काबुल को स्थिर करने की कोशिश में भारत, रूस, चीन और ईरान

punjabkesari.in Monday, Dec 19, 2022 - 04:37 AM (IST)

20 साल के कब्जे के बाद अगस्त 2021 में जब से अमरीकियों ने अफगानिस्तान छोड़ा है देश सूचना के लिहाज से एक शून्य स्थान बन गया है। छिटपुट रूप से ऐसी रिपोर्टें हैं कि सशस्त्र बंदूकधारियों ने काबुल में चीनियों के बीच लोकप्रिय एक होटल को निशाना बनाया था। इससे पहले रूसी पत्रकारिता रूसी दूतावास में हुए विस्फोट के बारे में विवरण खोज रही थी। दूतावास को इतना निशाना पहले कभी नहीं बनाया गया। शिया पूजा स्थलों पर बार-बार हमला किया गया है। यह एक ऐसी बेअदबी है जो पड़ोसी ईरान को विचलित करती है। ईरान इस समय विरोध की चपेट में है जो खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा। क्या मैं चीन, रूस, ईरान जैसे उन सभी देशों का उल्लेख करूं जिन्हें पश्चिम ने नए शीत युद्ध के लिए दूसरी ओर खड़ा किया है? आप देखेंगे कि

ऊपर बताई गई घटनाओं के विवरण कम हैं। क्या यह बात अजीब नहीं लगती कि पूरे 20 वर्षों के लिए जब अमरीकियों ने उस अद्भुत देश पर कब्जा कर लिया था तब वहां मीडिया की काफी उपस्थिति थी। यह मीडिया ज्यादातर अमरीका और ब्रिटेन से संबंधित था। जब अमरीका ने अभूतपूर्व पैमाने पर अफगानिस्तान में गोलियों की आतिशबाजी करके व्यापक वैश्विक प्रभुत्व का संकेत दिया था तो पश्चिम मीडिया ने काबुल से लेकर तोरा-बोरा की गुफाओं तक रिपोॄटग की। वह पत्रकार जो मेरे दिमाग पर बना रहा और मैंने उसके बारे में अक्सर लिखा है, वे गेराल्डो रिवेरा थे जो कैमरे के सामने बंदूक चलाते थे। यह ओसामा बिन लादेन को मारने के लिए था। 

एंग्लो-सैक्सन मीडिया ने अमरीका की घटती लोकप्रियता की कहानियों को रिपोर्ट करने के लिए महसूस किया। जैसा कि ‘नीले पर हरे रंग’ की आवृति में वृद्धि हुई तो ऐसा प्रतीत होने लगा कि अमरीकी सेना ने सभी नकारात्मक कहानियों पर पर्दा डाल दिया है। ‘नीले पर हरा रंग’ एक शब्द था जिसका इस्तेमाल नाटो गठबंधन द्वारा प्रशिक्षित अफगान सैनिकों द्वारा किया जाता था। इन सैनिकों का इस्तेमाल पश्चिमी सैनिकों को मार गिराने के लिए किया गया। 

किसी भी पैमाने से यह एक ऐसी कहानी थी जिसका विश्लेषण किया जाना चाहिए। अफगान स्वाभिमान, गर्व और बिचौलियों तथा दलालों को छोड़ कर स्थानीय आबादी के साथ किसी भी तरह के तालमेल को स्थापित करने में अमरीकी अक्षम थे। दूसरे शब्दों में कहें तो पश्चिम को गौरवान्वित करने वाली कहानियों को बढ़ाया गया जोकि शॄमदा करने वाली थी। सोवियत संघ के पतन के बाद से अधिकांश अंतरराष्ट्रीय समाचार पश्चिमी सैन्य कार्रवाई, घुसपैठ, आक्रमण तथा हवाई हमले के बारे में रहे हैं। यह कहानियां स्वयं ही एक पश्चिमी एकाधिकार बन जाती हैं। यदि अमरीका तीसरीदुनिया के किसी देश के खिलाफ युद्ध छेड़ रहा है तो पश्चिमी पत्रकार के कार्य करने के लिए पश्चिमी सैन्य सुरक्षा एक आवश्यक पूर्व शर्त बन जाती है। 

डिक चेनी ने 3 अप्रैल 2001 को ईराक पर आक्रमण को कवर करने के लिए अंतॢनहित पत्रकारों को नियमित किया। भारतीय पत्रकारों पर इसका कोई असर न हुआ क्योंकि विदेशी मामलों को कवर करने वाला कोई भारतीय पत्रकार नहीं था। उसने यांत्रिक रूप से किसी भी पश्चिमी स्रोत जैसे ए.पी., राइटर्स, ए.एफ.पी., बी.बी.सी., वी.ओ.ए., न्यूयार्क टाइम्स वगैरह से समाचार के माध्यम से भिक्षा मांगने के लिए अपना हाथ बढ़ाया। क्या महान संपादकों ने विदेशी मामलों की कवरेज में एक सर्व शक्तिमान अंतर को नहीं देखा?

भारतीय मीडिया का किसी भी सार्क देश में कोई ब्यूरो नहीं है जिसमें अफगानिस्तान भी शामिल है। यह काबुल की काल कोठरी है जो मुझे इतनी निराशाजनक लगती है कि मैं पश्चिमी मीडिया पर कीचड़ उछालते हुए इधर-उधर भटक गया हूं। जिसने हमें एक महत्वपूर्ण कहानी में विफल कर दिया है। दूसरे दिन मुझे अफगानिस्तान के एक राजनयिक से मिलवाया गया।

राजनयिक ने कहा, ‘‘आप किसे रिपोर्ट करते हैं? तालिबान को तो किसी भी राज्य से मान्यता नहीं है। तो राजनयिक अपनी कूटनीति किसके साथ और किसकी ओर से करता है?’’ अंत में राजनयिक बोला, ‘‘हम अफगानिस्तान का प्रतिनिधित्व करते हैं।’’ अगले दिन यू-ट्यूब बेहद चौंकाने वाला था। नई दिल्ली के चाणक्यपुरी दूतावास परिसर में अफगान राजदूत का एक पत्रकार द्वारा साक्षात्कार लिया जा रहा था। उसके पीछे अफगानिस्तान का झंडा फहराया जा रहा था। तालिबान इस झंडे को नहीं पहचानते। इससे भी ज्यादा बेहूदा बात क्या हो सकती है कि उनके पीछे राष्ट्रपति अशरफ गनी की तस्वीर लगी हुई थी लेकिन अशरफ गनी डालरों से भरा हैलीकाप्टर लेकर अफगानिस्तान से भाग गए। धरती पर आखिर क्या चल रहा था?

रहस्य और गहरा जाता है जब आपको बताया जाता है कि ऐसे 70 राजदूत इधर-उधर भाग रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र में अधिगृहित अफगान सीट को मृत शासन के राजदूत द्वारा खाली नहीं किया गया है। उनके रख-रखाव के लिए कौन भुगतान करता है। अगले दिन जलमय खलीलजाद के प्रतिस्थापन अफगानिस्तान के लिए अमरीकी प्रतिनिधि थॉम्स वेस्ट संयुक्त राष्ट्र में राजदूत के साथ बातचीत कर रहे थे। मेरे संयुक्त राष्ट्र स्रोत के अनुसार वह नई दिल्ली और फिर जापान की यात्रा कर रहे थे जहां वह अक्सर जाते रहते  हैं। स्पष्ट रूप से जापान पर अफगान बुनियादी ढांचे में निवेश करने का काफी दबाव है। यह एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें चीनी दिखावे से दूर भाग रहे हैं। 

अनुमान तब लगता है जब तथ्य अनुपस्थित या फिर अस्पष्ट हों। आखिरकार ‘क्वाड’ को सक्रिय किया जाता है। भारत भी क्वाड में शामिल है जिसका मकसद चीन को बेअसर करना था। इस दौरान राजनयिक भारत, रूस और ईरान के बीच पिछले महीने मास्को में होने वाली वार्ता पर विचार कर रहे थे। जब राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने अफगानिस्तान पर चर्चा करने के लिए अन्य मध्य एशियाई राज्यों को आमंत्रित किया तो ईरान को इतना लाड-प्यार क्यों नहीं किया गया।  तब पता चलता है कि अफगानिस्तान से समाचार बहुत धीरे-धीरे प्रसारित हो रहे हैं। साथ ही उचित कूटनीति चल रही है लेकिन इसका कोई ठोस परिणाम नहीं निकला है। तालिबान ने काबुल तंत्र में अन्य लोगों को शामिल नहीं किया है। 

जाहिर तौर पर यही कारण है कि तालिबान सरकार के अधीन काबुल को अन्य राज्यों द्वारा मान्यता नहीं दी गई है। यह पहली बार नहीं है कि भारतीय प्रतिनिधि तालिबान से मिल रहे हैं। संक्षेप में कहें तो रूस, चीन, भारत, ईरान और अन्य मध्य एशियाई गणराज्य काबुल को स्थिर करने की कोशिश कर रहे हैं। रूस और चीन को चतुराई से बेअसर करने के लिए अमरीका और उसके नाटो सहयोगी अपने राजनीतिक सिरों की ओर से ठिकानों को छू रहे हैं।-सईद नकवी       


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