऐसी बातों को अमन कानून का मामला कहकर इनकी अनदेखी की जा सकती है। 
 
जहां तक कुछ अफ्रीकी विद्याॢथयों की अवैध और अशोभनीय गतिविधियों का सवाल है, वे अलग मुद्दे हैं जिन्हें मौजूदा राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय के दायरे में बहुत सलीके से निपटाया जा सकता है। नशीले पदार्थों और इनसे संबंधित अन्य मुद्दों को भारतीय समाज के एक वर्ग की नस्लवादी मानसिकता के साथ गडमड नहीं किया जाना चाहिए। 
 
यह सत्य है कि स्थानीय भीड़ के उत्पात से विदेशियों का बचाव करने के मामले में हमारे पुलिसियों के पास न तो सही प्रशिक्षण है और न ही सही प्रवृत्ति तथा न ही वांछित संवेदनाएं। दूसरी ओर केवल मानवीय नहीं बल्कि महिला अधिकार के मुद्दे भी दाव पर लगे हुए हैं और इन मुद्दों के बहुत दूरगामी अन्तर्राष्ट्रीय परिणाम हो सकते हैं। वास्तव में वैश्विक स्तर पर भारत की छवि इस आधार पर बनती या बिगड़ती है कि हम अपने यहां सैर-सपाटे के लिए आने वाले विदेशी पर्यटकों और अध्ययन के लिए आने वाले विद्याॢथयों के प्रति किस प्रकार पेश आते हैं। 
 
भारत में इस समय शिक्षा ग्रहण कर रहे अफ्रीकी विद्याॢथयों की संख्या भी कोई कम नहीं है। यदि हमारे आई.टी. व्यवसाय के 2 प्रमुख केन्द्रों बेंगलूर और हैदराबाद में ही अफ्रीकी विद्याॢथयों को उचित मान-सम्मान नहीं मिलता तथा उनकी गरिमा का ख्याल नहीं रखा जाता तो हम प्राचीनकाल के नालंदा विश्वविद्यालय जैसी अपनी प्रतिष्ठा फिर से कैसे बहाल कर सकते हैं? कांग्रेस शासित कर्नाटक सरकार के नेताओं और यहां तक कि कानून मंत्रालय के प्रभारी भाजपा के केन्द्रीय मंत्री सदानंद गौड़ा ने इन घटनाओं के प्रति जिस प्रकार की प्रतिक्रिया व्यक्त की है, वह बहुत शर्मनाक है।
 
भाजपा के प्रवक्ता सुधांशु त्रिवेदी द्वारा बिना सोचे-समझे एक टी.वी. चैनल पर की गई टिप्पणियां भी कोई कम चिन्ताजनक नहीं हैं। यह स्पष्ट है कि हमारे राजनीतिक नेताओं  की बढ़ती संख्या की मानसिकता केवल लकीर के फकीर जैसी है। ऐसे लोग बहुत संवेदनशील राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दों से निपटने के मामले में बिल्कुल ही नि:कृष्ट होते हैं क्योंकि ऐसे मामलों में बहुत अधिक समझदारी, ज्ञान और परिपक्वता की जरूरत होती है। 
 
अब नेहरू के जमाने के वे दिन नहीं रहे जब 50 और 60 के दशक में एफ्रो-एशियाई एकता के नारे लगाए जाते थे। उन दिनों भारतीय लोगों के दिलो-दिमाग में अफ्रीकियों के प्रति बहुत सम्मान की भावना थी। इस स्थिति के लिए काफी हद तक भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की शांति, विकास और समाजवाद के मामले में वैश्विक दृष्टि जिम्मेदार थी। उन दिनों अफ्रीकी विद्याॢथयों को न केवल शिक्षण संस्थानों के परिसरों बल्कि भारतीयों के घरों में भी खुली बांहों से स्वीकार किया जाता था और उनके साथ दोस्ती बढ़ाई जाती थी। 
 
बेशक प्रधानमंत्री मोदी ने 2015 में भारत-अफ्रीका फोरम के शिखर सम्मेलन की दिल्ली में मेहमाननवाजी करने का बहुत बड़ा पराक्रम किया है, उसके बावजूद नेहरू के दौर के खुशियों भरे दिन कहीं गायब ही हो गए हैं। यह शिखर सम्मेलन बहुत भव्य था, फिर भी भारतीय विदेश नीति के कर्णधारों ने जिस बात की वर्षों से अनदेखी की  है वह है व्यापार, वाणिज्य, ऊर्जा, विज्ञान एवं टैक्नोलॉजी के ऊंचे-ऊंचे सरकारी लक्ष्यों के शोर में कला, संगीत, लोकनृत्य, पकवान इत्यादि के मामले में जमीनी स्तर पर औरयहां तक कि पारिवारिक स्तरों पर लोगों में आपसी आदान-प्रदान तथा मेल-मिलाप व दोस्ती के बंधनों की अनदेखी। 
 
तात्कालिक तौर पर हमारे सामने चिन्ता का विषय है: भारतीय नस्लवाद। यह एक बहुत ही क्रूर वास्तविकता है। हम दुनिया में रंगभेद के प्रति सबसे अधिक प्रतिक्रिया दिखाने वाले लोग हैं। भारतीय अखबारों के वैवाहिकी स्तंभों में जरा दृष्टिपात करके देखें तो आपके सामने आधुनिक  भारत के असली चेहरे की मोटी-सी छवि उभर आएगी। विडम्बना देखिए कि हमारा खून केवल उस समय खोलता है जब हमारे भारतीय लोगों को ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया, अमरीका या अन्य पश्चिमी देशों में गोरे नस्लवादी गुटों के हमले  का शिकार बनना पड़ता है। 
 
हम अमरीकी और ब्रिटिश नस्लवाद के विरुद्ध तो बहुत गला फाड़-फाड़ कर दुहाई देते हैं लेकिन पूर्वोत्तर के हमारे भारतीय बंधुओं के साथ राष्ट्रीय राजधानी के ऐन बीचों-बीच जिस तरह का व्यवहार होता है, उसके प्रति तो हम आंखें ही मूंदे रखते हैं। अपने आदिवासी बंधुओं के साथ हम जिस प्रकार का व्यवहार करते हैं, उसके मद्देनजर तो हमें शर्म में डूब जाना चाहिए। 
यहां असली समस्या है हमारे मानकों और मूल चरित्र का दोगलापन। राजनीतिज्ञों की तरह हम आम लोग भी सदा वह काम नहीं करते जिसकी हम दुहाई देते हैं।
 
 वास्तव में आज के सूचना युग में हम सूचना विसंगतियों (कम्युनिकेशन गैप्स) के बल पर ही फल-फूल रहे हैं। यह हमारी मानसिकता और रवैये की समस्या है। जीवन की रोजमर्रा की गतिविधियों के एक स्तर तक हो सकता है यह व्यवहार ठीक हो लेकिन जब हमारी व्यवस्था गंभीर खामियों से जूझ रही हो और इसके पूरी तरह ध्वस्त होने की स्थिति पैदा हो गई हो तो ऐसा व्यवहार निश्चय ही उचित नहीं। 
 
बेंगलूर की घटना ने नि:संदेह शासन तंत्र के प्रमुख अंगों की कारगुजारी की आधारभूत त्रुटियों को उजागर कर दिया है और इसके साथ ही भारत के महानगरों के प्रशिक्षित लोगों की संवेदनहीनता को भी। अबजरूरत इस बात की है कि हम कहीं अधिक व्यापक हो चुके परिप्रेक्ष्यों में समाज में अच्छे मानवीय रिश्तों के कईस्तरों पर नई चेतना पैदा करें। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने बेंगलूर प्रकरण के मामले में अपनी भूमिका बहुतअच्छी तरह से अदा की है लेकिन उनको पहले से ऐसी बातों के बारे में सोचने और देश की नस्लवादी मानसिकता से निपटने के लिए सही उत्तरों की तलाश करनी होगी। 
 
 जरूरत इस बात की है कि विभिन्न मोर्चों पर रचनात्मक ढंग से लोगों को इस बारे में जागरूक करवाया जाए कि वर्तमान दौर तथा वैश्विक परिप्रेक्ष्य में मानवीय रिश्तों के परिचालन में कैसा व्यवहार अपनाना चाहिए और किन बातों से परहेज करना चाहिए। आखिर जीवन में विवेक और आवेश दोनों की ही एक जैसी जरूरत है। जमीनी हकीकत यह है कि दोहरे मापदंड हमारी प्रवृत्ति का हिस्सा बन चुके हैं। जब इनका संबंध दूसरों से होता है तो हम जोरदार शब्दों में निन्दा करते हैं लेकिन हम अंदर से कैसे हैं, इसके बारे में हम सब भली-भांति जानते हैं। 
 
नई दुनिया एक वास्तविकता है और यदि हम इसके अनुरूप सोचने के नए तरीके नहीं अपनाते तथा अफ्रीकी विद्याॢथयों को भारत में घर जैसा वातावरण उपलब्ध करवाने के लगातार प्रयास नहीं करते तो ‘नई दुनिया’ हमारे प्रति भी कोई नरमी नहीं बरतेगी। हमारी प्रभावशीलता इस बात पर निर्भर करती है कि हम अपनी मानसिकता में रचे-बसे नस्लवाद की प्रवृत्ति को नई दिशा प्रदान करें और अपनी सामाजिक व्यवस्था का जुगाड़ भी नए सिरे से ठीक करें। 
 

सबसे ज्यादा पढ़े गए

Recommended News

Related News