इस महंगी राजनीति के दौर में कोई भी महाराष्ट्र की सत्ता खोना नहीं चाहता

punjabkesari.in Monday, Oct 28, 2024 - 05:25 AM (IST)

इस बार महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव कुछ ज्यादा ही महत्वपूर्ण होने जा रहा है। मतदाता जब 20 नवंबर को मतदान करेंगे तो अगली सरकार ही नहीं चुनेंगे, कुछ राजनीतिक दलों और नेताओं का भविष्य भी तय कर देंगे। मतदाता असली-नकली शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) का भी फैसला करेंगे। महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में दो-चार नहीं, बल्कि 16 राजनीतिक दल दाव लगा रहे हैं। बतौर निर्दलीय भी कुछ नेता अपनी किस्मत आजमाएंगे। संभव है कि कुछ चुनाव क्षेत्रों में उम्मीदवारों के नामों को एडजस्ट करने के लिए एक से अधिक इलैक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन की जरूरत पड़ जाए। 

बहरहाल सत्ता की मुख्य जंग सत्तारूढ़ महायुति यानी राजग और महा विकास अघाड़ी यानी ‘इंडिया’ गठबंधन के बीच ही होगी। दोनों के गठबंधनों में मुख्य रूप से 3-3 दल शामिल हैं। महायुति में भाजपा, एकनाथ शिंदे की शिवसेना और अजित पवार की राकांपा हैं तो महा विकास अघाड़ी में कांग्रेस, उद्धव ठाकरे की शिवसेना और शरद पवार की राकांपा हैं। उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली अघाड़ी सरकार गिरा कर ही महायुति सत्ता में आई। उस सत्ता परिवर्तन के खेल में शिवसेना की बड़ी भूमिका रही। बेशक असली खिलाड़ी भाजपा ही थी, जिसकी शह पर एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में शिवसेना विधायक दल में जबरदस्त बगावत हुई। भाजपा विधानसभा में सबसे बड़ा दल है। फिर भी उसने उस बगावत के लिए पुरस्कार स्वरूप मुख्यमंत्री पद शिंदे को सौंप दिया, जबकि अपने पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडऩवीस को उप मुख्यमंत्री बनाया।

दो राय नहीं कि शिवसेना विधायक दल का बहुमत शिंदे के साथ गया और उद्धव अपने पिता बाला साहेब ठाकरे द्वारा बनाई गई पार्टी में ही अल्पमत में रह गए। शिवसेना में बगावत की वैधानिकता पर विधायिका से लेकर न्यायपालिका तक सवाल उठे, पर अब जबकि नए विधानसभा चुनाव हो रहे हैं, जनता की अदालत में निर्णायक फैसला हो जाएगा कि वह शिंदे की शिवसेना को असली मानती है या उद्धव ठाकरे की। चंद महीने पहले हुए लोकसभा चुनाव में मतदाताओं का मन उद्धव की शिवसेना की ओर झुका हुआ नजर आया था। महायुति को 2019 के मुकाबले 2024 के लोकसभा चुनाव में भारी नुकसान हुआ। पिछली बार 48 में से 41 सीटें जीतने वाला राजग इस बार 17 पर सिमट गया, पर उसके बाद शिंदे सरकार ने लोक-लुभावन योजनाओं की घोषणा कर मतदाताओं का मन मोहने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी है। शायद इसीलिए महाराष्ट्र में हरियाणा के साथ ही विधानसभा चुनाव नहीं करवाए गए। 2019 में दोनों राज्यों में विधानसभा चुनाव एक साथ हुए थे। तब भाजपा और शिवसेना दोस्त थे। विधानसभा चुनाव की घोषणा से पहले हुई शिंदे मंत्रिमंडल की अंतिम बैठक में 150 मिनट में ‘मुफ्त रेवडिय़ां’ बांटने वाली 50 योजनाओं की घोषणा की गई। 

ये घोषणाएं सत्ता विरोधी भावना के साथ ही उद्धव और शरद पवार के प्रति सहानुभूति को भी कम कर मतदाताओं का मन कितना बदल पाएंगी यह तो 23 नवंबर को मतगणना से ही पता चलेगा, लेकिन लोकसभा चुनाव से यह संकेत तो साफ है कि शिंदे की शिवसेना अजित पवार की राकांपा की तरह हवा-हवाई नहीं है। वहीं अजित पवार  देवेंद्र फडऩवीस के साथ एक सुबह उप-मुख्यमंत्री बन कर शरद पवार की राकांपा तोडऩे में नाकाम रहे थे। उद्धव सरकार के पतन के बाद जब शिंदे सरकार महाराष्ट्र में सत्तारूढ़ हो गई तो अजित पवार भी अपने चाचा की पार्टी तोडऩे में सफल हो गए। राकांपा के दो-तिहाई विधायकों ने अजित के साथ बगावत कर पार्टी में विभाजन को अंजाम दिया पर पांचवीं बार भी अजित  की गाड़ी उप मुख्यमंत्री पद पर ही जाकर रुक गई, जबकि उनका सपना मुख्यमंत्री बनना है।

लोकसभा चुनाव में सबसे खराब प्रदर्शन अजित पवार की राकांपा का ही रहा। उसके चलते विधानसभा चुनाव में अधिक सीटों के लिए अजित की दावेदारी कमजोर पड़ी है। उन्हें 50 के आसपास ही सीटें मिलने की उम्मीद है। जाहिर है, जीतेंगे, उससे भी कम यानी मुख्यमंत्री बनने का सपना इस बार भी अधूरा ही रहेगा, पर शिंदे मुख्यमंत्री पद आसानी से छोडऩे को तैयार नहीं। सच है कि खुद सबसे बड़ा दल होने के बावजूद भाजपा ने शिवसेना तोडऩे वाले शिंदे को राजनीतिक एवं रणनीतिक मजबूरी में ही मुख्यमंत्री बनाया। नए विधानसभा चुनाव के बाद भाजपा इस मजबूरी से निकलना चाहेगी। इसीलिए वह शिंदे की शिवसेना की सीटें 75 के आसपास सीमित रखते हुए खुद 150 सीटों पर लडऩा चाहती है। बेशक अभी शिंदे मुख्यमंत्री हैं और महायुति उनके ही नेतृत्व में चुनाव लड़ रही है, पर चुनाव बाद सबसे बड़े दल का दावा ज्यादा तार्किक होगा। इसीलिए शिंदे ज्यादा सीटों के लिए दबाव बना रहे हैं। 

दूसरी ओर अघाड़ी में सीट बंटवारे पर सहमति का आंकड़ा आश्चर्यजनक नजर आ रहा है। उद्धव की शिवसेना, शरद पवार की राकांपा और कांग्रेस 85-85 सीटों पर सहमत हो गई हैं। शेष 33 सीटों में से 13 छोटे दलों को दिए जाने के संकेत हैं, जबकि शेष 15 पर पेंच अभी फंसा है। ये आपस में ही बंटेंगी। जो दल ज्यादा सीटें जीतेगा, मुख्यमंत्री पद पर उसी का दावा ज्यादा मजबूत होगा। बेशक निर्णायक तो जीत ही होगी, पर फिलहाल उद्धव और शरद, शिंदे और अजित के मुकाबले ज्यादा सीटें पाने में सफल दिख रहे हैं। जाहिर है, जनादेश से पहले ही दोनों गठबंधनों में संभावित परिदृश्य के मद्देनजर शह-मात का खेल भी चल रहा है। शिवसेना और राकांपा में हो चुके विभाजन के मद्देनजर कांग्रेस पर प्रादेशिक नेताओं और कार्यकत्र्ताओं का दबाव है कि वह ज्यादा सीटों पर लड़े, जबकि पूर्व मुख्यमंत्री और सहानुभूति के नाते उद्धव अपनी शिवसेना के लिए ज्यादा सीटें चाहते हैं।

शेष 15 सीटों में से किसके हिस्से कितनी आएंगी यह तो समय ही बताएगा, लेकिन मराठा क्षत्रप शरद पवार अपने राकांपा गुट को तीसरे स्थान से उठा कर उद्धव की शिवसेना और कांग्रेस के बराबर खड़ा करने में तो सफल हो ही गए हैं। ऐसे में शेष 15 सीटें उद्धव और कांग्रेस के बीच बंटने के आसार ज्यादा हैं। हां, सीट बंटवारे और किसी हद तक उम्मीदवारों की घोषणा से भी, यह संकेत साफ है कि कोई भी गठबंधन इस चुनाव को हल्के में नहीं ले रहा, क्योंकि समृद्ध राज्य महाराष्ट्र की सत्ता, इस महंगी राजनीति के दौर में कोई भी किसी भी कीमत पर नहीं खोना चाहता।-राज कुमार सिंह
 


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