कानूनी अधिकार मिले तो ठीक है पर ‘पड़ताल’ भी जरूरी है

punjabkesari.in Saturday, Dec 14, 2019 - 12:54 AM (IST)

यह विडंबना ही तो है कि हमारे देश में बरसों तक किसी अन्य देश से आए नागरिक एक शरणार्थी के रूप में आएं जिन्हें उस देश में धार्मिक आधार पर जुल्म का शिकार होना पड़ा हो और यहां बिना किसी आधार के रह रहे हों। उनका यहां रहने का एकमात्र तरीका यह रहा हो कि जो उनका देश था वहां से उन्हें भारत का वीजा मिला हो और वे उसकी अवधि समाप्त होने पर उस देश में लौटने के बजाय वीजा अवधि बढ़वा कर यहां रह रहे हों। 

भारत में उन्हें रहने का न तो कानूनी अधिकार था, न ही भारत के संविधान के अनुसार वे यहां रह सकते थे। भारत सरकार उन्हें जबरदस्ती वापस जाने को भी नहीं कह सकती थी क्योंकि वे भारत में सदियों से रह रहे हिन्दू, सिख, ईसाई, बौद्ध, पारसी हैं और राजनीतिक उथल-पुथल के कारण पाकिस्तान, बंगलादेश और अफगानिस्तान में रह रहे थे और वहां उनके साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार हुआ जिसके चलते वे भारत आकर रहने लगे इस उम्मीद में कि कम से कम जिंदा तो बचे रहेंगे। अब भारत की मजबूरी यह कि मानवीय आधार पर उन्हें निकाला नहीं जा सकता और कानूनन यहां रहने भी नहीं दिया जा सकता। इन लोगों की मजबूरी यह कि कोई अन्य देश इन्हें क्यों स्वीकार करेगा, इसलिए अब भारत के सामने एक ही रास्ता बचता था कि इन्हें भारतीय नागरिकता दे दे और इसके लिए कानून में संशोधन कर इन्हें यहां वे सब अधिकार दे दिए जाएं जो सामान्य परिस्थतियों में किसी भी भारतीय नागरिक को मिले होते हैं। 

एक खबर थी कि डेढ़ करोड़ लोग हैं और दूसरे आंकड़ों के मुताबिक लगभग 30 हजार हैं जिन्हें कानून में संशोधन कर भारतीय नागरिकता दी जानी है। संख्या चाहे कितनी भी हो लेकिन प्रश्न यह कि कैसे तय होगा कि ये अपने पर हो रहे अत्याचार के कारण वहां से भारत आए? हो सकता है कि उनकी बात सही हो लेकिन क्या यह नहीं हो सकता कि उनमें से कोई  उस देश के कानून के अनुसार किसी गैर-कानूनी गतिविधि में शामिल होने के कारण वहां प्रताडि़त या दंडित किया गया हो और उससे बचने के लिए भारत इस उम्मीद से आ गया हो कि यहां कोई पूछताछ नहीं होगी और वे मजे में यहां रह सकते हैं। यही नहीं, उनकी यहां जन्मी संतान भी यहां भारतीय संसाधनों का इस्तेमाल करते हुए रह सकती है। भारत ही शायद एकमात्र ऐसा देश होगा जहां बिना नागरिकता लिए कोई भी आराम से 10-20 साल रह सकता है और न किसी को पता लगता है और न ही किसी को उसके पास भारतीय नागरिकता न होने का शक हो सकता है। 

अब शायद ही गिने-चुने लोगों को छोड़कर किसी को यह पता होगा कि अभिनेता अक्षय कुमार भारतीय नहीं, बल्कि कनाडा के नागरिक हैं। इसी तरह और भी बहुत से साधन सम्पन्न, धनी-मानी और रसूखदार लोग बिना भारतीय नागरिक बने यहां केवल फल-फूल ही नहीं रहे होंगे, बल्कि उनका सरकार से लेकर राजनीति, व्यापार, व्यवसाय में भी भारी दखल होगा। पाकिस्तान से यहां आकर अभिनय और गायन से शानदार जीवन बिताने वाले अनेक कलाकारों की पोल अक्सर खुलती रहती है। एक सवाल यह भी है कि ये लोग जो करोड़ों-अरबों रुपया भारत में रहकर कमाते हैं, उसे कहां रखते हैं, टैक्स किसे देते हैं और सरकार उनसे कुछ कहती क्यों नहीं कि आखिर बिना भारत की नागरिकता लिए यहां कैसे रह रहे हैं। जिन लोगों के बारे में आधिकारिक तौर पर पता है कि वे भारत के नागरिक नहीं हैं लेकिन यह भी वास्तविकता है कि बड़ी तादाद में ऐसे लोग यहां रह रहे हैं जिन्हें शरणार्थी नहीं, बल्कि घुसपैठियों की श्रेणी में रखा जाना चाहिए और उन्हें देश से निकाला ही जाना चाहिए। 

एक उम्र के बाद 
आमतौर से 60 से 75 वर्ष की आयु में पुरुष हो या महिला, उनकी शारीरिक और मानसिक स्थिति ऐसी हो जाती है जिसमें वे अपने अब तक के जीवन का लेखा-जोखा इस आधार पर करने लगते हैं कि उन्होंने जीवन में क्या खोया और क्या पाया। सामान्य व्यक्ति जो कोई नौकरी, रोजगार, व्यापार या व्यवसाय जीवन भर करता रहा होता है, अब उससे निवृत्त होने और अपने पारिवारिक जनों के बीच अब तक की जमा पूंजी को बांटने की बात सोचने लगता है। कुछ लोगों के लिए यह अब तक की कमाई को ठिकाने लगाना होता है और कुछ के लिए उसे अपने भविष्य हेतु सुरक्षित स्थान पर रखकर उससे जो ब्याज यानी रिटर्न मिले उससे अपना बाकी का जीवन आराम से बिताने की इच्छा होती है। इसके पीछे यह भी भावना रहती है कि अपना शेष जीवन तो सुख से बीत ही जाए, साथ में परिवार में बेटे-बेटी, बहू, नाती-पोतों के लिए भी कुछ न कुछ छोड़कर इस संसार से विदाई ली जाए। 

अक्सर ज्यादातर लोगों की इच्छा बस अपने परिवार तक ही सीमित होकर रह जाती है और वे अपने व अपने जीवनसाथी के साथ आनंद के क्षण अपनी मर्जी से बिताने का मौका तलाशते ही रह जाते हैं और जीवन की  डोर छूटने को हो जाती है। ऐसे लोगों को चाहिए कि तन से कमजोर और मन से डावांडोल होने से पहले जिन्दगी की इस सच्चाई को मानते हुए कि शरीर को तो एक दिन पंचतत्व में विलीन हो ही जाना है, अपने लिए अपनी सुविधा, शक्ति और सामथ्र्य के अनुसार वह सब करने के बारे में केवल सोच-विचार न करते हुए उस पर अमल कर देना चाहिए जो वे अब तक बस सपने में ही सोचा करते थे। 

इस उम्र में वह सब करिए जो आप अब तक किसी न किसी वजह से कर नहीं पाए। मतलब यह कि कोई शौक जो किसी न किसी कारण अब तक सिर्फ सोचने से आगे न बढ़ पाए, उसे कर लीजिए, बिना इस बात की परवाह किए कि अगर कोई यह भी कहे कि इस उम्र में इन्हें यह शौक चर्राया है। मत सोचिए कि इस उम्र में लोग क्या कहेंगे जैसे कि सुनने को मिल सकता है ‘सींग  काटकर बछड़ों में शामिल हो रहे हैं।’-पूरन चंद सरीन 
 


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