युद्ध शिक्षा को शिक्षण व्यवस्था का अंग बनाए भारत

punjabkesari.in Saturday, Mar 05, 2022 - 06:11 AM (IST)

यह एक एेतिहासिक तथ्य है कि हमारे सैनिकों ने अपने अदम्य साहस और वीरता से विदेशी हमलावरों को खदेड़कर देश की कीर्ति में चार चांद लगाए हैं। दूसरी वास्तविकता यह है कि युद्ध विराम होने के बाद चाहे पाकिस्तान हो या चीन, दोनों पक्ष जब शांति कायम करने के लिए समझौते के लिए बैठते हैं तो अक्सर युद्ध में विजय हासिल करने के बावजूद हमारा पलड़ा कमजोर रहता है। 

पाकिस्तान के साथ पहले युद्ध में विजय प्राप्त करने के बाद जिस बात पर अर्थात कश्मीर को लेकर जब हम लड़े तो यह समस्या हल हो जानी चाहिए थी लेकिन हुआ यह कि इसे संयुक्त राष्ट्र की दखलंदाजी के लिए छोड़ दिया गया जिसका परिणाम आज तक भुगत रहे हैं। हमेशा पाकिस्तान के साथ युद्ध की संभावना बनी रहती है। इसी प्रकार भारत-चीन युद्ध के बाद हमें लद्दाख के बहुत बड़े भू-भाग से हाथ धोना पड़ा। 1965 की लड़ाई में मिली जीत का लाभ उठाने से चूक गए और 1971 में पाकिस्तान के दो टुकड़े करने पर भी हम अधिक लाभ में नहीं रहे बल्कि बांग्लादेश के रूप में एक नया प्रतिद्वंद्वी खड़ा कर लिया। जहां तक चीन का संबंध है उसके साथ भारत के संबंधों को झटका तब लगा जब तिब्बत पर हमला कर उसने उसे अपने राज्य में मिला लिया और वह हमारा निकट पड़ोसी बन गया। चीन की विस्तारवादी नीति के कारण इसका परिणाम भारत-चीन सीमा विवाद और 1962 में युद्ध के रूप में सामने आया। 

दोस्त और दुश्मन : भारत और पाकिस्तान के बारे में कहा जा सकता है कि शायद ही दुनिया में ऐसे दो देश हों जो इतने समान हों लेकिन दोनों के बीच मैत्री न होकर शत्रुता हो। इसी तरह चीन ने दोस्ती की आड़ लेकर दुश्मनी निभाई। इस तरह दो विकट पड़ोसी मिल गए और दोनों ही मित्रता के आवरण में शत्रुआें की भूमिका निभाते रहते हैं। अक्सर कहा जाता है कि भारत को पाकिस्तान अथवा चीन में से किसी एक को अपना मित्र बना लेना चाहिए ताकि हर समय रहने वाले तनाव और युद्ध की आशंका को कुछ तो कम किया जा सके। 

मित्रता के लिए इन दोनों में से किसी एक को चुनना हो तो जहां तक सामथ्र्य की बात है चीन ने व्यापार हो या सामाजिक और आर्थिक विकास, अपना सिक्का दुनिया में जमा लिया है। पाकिस्तान इसमें कहीं नहीं ठहरता। मेड इन चाइना की धूम का डंका सब आेर बज रहा है। पाकिस्तान इसके मुकाबले कहीं नहीं है। भारत की यदि प्रतियोगिता है तो वह चीन से है, इसलिए क्या यह समझदारी नहीं होगी कि भारत चीन से हाथ मिलाकर बराबरी का रिश्ता कायम करे ताकि दुश्मनी कुछ तो कम हो! 

युद्ध की शिक्षा : रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध की गंभीरता को ध्यान में रखते हुए भारत के लिए जरूरी हो जाता है कि वह अपने नागरिकों के लिए एेसी शिक्षा की व्यवस्था करे जिसमें स्कूल से ही सेना से संबंधित विषयों की जानकारी विद्यार्थियों को होती रहे। इसका मतलब यह नहीं कि सैनिक प्रशिक्षण दिया जाए बल्कि यह है कि सिलेबस में युद्ध और उससे संबंधित नीतियों की समझ शामिल हो और विद्यार्थी एक विषय की तरह इसका अध्ययन करें। भारत के इतिहास पर दृष्टि डालें तो वैदिक काल से, विशेषकर गुरुकुल परंपरा में और उसके बाद भी विद्यार्थियों को युद्ध करने, चक्रव्यूह की रचना और उसका विध्वंस करने, विभिन्न अस्त्र-शस्त्रों के बारे में शिक्षित करने, लड़ाई में किस तरह के व्यवहार की अपेक्षा होती है जैसी बातों को एक विषय की तरह पढ़ाया जाता था। 

इसमें यह भी शामिल होता था कि युद्ध के दौरान घायल सैनिकों की चिकित्सा और मृत्यु होने पर उनके शवों की अंतिम क्रिया किस प्रकार हो। इसी के साथ युद्ध में सैनिकों के लिए पर्याप्त भोजन, युद्ध बंदियों के रखने की व्यवस्था और यदि विजय होती न दिखाई दे तो शत्रु के हाथ लगने से बचने की विधि तथा उन सभी वस्तुआें का ज्ञान देना शामिल था जिनकी सफल युद्ध संचालन में प्रमुख भूमिका रहती है। जब युद्ध शिक्षा को व्यापार, वाणिज्य, विज्ञान, अर्थशास्त्र, इतिहास तथा अन्य विषयों की भांति एक अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ाया जाएगा तो विद्यार्थी के सामने एक और विकल्प होगा, वह भारतीय सेनाआें में भी अपना भविष्य देख सकता है! सैनिक स्कूल उसके लिए उसी प्रकार उच्च शिक्षा के केंद्र होंगे जिस प्रकार अन्य विषयों की पढ़ाई के लिए वह उनसे संबंधित केंद्रों का चुनाव करता है और उनमें दाखिले के लिए कोचिंग और ट्रेनिंग हासिल करता है। 

युद्ध को शिक्षा का विषय बनाने का सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि लड़ाई होने पर कोई भी व्यक्ति अपने को असहाय महसूस नहीं करेगा बल्कि युद्ध क्षेत्र में न रहते हुए भी अपनी और अपने परिवार की रक्षा करने में समर्थ होगा। उसे पता होगा कि उसे क्या करना है जैसे कि शत्रु की चाल को समझना, उसके जासूसों की पहचान करना, युद्ध लड़ रहे सैनिकों की जरूरत के अनुसार जरूरी वस्तुआें की आपूर्ति बनाए रखना आदि। विद्यार्थी जीवन में ही यह पता होगा कि हमारे देश की सैन्य क्षमता क्या है। हथियारों के निर्माण और उन्हें खरीदने की प्रक्रिया और उनकी सॢवसिंग जैसी बारीकियों का ज्ञान उसके पास होने से एक सामान्य व्यक्ति युद्ध में भाग न लेते हुए भी अपना महत्वपूर्ण योगदान कर सकता है। 

युद्ध शिक्षा के पाठ्यक्रम में यह भी बताया जाए कि युद्ध विराम होने पर किस तरह से नैगोशिएशन करना है, उसकी प्रक्रिया शुरू करने से पहले किन बातों को ध्यान में रखते हुए बातचीत करनी है। युद्ध शिक्षा को शिक्षण व्यवस्था का अंग बनाए जाने के बारे में गंभीरता से सोचने का यही समय है।-पूरन चंद सरीन
 


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