बहरूपिए, ढोंगी और पाखंडियों की पहचान न हो तो ठगा जाना तय
punjabkesari.in Saturday, Sep 06, 2025 - 05:36 AM (IST)

हमारा देश आदि काल से संत, महात्मा, आचार्य, गुरु के प्रति, राजा हो या रंक निष्ठा, समर्पण, आदर-सम्मान दिखाता आया है। इनके द्वारा कहां उचित, अनुचित का भेद किए बिना मान लिए जाने की परंपरा थी। यह भी बहुत सोच-समझकर,न्याय-अन्याय की परख कर और जो सार्वजनिक हित में हो, अक्सर वही बात कहते और करते थे। एक तरह का संतुलन बना रहता था। परंतु हम तो वर्तमान हैं और भूतकाल केवल याद ही कर सकते हैं और भविष्य सदा से अनिश्चय का भंवर रहा है। आवश्यक है कि तर्क की कसौटी पर कसे बिना स्वामियों से लेकर शंकराचार्य, मंडलेश्वर या किसी अन्य का कथन आंख-कान बंद कर मान लेना खतरे से खाली नहीं होता। भावनाओं से खिलवाड़ होना मामूली है, सब कुछ लूट लिया जाना संभव है और ‘अब पछताए क्या होत,जब चिडिय़ा चुग गई खेत’ नियति बन जाती है।
सनातन शाश्वत सत्य है : सबसे पहले तो उन लोगों से सावधान हो जाइए जो कहें कि सनातन खतरे में है, हम उसे बचाने निकले हैं। समझ लीजिए कि जो आदि और अंत दोनों है, उसकी रक्षा की बात कहने वाले बहरूपिए हैं जो कहे कि भारतीय संस्कृति की रक्षा करने निकले है, वे ढोंगी हैं जो इसके लिए कोई यज्ञ, अनुष्ठान करने का आह्वान करे, वह पाखंडी है और जो अपना सब कुछ अर्पित करने को कहे, वह लम्पट है।
यह समय वह नहीं जब स्वामी विवेकानंद, राम कृष्ण परमहंस, स्वामी श्रद्धानंद, स्वामी शिवानंद, महर्षि अरविंद, मां अमृतानंदमयी जैसी महान विभूतियां मार्गदर्शन करती थीं, आज एक गुरु ढूंढो हजार मिल जाते हैं। इनके महलनुमा आश्रमों की झलक एक वैबसीरीज में दिखाई गई जो बहुत लोकप्रिय हुई। इसके बावजूद न जाने क्या आकर्षण है कि ऐसे लोग अपनी शक्ल, सूरत और प्रवचन से इतना प्रभावित करते हैं कि उनके खोट दिखाई देने के बजाय लोग उनके मोहपाश में खिंचे चले आते हैं। इनकी कार्यशाला का सांचा अर्थात् ‘मोडस ऑपरेंडी’ यह है कि सबसे पहले किसी टी.वी. चैनल या समाचार पत्र के संपादकीय विभाग में पैठ बनाते हैं। अपनी रोनी सूरत से देश पर अभूतपूर्व संकट के बादल और सनातन को पुन: स्थापित करने का संकल्प दोहराते हैं। संपादक, पत्रकार के जीवन में ऐसे लोग प्रतिदिन आते रहते हैं, बड़े से बड़ा गुरु, अपने धर्म का स्वयंभू सर्वेसर्वा उनकी कृपा यानी अखबार या टी.वी. में तनिक-सा स्थान और फोटो के साथ हो तो और भी बढिय़ा, इसके लिए पैर छूने से लेकर साक्षात् दंडवत् करता है।
एक बार इसमें सफल हो गए तो फिर नेताओं के चक्कर और किसी तरह मंत्री से लेकर मुख्यमंत्री, यहां तक कि प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति तक अखबार की कतरन और टी.वी. की क्लिप और कतरनी की तरह चलने वाली जुबान से अपनी पहुंच बना लेते हैं। इसके बाद तो इनका धंधा इन्हें झोंपड़ी से महलों तक ले जाता है। अफसोस इस बात का है कि जहां भारत की आध्यात्मिकता, सनातन की व्याख्या और जीवन की संपूर्णता के बारे में गंभीर ज्ञान, आत्मिक शक्ति और नेतृत्व क्षमता चाहिए,वहां रंगीन वस्त्रधारियों, फूहड़ और महिलाओं के बारे में अपमानजनक भाषा बोलने वालों और विलासिता की वस्तुओं को भक्तों का प्रेम बताने वालों की भरमार है।
इनकी शान-ओ-शौकत आम आदमी की मेहनत से कमाई पूंजी पर निर्भर है। अंधविश्वास को भक्ति का चोला पहनाकर, अनहोनी का डर और अनर्थ की आशंका से इन्हें चढ़ावे के तौर पर बेहिसाब धन मिलने लगता है। कोई हिसाब-किताब,न ही कोई प्रमाण कि आपने दिया है। केवल उज्ज्वल भविष्य का सपना बेचकर ऐसे लोग मालामाल होते जाते हैं, कोई ऐसा व्यसन या शौक नहीं जो यह न करते हों।
अशिक्षा और राजनीति का वरदान : यह स्थिति आजादी से पहले भी थी लेकिन 60 के दशक से इसमें बहुत बढ़ौतरी हुई। सभी दलों के राजनीति के खिलाडिय़ों को इनमें अपना भविष्य बनाने के गुण दिखाई दिए और उसके बाद तो देश में आश्रम, मठ खुलने लगे। सरकार ने भी इनके द्वारा किए गए जमीन के गैर-कानूनी कब्जे की तरफ से आंखें मूंद ही नहीं लीं, बल्कि सभी प्रकार की सहायता भी दी। इन स्थानों पर स्कूल, अस्पताल और धार्मिक स्थलों का निर्माण करने में प्रशासन ने सभी तरह का सहयोग दिया। 70-80 के दशक में इनके कारनामें उजागर होना शुरू हुए और जब कुछ लुटेरों को लोगों की धार्मिक, नैतिक भावनाओं को भड़काने की कोशिश नाकाम होती हुई दिखी तो वे अमरीका, यूरोप में ठीक वैसे ही जा पहुंचे जैसे आॢथक अपराधी बैंकों और अन्य संस्थाओं को चूना लगाने के बाद विदेश भागते हैं। इन मामलों में इतनी तेजी आई कि सरकार इनकी और अपनी छवि बचाने और ये लोग सभी हथकंडे अपनाने में लग गए।
कैसे निपटा जाए : इस स्थिति का एक ही उपाय है स्वयं को शिक्षित करना और यह मांग करना कि हमारे बच्चों के स्कूल पाठ्यक्रम में ऐसे पाठ शामिल किए जाएं जिनसे बचपन से ही जिस प्रकार गुड और बैड टच की बात सिखाते हैं, उसी तरह सनातन की आड़ में और धर्म की दुहाई देकर जो भ्रम फैलाया जाता है, उसका नीर-क्षीर-विवेक यानी दूध का दूध और पानी का पानी कैसे किया जाए। चाहे कोई नास्तिक की पदवी दे और यहां तक कि घर परिवार, मित्र और रिश्तेदार किसी के आगे झुकने से लेकर समर्पण करने से इंकार करने पर सभी संबंध तोड़ दें, हंसी-खुशी मान लीजिए क्योंकि आप एक गंभीर संकट से बच गए हैं। बच्चे अक्सर अध्यापक का कहना माता पिता से ज्यादा मानते हैं तो वे पढ़ाई के दौरान बच्चों को ऐसे उदाहरण दें जिनसे वे सही और गलत के बीच भेद करना सीख सकें। यह भी नए भारत की पहचान होगी।-पूरन चंद सरीन